- महाभारत द्रोण पर्व मेंं जयद्रथवध पर्व के अंतर्गत 114वें अध्याय मेंं 'संजय ने धृतराष्ट्र का संजय से विषादयुक्त वचन कहने' का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
धृतराष्ट्र का संजय से विषादयुक्त वचन कहना
धृतराष्ट्र ने कहा- संजय! मेरी सेना इस प्रकार अनेक गुणों से सम्पन्न है और इस तरह अधिक संख्या मे इसका संग्रह किया गया है। पांडव सेना में इसका संग्रह किया गया है। पाण्डव सेना की अपेक्षा यह प्रबल भी है। इसकी व्यूह रचना भी इस प्रकार शास्त्रीय विधि के अनुसार की जाती है और इस तरह बहुत-से योद्धाओं का समूह जुट गया है। हम लोगों ने सदा अपनी सेना का आदर-सत्कार किया है तथा वह हमारे प्रति सदा से ही अनुरक्त भी है। हमारे सैनिक युद्ध की कला में बढ़े-चढ़े है। हमारा सैन्य-समुदाय देखने में अद्भुत जान पड़ता है तथा इस सेना में वे ही लोग चुन-चुनकर रखे गये हैं, जिनका पराक्रम पहले से ही देख लिया गया है। इसमें न तो कोई अधिक बूढ़ा हैं, न बालक हैं, न अधिक दुबला है और न बहुत ही मोटा है। उनका शरीर हल्का, सुडौल तथा प्राय: लंबा है। शरीर का एक-एक अवयव सारवान (सबल) तथा सभी सैनिक नीरोग एवं स्वस्थ्य है। इन सैनिकों का शरीर बंधे हुए कवच से आच्छादित है। इनके पास शस्त्र आदि आवश्यक सामग्रियों की बहुतायत है। ये सभी सैनिक शस्त्रग्रहण सम्बन्धी बहुत-सी विद्याओं में प्रवीण है। चढ़ने, उतरने, फैलने, कूद-कूदकर चलने, भली-भाँति प्रहार करने, युद्ध के लिये जाने और अवसर देखकर पलायन करने में भी कुशल है। हाथियों, घोड़ों तथा रथों पर बैठकर युद्ध करने की कला में सब लोगों की परीक्षा ली जा चुकी है और परीक्षा लेने के पश्चात् उन्हें यथायोग्य वेतन दिया गया है। हमने किसी को भी गोष्ठी द्वारा बहकाकर, उपकार करके अथवा किसी सम्बन्ध के कारण सेना में भर्ती नहीं किया है। इनमें ऐसा भी कोई नहीं हैं, जिसे बुलाया न गया हो अथवा जिसे बेगार में पकड़कर लाया गया हो। मेरी सारी सेना की यही स्थिति है। इसमें सभी लोग कुलीन, श्रेष्ठ, हष्ट-पुष्ट उद्दण्डता शून्य, पहले से सम्मानित, यशस्वी तथा मनस्वी है।
तात! हमारे मन्त्रों तथा अन्य बहुतेरे प्रमुख कार्यकर्ता जो पुण्यात्मा, लोकपालों के समान पराक्रमी और मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं, सदा इस सेना का पालन करके आये हैं। हमारा प्रिय करने की इच्छा वाले तथा सेना और अनुचरों सहित स्वेच्छा से ही हमारे पक्ष में आये हुए बहुत-से भूपालगण भी इसकी रक्षा में तत्पर रहते है। सम्पूर्ण दिशा में बहकर आयी हुई नदियों से परिपूर्ण होने वाले महासागर के समान हमारी यह सेना अगाध और अपार है। पक्षरहित एवं पक्षियों के समान तीव्र वेग से चलने-वाले रथों और घोड़ों से यह भरी हुई है। मण्डस्थल से बहाने वाले गजराजों द्वारा आवृत यह मेरी विशाल वाहिनी यदि शत्रुओं द्वारा मारी गयी हैं तो इसमें भाग्य के सिवा दूसरा क्या कारण हो सकता है। संजय! मेरी सेना भयंकर समुन्द्र के समान जान पड़ती है। योद्धा ही इसे अक्षम्य जल हैं, वाहन ही इसकी तरंगमालाएं हैं, क्षेपणीय, खड्ग, गदा, शक्ति, बाण और प्राप्त आदि अस्त्र–शस्त्र इसमें मछलियों के समान भरे हुए हैं। ध्वजा और आभूषणों के समुदाय इसके भीतर रत्नों के समान संचित है। दौड़ते हुए वाहन ही वायु के वेग हैं जिनसे यह सैन्य समुन्द्र कम्पित एवं क्षुब्ध-सा जान पड़ता है। द्रोणाचार्य ही इसकी पाताल तक फैली हुर्इ गहराई हैं। कृतवर्मा इसमें महान ह्रद के समान हैं, जलसंघ विशाल ग्राह है और कर्णरुपी चन्द्रमा के उदय से यह सदा उद्वेलित होता रहता है।[1]
संजय! ऐसे मेरे सैन्यरुपी महासागर का वेगपूर्वक भेदन करके जब पाण्डव श्रेष्ठ सव्यसाची अर्जुन तथा सात्यतवंशी उदार महारथी युयुधान एकमात्र रथ की सहायता से इसके भीतर घुस गये, तब मैं अपनी सेना के शेष रहने की आशा नहीं देखता हैं। उन दोनों अत्यन्त वेगशाली वीरों को वहाँ सबका उल्लंघन करके घुसे हुए देख तथा सिन्धुराज जयद्रथ की गाण्डीव से छूटे हुए बाणों की सीमा में उपस्थित पाकर काल-प्रेरित कौरवों ने वहाँ कौन-सा कार्य किया? उस दारुण संहार के समय, जहाँ मृत्यु के सिवा दूसरी कोई भाँति नहीं थी, किस प्रकार उन्होंने कर्तव्य का निश्चय किया? संजय! श्रीकृष्ण और अर्जुन बिना कोई क्षति उठाये युद्धस्थल में मेरी सेना के भीतर घुस गये; परंतु इसमें कोई भी वीर उन दोनों को रोकने वाला न निकला। हमने दूसरे बहुत-से महारथी योद्धाओं की परीक्षा करके ही उन्हें सेना में भर्ती किया है और यथायोग्य वेतन देकर तथा प्रिय वचन बोलकर उनका सत्कार किया है। तात! मेरी सेना में कोई भी ऐसा नहीं हैं, जिसे अनादर-पूर्वक रखा गया हो। सबको उनके कार्य के अनुरुप ही भोजन और वेतन प्राप्त होता है। तात संजय! मेरी सेना में ऐसा एक भी योद्धा नहीं रहा होगा, जिसे थोड़ा वेतन दिया जाता हो अथवा बिना वेतन के ही रखा गया हो। तात! मैंने, मेरे पुत्रों ने तथा कुटूम्बीजनों एवं बन्धु–बान्धवों ने सभी सैनिकों का यथाशक्ति दान, मान और आसन देकर सत्कार किया है। तथापि सव्यसाची अर्जुन ने संग्राम भूमि में पहुँचते ही उन सबको पराजित कर दिया है और सात्यकि ने भी उन्हें कुचल डाला है। इसे भाग्य के सिवा और क्या कहा जा सकता है?
संजय! संग्राम में जिसकी रक्षा की जाती है और जो लोग रक्षक हैं, उन रक्षकों सहित रक्षणीय पुरुष के लिये एकमात्र साधारण मार्ग रह गया है पराजय। अर्जुन को समरांगण में सिन्धुराज के सामने खड़ा देख अत्यन्त मोहग्रस्त हुए मेरे पुत्र ने कौन-सा कर्तव्य निश्चित किया? सात्यकि को रणक्षेत्र में निर्भय-सा प्रवेश करते देख दुर्योधन ने उस समय के लिये कौन-सा कर्तव्य उचित माना? सम्पूर्ण शस्त्रों की पहुँच से परे होकर जब रथियों में श्रेष्ठ सात्यकि और अर्जुन मेरी सेना में प्रविष्ट हो गये, तब उन्हें देखकर मेरे पुत्रों ने युद्धस्थल में किस प्रकार धैर्य धारण किया? मैं समझता हूँ कि अर्जुन के लिये रथ पर बैठे हुए दशार्ह-नन्दन भगवान श्रीकृष्ण को तथा शिनिप्रवर सात्यकि को देखकर मेरे पुत्र शोकमग्न हो गये होंगे। सात्यकि और अर्जुन को सेना लांघकर जाते और कौरव सैनिकों को युद्धस्थल से भागते देखकर मैं समझता हूँ कि मेरे पुत्र शोक में डूब गये होंगे। मेरे मन में यह बात आती है कि अपने रथियों को शत्रु विजय की ओर से उत्साह शून्य होकर भागते और भागने में ही बहादुरी दिखाते देख मेरे पुत्र शोक कर रहे होगें। सात्यकि और अर्जुन ने हमारी रथों की बैठकें सूनी कर दी हैं और योद्धाओं को मार गिराया है, यह देखकर मैं सोचता हूँ कि मेरे पुत्र बहुत दुखी हो गये होगे। अर्जुन के बाणों से आहत होकर बड़े-बड़े गजराजों को भागते, गिरते और गिरे हुए देखकर मैं समझता हूँ कि मेरे पुत्र शोक कर रहे होगें।[2]
सात्यकि और अर्जुन ने घोड़ों को सवारों से हीन और मनुष्यों को रथ से वंचित कर दिया है। यह देख-सुनकर मेरे पुत्र शोक में डूब रहे होगे। रणक्षेत्र में सात्यकि और अर्जुन द्वारा मारे गये तथा इधर-उधर भागते हुए अश्व समूहों को देखकर मैं मानता हूँ कि मेरे पुत्र शोकदग्ध हो रहे होंगे। पैदल सिपाहियों को रणक्षेत्र में सब ओर भागते देख मैं समझता हूं, मेरे सभी पुत्र विजय से निराश हो शोक कर रहे होंगे। मेरे मन में यह बात आती हैं कि किसी से पराजित न होने वाले दोनों वीर अर्जुन और सात्यकि को क्षणभर में द्रोणाचार्य की सेना उल्लघंन करते देख मेरे पुत्र शोकाकुल हो गये होंगे। तात! अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले श्रीकृष्ण और अर्जुन के सात्यकि सहित अपनी सेना में घुसने का समाचार सुनकर मैं अत्यन्त मोहित हो रहा हूँ। शिनिप्रवर महारथी सात्यकि जब कृतवर्मा की सेना को लांघकर कौरवी सेना में प्रविष्ट हो गये, तब कौरवों ने क्या किया? संजय! जब द्रोणाचार्य ने समर-भूमि में पूर्वोक्त प्रकार से पाण्डवों को रोक दिया, तब वहाँ किस प्रकार युद्ध हुआ? यह सब मुझे बताओ। द्रोणाचार्य अस्त्रविद्या में निपुण, युद्ध में उन्मत होकर लड़ने वाले, बलवान एवं श्रेष्ठ वीर हैं। पाञ्चालों सैनिकों ने उस समय रणक्षेत्र में महाधनुर्धर द्रोण को किस प्रकार घायल किया? क्योकि वे द्रोणाचार्य से वैर बांधकर अर्जुन की विजय-की अभिलाषा रखते थे। संजय! भरद्वाज के पुत्र महारथी अश्वत्थामा भी पाञ्चालों से दृढ़तापूर्वक वैर बांधे हुए थे। अर्जुन ने सिन्धुराज जयद्रथ का वध करने के लिये जो-जो उपाय किया, वह सब मुझसे कहो; क्योंकि तुम कथा कहने में कुशल हो।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 114 श्लोक 1-15
- ↑ महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 114 श्लोक 16-36
- ↑ महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 114 श्लोक 37-56
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| दुर्योधन और अर्जुन का युद्ध
| अर्जुन द्वारा दुर्योधन की पराजय
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| भीमसेन का द्रोणाचार्य के रथ को आठ बार फेंकना
| भीमसेन की गर्जना सुनकर युधिष्ठिर का प्रसन्न होना
| भीमसेन और कर्ण का युद्ध तथा कर्ण की पराजय
| दुर्योधन का द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को द्यूत का परिणाम दिखाकर युद्ध हेतु वापस भेजना
| युधामन्यु तथा उत्तमौजा का दुर्योधन के साथ युद्ध
| भीमसेन द्वारा कर्ण की पराजय
| भीमसेन और कर्ण का घोर युद्ध
| भीमसेन द्वारा कर्ण के सारथि सहित रथ का विनाश
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्जय का वध
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्मुख का वध
| कर्ण-भीमसेन युद्ध में कर्ण का पलायन
| धृतराष्ट्र का खेदपूर्वक भीमसेन के बल का वर्णन और अपने पुत्रों की निन्दा
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के पाँच पुत्रों का वध
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| सात्यकि द्वारा अलम्बुष का और दु:शासन के घोड़ों का वध
| सात्यकि का अद्भुत पराक्रम
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| सात्यकि के आगमन से अर्जुन की चिन्ता
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| सात्यकि द्वारा भूरिश्रवा का वध
| भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के अपमानित होने का कारण
| वृष्णिवंशी वीरों की प्रशंसा
| अर्जुन का जयद्रथ पर आक्रमण तथा दुर्योधन और कर्ण का वार्तालाप
| अर्जुन का कौरव योद्धाओं के साथ युद्ध
| कर्ण और अर्जुन का युद्ध तथा कर्ण की पराजय
| अर्जुन का अद्भुत पराक्रम
| अर्जुन द्वारा सिन्धुराज जयद्रथ का वध
| अर्जुन के बाणों से कृपाचार्य का मूर्छित होना तथा अर्जुन का खेद
| कर्ण और सात्यकि का युद्ध एवं कर्ण की पराजय
| अर्जुन का कर्ण को फटकारना और वृषसेन वध की प्रतिज्ञा
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| रात्रियुद्ध में पांडव सैनिकों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| द्रोणाचार्य द्वारा शिबि का वध
| भीमसेन द्वारा ध्रुव, जयरात एवं कलिंग राजकुमार का वध
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुष्कर्ण और दुर्मद का वध
| सोमदत्त और सात्यकि का युद्ध तथा सोमदत्त की पराजय
| द्रोणाचार्य का पांडवों से घोर संग्राम
| घटोत्कच और अश्वत्थामा का युद्ध तथा अंजनपर्वा का वध
| अश्वत्थामा द्वारा एक अक्षौहिणी राक्षस सेना का संहार
| अश्वत्थामा का अद्भुत पराक्रम तथा द्रुपदपुत्रों का वध
| सोमदत्त की मूर्छा तथा भीमसेन द्वारा बाह्लीक का वध
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के दस पुत्रों और शकुनि के पाँच भाइयों का वध
| द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर के युद्ध में युधिष्ठिर की विजय
| दुर्योधन और कर्ण की बातचीत
| कृपाचार्य द्वारा कर्ण को फटकारना
| कर्ण द्वारा कृपाचार्य का अपमान
| अश्वत्थामा का कर्ण को मारने के लिये उद्यत होना
| पांडवों और पांचालों का कर्ण पर आक्रमण तथा कर्ण का पराक्रम
| अर्जुन द्वारा कर्ण की पराजय
| दुर्योधन का अश्वत्थामा से पांचालों के वध का अनुरोध
| अश्वत्थामा का दुर्योधन को उपालम्भपूर्ण आश्वासन तथा पांचालों से युद्ध
| अश्वत्थामा का धृष्टद्युम्न से युद्ध तथा उसका अद्भुत पराक्रम
| भीमसेन और अर्जुन का आक्रमण तथा कौरव सेना का पलायन
| सात्यकि द्वारा सोमदत्त का वध
| द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का युद्ध
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य से दूर रहने का आदेश
| कौरवों और पांडवों की सेनाओं में प्रदीपों का प्रकाश
| कौरवों और पांडवों की सेनाओं का घमासान युद्ध
| दुर्योधन का द्रोणाचार्य की रक्षा हेतु सैनिकों को आदेश
| कृतवर्मा द्वारा युधिष्ठिर की पराजय
| सात्यकि द्वारा भूरि का वध
| घटोत्कच और अश्वत्थामा का घोर युद्ध
| भीम और दुर्योधन का युद्ध तथा दुर्योधन का पलायन
| कर्ण द्वारा सहदेव की पराजय
| शल्य द्वारा विराट के भाई शतानीक का वध और विराट की पराजय
| अर्जुन से पराजित होकर अलम्बुष का पलायन
| शतानीक के द्वारा चित्रसेन की पराजय
| वृषसेन के द्वारा द्रुपद की पराजय
| प्रतिबिन्ध्य एवं दु:शासन का युद्ध
| नकुल के द्वारा शकुनि की पराजय
| शिखण्डी और कृपाचार्य का घोर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य से युद्ध
| धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुमसेन का वध
| सात्यकि और कर्ण का युद्ध
| कर्ण की दुर्योधन को सलाह
| शकुनि का पांडव सेना पर आक्रमण
| सात्यकि से दुर्योधन की पराजय
| अर्जुन से शकुनि और उलूक की पराजय
| धृष्टद्युम्न से कौरव सेना की पराजय
| दुर्योधन के उपालम्भ से द्रोणाचार्य और कर्ण का घोर युद्ध
| अर्जुन सहित भीमसेन का कौरवों पर आक्रमण
| कर्ण द्वारा धृष्टद्युम्न एवं पांचालों की पराजय
| कर्ण के पराक्रम से युधिष्ठिर की घबराहट
| श्रीकृष्ण और अर्जुन का घटोत्कच को कर्ण के साथ युद्ध हेतु भेजना
| घटोत्कच और जटासुरपुत्र अलम्बुष का घोर युद्ध
| घटोत्कच द्वारा जटासुरपुत्र अलम्बुष का वध
| घटोत्कच और उसके रथ आदि के स्वरूप का वर्णन
| कर्ण और घटोत्कच का घोर संग्राम
| अलायुध के स्वरूप और रथ आदि का वर्णन
| भीमसेन और अलायुध का घोर युद्ध
| घटोत्कच द्वारा अलायुध का वध और दुर्योधन का पश्चाताप
| कर्ण द्वारा इन्द्रप्रदत्त शक्ति से घटोत्कच का वध
| घटोत्कच वध से पांडवों का शोक तथा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता
| श्रीकृष्ण का अर्जुन को जरासंध आदि के वध करने का कारण बताना
| कर्ण द्वारा अर्जुन पर शक्ति न छोड़ने के रहस्य का वर्णन
| धृतराष्ट्र का पश्चाताप और संजय का उत्तर
| युधिष्ठिर का शोक और श्रीकृष्ण तथा व्यास द्वारा उसका निवारण
द्रोणवध पर्व
| अर्जुन के कहने से उभयपक्ष के सैनिकों का सो जाना
| उभयपक्ष के सैनिकों का चन्द्रोदय के बाद पुन: युद्ध में लग जाना
| दुर्योधन का उपालम्भ और द्रोणाचार्य का व्यंग्यपूर्ण उत्तर
| पांडव वीरों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| द्रुपद के पौत्रों तथा द्रुपद और विराट आदि का वध
| धृष्टद्युम्न की प्रतिज्ञा और दोनों दलों में घमासान युद्ध
| युद्धस्थल की भीषण अवस्था का वर्णन
| नकुल के द्वारा दुर्योधन की पराजय
| दु:शासन और सहदेव का घोर युद्ध
| कर्ण और भीमसेन का घोर युद्ध
| द्रोणाचार्य और अर्जुन का घोर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का दु:शासन को हराकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| दुर्योधन और सात्यकि का संवाद तथा युद्ध
| कर्ण और भीमसेन का संग्राम तथा अर्जुन का कौरवों पर आक्रमण
| द्रोणाचार्य का घोर कर्म
| ऋषियों का द्रोण को अस्त्र त्यागने का आदेश
| अश्वत्थामा की मृत्यु सुनकर द्रोण की जीवन से निराशा
| द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न का घोर युद्ध
| सात्यकि की शूरवीरता और प्रशंसा
| उभयपक्ष के श्रेष्ठ महारथियों का परस्पर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य पर आक्रमण और घोर युद्ध
| द्रोणाचार्य का अस्त्र त्यागकर योगधारणा द्वारा ब्रह्मलोक गमन
| धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य के मस्तक का उच्छेद
नारायणास्त्र-मोक्षपर्व
| कौरव सैनिकों तथा सेनापतियों का भागना
| कृपाचार्य का अश्वत्थामा को द्रोणवध का वृत्तान्त सुनाना
| धृतराष्ट्र का प्रश्न
| अश्वत्थामा के क्रोधपूर्ण उद्गार
| अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्राकट्य
| कौरव सेना का सिंहनाद सुनकर युधिष्ठिर का अर्जुन से कारण पूछना
| अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा के क्रोध एवं गुरुहत्या के भीषण परिणाम का वर्णन
| भीमसेन के वीरोचित उद्गार
| धृष्टद्युम्न के द्वारा अपने कृत्य का समर्थन
| सात्यकि और धृष्टद्युम्न का परस्पर क्रोधपूर्ण वाग्बाणों से लड़ना
| भीम, सहदेव तथा युधिष्ठिर द्वारा सात्यकि और धृष्टद्युम्न को लड़ने से रोकना
| अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्रयोग
| नारायणास्त्र के प्रयोग से युधिष्ठिर का खेद
| श्रीकृष्ण के बताये हुए उपाय से सैनिकों की रक्षा
| भीम का वीरोचित उद्गार और उन पर नारायणास्त्र का प्रबल आक्रमण
| श्रीकृष्ण का भीम को रथ से उतारकर नारायणास्त्र को शान्त करना
| अश्वत्थामा का पुन: नारायणास्त्र के प्रयोग में असमर्थता बताना
| अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न की पराजय
| सात्यकि का दुर्योधन, कृपाचार्य, कृतवर्मा, कर्ण और वृषसेन को भगाना
| सात्यकि का अश्वत्थामा से घोर युद्ध
| अश्वत्थामा द्वारा मालव, पौरव और चेदिदेश के युवराज का वध
| भीम और अश्वत्थामा का घोर युद्ध
| अश्वत्थामा के आग्नेयास्त्र से एक अक्षौहिणी पांडव सेना का संहार
| श्रीकृष्ण और अर्जुन पर आग्नेयास्त्र का प्रभाव न होने से अश्वत्थामा की चिन्ता
| व्यास का अश्वत्थामा को शिव और श्रीकृष्ण की महिमा बताना
| व्यास का अर्जुन से शिव की महिमा बताना
| द्रोण पर्व के पाठ और श्रवण का फल
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