- महाभारत द्रोण पर्व मेंं प्रतिज्ञा पर्व के अंतर्गत 73वें अध्याय मेंं 'संजय ने युधिष्ठिर के द्वारा अभिमन्युवध का वृत्तान्त सुनकर अर्जुन के जयद्रथ का वध करने की प्रतिज्ञा करने' का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
अर्जुन द्वारा जयद्रथ के वध की प्रतिज्ञा करना
संजय कहते हैं- महाराज! धर्मराज युधिष्ठिर की कही हुई यह बात सुनकर अर्जुन व्यथा से पीड़ित हो लंबी साँस खींचते हुए ‘हा पुत्र’ कहकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उस समय सबके मुख पर विषाद छा गया। सब लोग अर्जुन को घेरकर दुखी हो एकटक नेत्रों से एक-दूसरे की ओर देखने लगे। तदनन्तर इन्द्रपुत्र अर्जुन होश में आकर क्रोध से व्याकुल हो मानो ज्वर से काँप रहे हों– इस प्रकार बारंबार लंबी साँस खींचते और हाथ पर हाथ मलते हुए नेत्रों से आँसू बहाने लगे और उन्मत्त के समान देखते हुए इस तरह बोले- अर्जुन ने कहा– मैं आप लोगों के सामने सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, कल जयद्रथ को अवश्य मार डालूँगा। महाराज! यदि वह मारे जाने के भय से डरकर धृतराष्ट्रपुत्रों को छोड़ नहीं देगा, मेरी, पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की अथवा आपकी शरण में नहीं आ जायगा तो कल उसे अवश्य मार डालूँगा। जो धृतराष्ट्र के पुत्रों का प्रिय कर रहा है, जिसने मेरे प्रति अपना सौहार्द्र भुला दिया है तथा जो बालक अभिमन्यु के वध में कारण बना है, उस पापी जयद्रथ को कल अवश्य मार डालूँगा। राजन! युद्ध में जयद्रथ की रक्षा करते हुए जो कोई मेरे साथ युद्ध करेंगे, वे द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ही क्यों न हों, उन्हें अपने बाणों के समूह से आच्छादित कर दूँगा। पुरुषश्रेष्ठ वीरो! यदि संग्राम भूमि में मैं ऐसा न कर सकूँ तो पुण्यात्मा पुरुषों के उन लोकों को, जो शूरवीर को प्रिय हैं, न प्राप्त करूँ। माता-पिता की हत्या करने वालों को जो लोक प्राप्त होते हैं, गुरु-पत्नीगामी और चुगलखोरों को जिन लोकों की प्राप्ति होती है, साधुपुरुषों की निन्दा करने वालों और दूसरों को कलंक लगाने वालों को जो लोक प्राप्त होते हैं, धरोहर हड़पने और विश्वासघात करने वालों को जिन लोकों की प्राप्ति होती है, दूसरे के उपभोग में आयी हुई स्त्री को ग्रहण करने वाले, पाप की बातें करने वाले, ब्रह्महत्यारे और गोघातियों को जो लोक प्राप्त होते हैं, खीर, यवान्न, साग, खिचड़ी, हलुआ, पूआ आदि को बलिवैश्वदेव किये बिना ही खाने वाले मनुष्यों को जो लोक प्राप्त होते हैं, यदि मैं कल जयद्रथ का वध न कर डालूँ तो मुझे तत्काल उन्हीं लोकों को जाना पड़े।
वेदों का स्वाध्याय अथवा अत्यन्त कठोर व्रत का पालन करने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण की तथा बड़े-बूढ़ों, साधु पुरुषों और गुरुजनों की अवहेलना करने वाला पुरुष जिन नरकों में पड़ता है, ब्राह्मण, गौ और अग्नि को पैर से छूने वाले पुरुष की जो गति होती है तथा जल में थूक अथवा मल-मूत्र छोड़ने वालों की जो दुर्गति होती है, यदि मैं कल जयद्रथ को न मारूँ तो उसी कष्टदायिनी गति को मैं भी प्राप्त करूँ। नंगे नहाने वाले तथा अतिथि को भोजन दिये बिना ही उसे असफल लौटा देने वाले पुरुष की जो गति होती है, घूसखोर, असत्यवादी तथा दूसरों के साथ वंचना (ठगी) करने वालों की जो दुर्गति होती है, आत्मा का हनन करने वाले, दूसरों पर झूठे दोषारोपण करने वाले, भृत्यों की आज्ञा के अधीन रहने वाले तथा स्त्री, पुत्र एवं आश्रित जनों के साथ यथायोग्य बँटवारा किये बिना ही अकेले मिष्ठान्न उड़ाने वाले क्षुद्र पुरुषों को जिस घोर नारकी गति की प्राप्ति होती है, यदि मैं कल जयद्रथ को न मारूँ तो मुझे भी वही दुर्गति प्राप्त हो।[1] जो नृशंस स्वभाव का मनुष्य शरणागत, साधुपुरुष तथा आज्ञापालन में तत्पर रहने वाले पुरुष को त्यागकर उसका भरण-पोषण नहीं करता, जो उपकारी की निन्दा करता है, पड़ोस में रहने वाले योग्य व्यक्ति को श्राद्ध का दान नहीं देता और अयोग्य व्यक्तियों को तथा शूद्रा के स्वामी ब्राह्मण को देता है, जो मद्य पीने वाला, धर्म-मर्यादा को तोड़ने वाला, कृतघ्न और अग्नि की निन्दा करने वाला है– इन सभी लोगों को जो दुर्गति प्राप्त होती है, उसी को मैं भी शीघ्र ही प्राप्त करूँ, यदि कल जयद्रथ का वध न कर डालूँ।
जो बायें हाथ से भोजन करते हैं, गोद में रखकर खाते हैं, जो पलास के आसन का और तेंदू की दातुन का त्याग नहीं करते तथा उष:काल में सोते हैं, उनको जो नरक लोक प्राप्त होते हैं (वे ही मुझे भी मिले, यदि मैं जयद्रथ को न मार डालूँ)। जो ब्राह्मण होकर सर्दी से और क्षत्रिय होकर युद्ध से डरते हैं, जिस गाँव में एक ही कुएँ का जल पीया जाता हो और जहाँ कभी वेदमंत्रों की ध्वनि न हुई हो, ऐसे स्थानों में जो छ: महीनों तक निवास करते हैं, जो शास्त्र की निन्दा में तत्पर रहते, दिन में मैथुन करते और सोते हैं, जो दूसरों के घरों में आग लगाते और दूसरों को जहर दे देते हैं, जो कभी अग्निहोत्र और अतिथि-सत्कार नहीं करते तथा गायों के पानी पीने में विघ्न डालते हैं, जो रजस्वला स्त्री का सेवन करते हैं और शुल्क लेकर कन्या देते हैं, जो बहुतों की पुरोहिती करते, ब्राह्मण होकर सेवा-वृत्ति से जीविका चलाते, मुँह में मैथुन करते अथवा दिन में स्त्री-सहवास करते हैं, जो ब्राह्मण को कुछ देने की प्रतिज्ञा करके फिर लोभवश नहीं देते हैं, उन सबको जिन लोकों अथवा दुर्गति की प्राप्ति होती है, उन्हीं को मैं भी प्राप्त होऊँ; यदि कल तक जयद्रथ को न मार डालूँ। ऊपर जिन पापियों का नाम मैंने गिनाया है तथा जिन दूसरे पापियों का नाम नहीं गिनाया है, उनको जो दुर्गति प्राप्त होती है, उसी को शीघ्र ही मैं भी प्राप्त करूँ, यदि यह रात बीतने पर कल जयद्रथ को न मार डालूँ। अब आप लोग पुन: मेरी यह दूसरी प्रतिज्ञा भी सुन लें। यदि इस पापी जयद्रथ के मारे जाने से पहले ही सूर्यदेव अस्ताचल को पहुँच जायँगे तो मैं यहीं प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश कर मर जाउँगा। देवता, असुर, मनुष्य, पक्षी, नाग, पितर, निशाचर, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, यह चराचर जगत तथा इसके परे जो कुछ है, वह– ये सब मिलकर भी मेरे शत्रु जयद्रथ की रक्षा नहीं कर सकते। यदि जयद्रथ पाताल में घुस जाय या उससे भी आगे बढ़ जाय अथवा आकाश, देवलोक या दैत्यों के नगर में जाकर छिप जाय तो भी मैं कल अपने सैकड़ों बाणों से अभिमन्यु के उस घोर शत्रु का सिर अवश्य काट लूँगा।
ऐसा कहकर अर्जुन ने दाहिने और बायें हाथ से भी गाण्डीव धनुष की टंकार की। उसकी ध्वनि दूसरे शब्दों को दबाकर सम्पूर्ण आकाश में गूँज उठी। अर्जुन के इस प्रकार प्रतिज्ञा कर लेने पर भगवान श्रीकृष्ण ने भी अत्यन्त कुपित होकर पांचजन्य शंख बजाया। इधर अर्जुन ने भी देवदत्त नामक शंख को फूँका। भगवान श्रीकृष्ण के मुख की वायु से भीतरी भाग भर जाने के कारण अत्यन्त भयंकर ध्वनि प्रकट करने वाले पांचजन्य ने आकाश, पाताल, दिशा और दिक्पालों सहित सम्पूर्ण जगत को कम्पित कर दिया, मानो प्रलयकाल आ गया हो। महामना अर्जुन ने अब उक्त प्रतिज्ञा कर ली, उस समय पाण्डवों के शिबिर में अनेक बाजों के हजारों शब्द और पाण्डव वीरों का सिंहनाद भी सब ओर गूँजने लगा। भीमसेन ने कहा- अर्जुन! तुम्हारी प्रतिज्ञा के शब्द से और भगवान श्रीकृष्ण के इस शंखनाद से मुझे विश्वास हो गया कि यह धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन अपने सगे-सम्बन्धियों सहित अवश्य मारा जायगा। नरश्रेष्ठ! तुम्हारा यह वचन महान अर्थ से युक्त और मुझे अत्यन्त प्रिय है। यह अत्यन्त प्रभावशाली वाक्य तुम्हारे पुत्रशोकमय उस रोष-समूह का निवारण कर रहा है, जिसने तुम्हारे गले के सुन्दर पुष्पहार को मसल डाला था।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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| सात्यकि का कृतवर्मा से युद्ध
| धृतराष्ट्र का संजय से विषादयुक्त वचन
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| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के ग्यारह पुत्रों का वध
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| भीमसेन की गर्जना सुनकर युधिष्ठिर का प्रसन्न होना
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| भीमसेन का पराक्रम तथा धृतराष्ट्र के सात पुत्रों का वध
| भीमसेन का कर्ण से युद्ध तथा दुर्योधन के सात भाइयों का वध
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| सात्यकि का अद्भुत पराक्रम
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| वृष्णिवंशी वीरों की प्रशंसा
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| कर्ण द्वारा कृपाचार्य का अपमान
| अश्वत्थामा का कर्ण को मारने के लिये उद्यत होना
| पांडवों और पांचालों का कर्ण पर आक्रमण तथा कर्ण का पराक्रम
| अर्जुन द्वारा कर्ण की पराजय
| दुर्योधन का अश्वत्थामा से पांचालों के वध का अनुरोध
| अश्वत्थामा का दुर्योधन को उपालम्भपूर्ण आश्वासन तथा पांचालों से युद्ध
| अश्वत्थामा का धृष्टद्युम्न से युद्ध तथा उसका अद्भुत पराक्रम
| भीमसेन और अर्जुन का आक्रमण तथा कौरव सेना का पलायन
| सात्यकि द्वारा सोमदत्त का वध
| द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का युद्ध
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य से दूर रहने का आदेश
| कौरवों और पांडवों की सेनाओं में प्रदीपों का प्रकाश
| कौरवों और पांडवों की सेनाओं का घमासान युद्ध
| दुर्योधन का द्रोणाचार्य की रक्षा हेतु सैनिकों को आदेश
| कृतवर्मा द्वारा युधिष्ठिर की पराजय
| सात्यकि द्वारा भूरि का वध
| घटोत्कच और अश्वत्थामा का घोर युद्ध
| भीम और दुर्योधन का युद्ध तथा दुर्योधन का पलायन
| कर्ण द्वारा सहदेव की पराजय
| शल्य द्वारा विराट के भाई शतानीक का वध और विराट की पराजय
| अर्जुन से पराजित होकर अलम्बुष का पलायन
| शतानीक के द्वारा चित्रसेन की पराजय
| वृषसेन के द्वारा द्रुपद की पराजय
| प्रतिबिन्ध्य एवं दु:शासन का युद्ध
| नकुल के द्वारा शकुनि की पराजय
| शिखण्डी और कृपाचार्य का घोर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य से युद्ध
| धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुमसेन का वध
| सात्यकि और कर्ण का युद्ध
| कर्ण की दुर्योधन को सलाह
| शकुनि का पांडव सेना पर आक्रमण
| सात्यकि से दुर्योधन की पराजय
| अर्जुन से शकुनि और उलूक की पराजय
| धृष्टद्युम्न से कौरव सेना की पराजय
| दुर्योधन के उपालम्भ से द्रोणाचार्य और कर्ण का घोर युद्ध
| अर्जुन सहित भीमसेन का कौरवों पर आक्रमण
| कर्ण द्वारा धृष्टद्युम्न एवं पांचालों की पराजय
| कर्ण के पराक्रम से युधिष्ठिर की घबराहट
| श्रीकृष्ण और अर्जुन का घटोत्कच को कर्ण के साथ युद्ध हेतु भेजना
| घटोत्कच और जटासुरपुत्र अलम्बुष का घोर युद्ध
| घटोत्कच द्वारा जटासुरपुत्र अलम्बुष का वध
| घटोत्कच और उसके रथ आदि के स्वरूप का वर्णन
| कर्ण और घटोत्कच का घोर संग्राम
| अलायुध के स्वरूप और रथ आदि का वर्णन
| भीमसेन और अलायुध का घोर युद्ध
| घटोत्कच द्वारा अलायुध का वध और दुर्योधन का पश्चाताप
| कर्ण द्वारा इन्द्रप्रदत्त शक्ति से घटोत्कच का वध
| घटोत्कच वध से पांडवों का शोक तथा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता
| श्रीकृष्ण का अर्जुन को जरासंध आदि के वध करने का कारण बताना
| कर्ण द्वारा अर्जुन पर शक्ति न छोड़ने के रहस्य का वर्णन
| धृतराष्ट्र का पश्चाताप और संजय का उत्तर
| युधिष्ठिर का शोक और श्रीकृष्ण तथा व्यास द्वारा उसका निवारण
द्रोणवध पर्व
| अर्जुन के कहने से उभयपक्ष के सैनिकों का सो जाना
| उभयपक्ष के सैनिकों का चन्द्रोदय के बाद पुन: युद्ध में लग जाना
| दुर्योधन का उपालम्भ और द्रोणाचार्य का व्यंग्यपूर्ण उत्तर
| पांडव वीरों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| द्रुपद के पौत्रों तथा द्रुपद और विराट आदि का वध
| धृष्टद्युम्न की प्रतिज्ञा और दोनों दलों में घमासान युद्ध
| युद्धस्थल की भीषण अवस्था का वर्णन
| नकुल के द्वारा दुर्योधन की पराजय
| दु:शासन और सहदेव का घोर युद्ध
| कर्ण और भीमसेन का घोर युद्ध
| द्रोणाचार्य और अर्जुन का घोर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का दु:शासन को हराकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| दुर्योधन और सात्यकि का संवाद तथा युद्ध
| कर्ण और भीमसेन का संग्राम तथा अर्जुन का कौरवों पर आक्रमण
| द्रोणाचार्य का घोर कर्म
| ऋषियों का द्रोण को अस्त्र त्यागने का आदेश
| अश्वत्थामा की मृत्यु सुनकर द्रोण की जीवन से निराशा
| द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न का घोर युद्ध
| सात्यकि की शूरवीरता और प्रशंसा
| उभयपक्ष के श्रेष्ठ महारथियों का परस्पर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य पर आक्रमण और घोर युद्ध
| द्रोणाचार्य का अस्त्र त्यागकर योगधारणा द्वारा ब्रह्मलोक गमन
| धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य के मस्तक का उच्छेद
नारायणास्त्र-मोक्षपर्व
| कौरव सैनिकों तथा सेनापतियों का भागना
| कृपाचार्य का अश्वत्थामा को द्रोणवध का वृत्तान्त सुनाना
| धृतराष्ट्र का प्रश्न
| अश्वत्थामा के क्रोधपूर्ण उद्गार
| अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्राकट्य
| कौरव सेना का सिंहनाद सुनकर युधिष्ठिर का अर्जुन से कारण पूछना
| अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा के क्रोध एवं गुरुहत्या के भीषण परिणाम का वर्णन
| भीमसेन के वीरोचित उद्गार
| धृष्टद्युम्न के द्वारा अपने कृत्य का समर्थन
| सात्यकि और धृष्टद्युम्न का परस्पर क्रोधपूर्ण वाग्बाणों से लड़ना
| भीम, सहदेव तथा युधिष्ठिर द्वारा सात्यकि और धृष्टद्युम्न को लड़ने से रोकना
| अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्रयोग
| नारायणास्त्र के प्रयोग से युधिष्ठिर का खेद
| श्रीकृष्ण के बताये हुए उपाय से सैनिकों की रक्षा
| भीम का वीरोचित उद्गार और उन पर नारायणास्त्र का प्रबल आक्रमण
| श्रीकृष्ण का भीम को रथ से उतारकर नारायणास्त्र को शान्त करना
| अश्वत्थामा का पुन: नारायणास्त्र के प्रयोग में असमर्थता बताना
| अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न की पराजय
| सात्यकि का दुर्योधन, कृपाचार्य, कृतवर्मा, कर्ण और वृषसेन को भगाना
| सात्यकि का अश्वत्थामा से घोर युद्ध
| अश्वत्थामा द्वारा मालव, पौरव और चेदिदेश के युवराज का वध
| भीम और अश्वत्थामा का घोर युद्ध
| अश्वत्थामा के आग्नेयास्त्र से एक अक्षौहिणी पांडव सेना का संहार
| श्रीकृष्ण और अर्जुन पर आग्नेयास्त्र का प्रभाव न होने से अश्वत्थामा की चिन्ता
| व्यास का अश्वत्थामा को शिव और श्रीकृष्ण की महिमा बताना
| व्यास का अर्जुन से शिव की महिमा बताना
| द्रोण पर्व के पाठ और श्रवण का फल
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