- महाभारत द्रोण पर्व मेंं जयद्रथवध पर्व के अंतर्गत 98वें अध्याय मेंं 'धृतराष्ट्र के पूछने पर संजय ने द्रोणाचार्य और सात्यकि के मध्य हुए अद्भुत युद्ध' का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है-[1]
धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! जब वृष्णिवंश के प्रमुख वीर युयुधान ने आचार्य द्रोण के उस बाण को काट दिया और धृष्टधुम्न को प्राणसंकट से बचा लिया, तब अमर्ष में भरे हुए सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ महाधनुर्धर नरव्याघ्र द्रोणाचार्य ने उस युद्ध स्थल में सात्यकि के प्रति क्या किया।
विषय सूची
- 1 द्रोणाचार्य का सात्यकि पर आक्रमण करना
- 2 सात्यकि का द्रोणाचार्य के पास युद्ध के लिये जाना
- 3 द्रोणाचार्य और सात्यकि का अद्भुत युद्ध
- 4 सात्यकि का भयंकर पराक्रम
- 5 द्रोणाचार्य द्वारा सात्यकि के पराक्रम की प्रशंसा करना
- 6 द्रोणाचार्य और सात्यकि द्वारा दिव्यास्त्रों का प्रयोग करना
- 7 टीका टिप्पणी व संदर्भ
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द्रोणाचार्य का सात्यकि पर आक्रमण करना
संजय ने कहा–महाराज! उस समय क्रोध और अमर्ष से लाल आंखे किये द्रोणाचार्य ने फुफकारते हुए महानाग के समान बड़े वेग से सात्यकि पर धावा किया। क्रोध ही उस महानाग का विष था, खींचा हुआ धनुष फैलाये हुए मुख के समान जान पड़ता था, तीखी धारवाले बाण दांतों के समान थे और तेज धारवाले नाराच दाढ़ों का काम देते थे। हर्ष में भरे हुए नरवीर द्रोणाचार्य ने अपने महान वेगशाली लाल घोड़ों द्वारा, जो मानो आकाश में उड़ रहे और पर्वत को लांघ रहे थे, सुवर्णमय पंखवाले बाणों की वर्षा करते हुए वहाँ युयुधान पर आक्रमण किया। उस समय द्रोणाचार्य अश्वरुपी वायु से संचालित अनिवार्य मेघ के समान हो रहे थे। बाणों का प्रहार ही उनके द्वारा की जाने वाली महावृष्टि था। रथ की घर्घराहट ही मेघ की गर्जना थी, धनुष का खींचना ही धारावाहिक वृष्टि का साधन था, बहुत से नाराच ही विद्युत के समान प्रकाशित होते थे, उस मेघ ने खड्ग और शक्तिरुपी अशनि को धारण कर रखा था और क्रोध के वेग से ही उसका उत्थान हुआ था।
सात्यकि का द्रोणाचार्य के पास युद्ध के लिये जाना
शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले रणदुर्मद शूरवीर सात्यकि द्रोणाचार्य को अपने उपर आक्रमण करते देख सारथि से जोर-जोर हंसते हुए बोले। ‘सूत! ये शौर्यसम्पन्न ब्राह्मण देवता अपने ब्राह्मणो चित्त कर्म में स्थिर नहीं हैं। ये धृतराष्ट्र पुत्र राजा दुर्योधन के आश्रय होकर उसके दु:ख और भय का निवारण करने वाले हैं। समस्त राजकुमारों के ये ही आचार्य हैं और सदा अपने वेग शाली अश्वों द्वारा शीघ्र इनका सामना करने के लिये चलो’। तदनन्तर चांदी के समान श्वेत रंग वाले और वायु के समान वेगशाली सात्यकि के उत्तम घोड़े द्रोणाचार्य के सामने शीघ्रता पूर्वक जा पहुँचे।
द्रोणाचार्य और सात्यकि का अद्भुत युद्ध
फिर तो शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोणाचार्य और सात्यकि एक दूसरे पर सहस्त्रों बाणों का प्रहार करते हुए युद्ध करने लगे। उन दोनों पुरुषशिरोमणि वीरों ने आकाश को बाणों के समूह से आच्छादित कर दिया और दसों दिशाओं को बाणों से भर दिया। जैसे वर्षाकाल में दो मेघ एक दूसरे पर जल की धाराएं गिराते हों, उसी प्रकार वे परस्पर बाण वर्षा कर रहे थे। उस समय न तो सूर्य का पता चलता था और न हवा ही चलती। चारों ओर बाणों का जाल-सा बिछ जाने के कारण वहाँ घोर अन्धकार छा गया था। उस समय अन्य शूरवीरों का वहाँ पहुँचना असम्भव-सा हो गया। शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने की कला को जानने वाले द्रोणाचार्य तथा सात्वतवंशी सात्यकि के बाणों से लोक में अन्धकार छा जाने पर उस समय उन दोनों पुरुष सिंह की बाण-वर्षा में कोई अन्तर नहीं दिखायी देता था। बाणों के परस्पर टकराने से उनकी धारों के आघात प्रत्याघात से जो शब्द होता था, वह इन्द्र के छोडे़ हुए वज्रास्त्रों की गड़गड़ाहट के समान सुनायी पड़ता था। भरतनन्दन! नाराचों से अत्यन्त विद्ध हुए बाणों का स्वरुप विषधर नागों के डंसे सर्पो के समान जान पड़ता था।[1] उन दोनों युद्धकुशल वीरों के धनुषों की प्रत्यच्चा की टंकार ध्वनि ऐसी सुनायी देती थी, मानो पर्वतों के शिखरों पर निरन्तर वज्र से आघात किया जा रहा हो। राजन! उन दोनों के वे रथ, वे घोड़े और वे सारथि सुवर्णमय पंखवाले बाणों से क्षत-विक्षत होकर उस समय विचित्ररुप से सुशोभित हो रहे थे। प्रजानाथ! केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान निर्मल और सीधे जाने वाले नाराचों का प्रहार वहाँ बड़ा भयंकर प्रतीत होता था। दोनों के छत्र कटकर गिर गये, ध्वज धराशायी हो गये और दोनों ही विजय की अभिलाषा रखते हुए खून से लथपथ हो रहे थे। सारे अगड़ों से रक्त की धारा बहने के कारण वे दोनों वीर मदवर्षी गजराजों के समान जान पड़ते थे। वे एक दूसरे को प्राणन्तकारी बाणों से बेध रहे थे।[2]
महाराज! उस समय गरज ने, ललकार ने और सिंहनाद के शब्द तथा शंखों और दुन्दुभियों के साथ घोष बंद हो गये थे। कोई बातचीत तक नहीं करता था। सारी सेनाएं मौन थीं, योद्धा युद्ध से विरत हो गये थे, सब लोग कौतुहलवश उन दोनों के द्वैरथ युद्ध का दृश्य देखने लगे। रथी, महावत, घुड़सवार और पैदल सभी उन दोनों नरश्रेष्ठ वीरों को घेरकर उन्हें एकटक नेत्रों से निहारने लगे। हाथियों की सेनाएं चुपचाप खड़ी थी, घुड़सवार सैनिकों की भी दशा थी तथा रथ सेनाएं भी व्यूह बनाकर वहाँ स्थिर भाव से खड़ी थीं। भारत! मोती और मूंगों से चित्रित तथा मणियों और सुवणों से विभूषित, ध्वज, विचित्र आभूषण, सुवर्णमय कवच, वैजयन्ती, पताका, हाथियों के झूल और कम्बल, चमचमाते हुए तीखे शस्त्र, घोड़ों की पीठ पर बिछाये वस्त्र , हाथियों के कुम्भ स्थल में और मस्तकों पर सुशोभित होने वाले सोने-चांदी की मालाएं तथा दन्तवेष्टन- इन सब वस्तुओं के कारण उभय पक्ष की सेनाएं वर्षाकाल में बगलों की पांति, खद्योत, ऐरावत और बिजलियों से युक्त मेघ समूहों के समान दृष्टि गोचर हो रही थीं। राजन! हमारी और युधिष्ठिर की सेना के सैनिक वहाँ खड़े होकर महामना द्रोण और सात्यकि का वह युद्ध देख रहे थे।
सात्यकि का भयंकर पराक्रम
ब्रह्मा और चन्द्रमा आदि सब देवता विमानों पर बैठकर वहाँ युद्ध देखने के लिये आये थे। उनके साथ ही सिद्धों और चारणों के समूह, विद्याधर और बड़े-बड़े नागगण भी थे। वे सब लोग उन दोनों पुरुषसिंहों के विचित्र गमन प्रत्यागमन, आक्षेप तथा नाना प्रकार के अस्त्र निवारक व्यापारों से आश्रर्यचकित हो रहे थे। महावीर द्रोणाचार्य और सात्यकि अस्त्र चलाने में अपने हाथों की फुर्ती दिखाते हुए बाणों द्वारा एक दूसरे को बेध रहे थे। इसी बीच में सात्यकि ने महातेजस्वी द्रोणाचार्य के धनुष और बाणों को पंखयुक्त सुदृढ़ बाणों द्वारा युद्ध स्थल में शीघ्र ही काट डाला। तब भरद्वाजनन्द द्रोण ने पलक मारते-मारते दूसरा धनुष हाथा में लेकर उस पर प्रत्यचां चढ़ायी; परंतु सात्यकि ने उनके उस धनुष को भी काट डाला। तब द्रोणाचार्य पुन: बड़ी उतावली के साथ दूसरा धनुष हाथ में लेकर खड़े हो गये; परन्तु ज्यों ही वे धनुष पर डोरी चढ़ाते, त्यों ही सात्यकि अपने तीखे बाणों द्वारा उसे काट देते थे। इस प्रकार सुद्यढ़ धनुष धारण करने वाले सात्यकि ने आचार्य के एक सौ धनुष काट डाले; परंतु कब वे संधान करते हैं और सात्यकि कब उस धनुष को काट देते है, उन दोनों के इस कार्य में किसी को कोई अन्तर नहीं दिखायी दिया।
द्रोणाचार्य द्वारा सात्यकि के पराक्रम की प्रशंसा करना
राजेन्द्र! तदनन्तर रणक्षेत्र में सात्यकि के उस अमानुषिक पराक्रम को देखकर द्रोणाचार्य ने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया।[2] सात्वकुल के श्रेष्ठ वीर सात्यकि में जो यह अस्त्रबल दिखायी देता है, ऐसा तो केवल परशुराम में, कार्तवीर्य अर्जुन में, धनंजय में तथा पुरुषसिंह भीष्म में ही देखा-सुना गया है। द्रोणाचार्य ने मन-ही-मन उसके पराक्रमी बड़ी प्रशंसा की। इन्द्र के समान सात्यकि के उस हस्तलाघव तथा पराक्रम को देखकर अस्त्रवेताओं में श्रेष्ठ विप्रवर द्रोणाचार्य और इन्द्र आदि देवता भी बड़े प्रसन्न हुए। प्रजानाथ! रणभूमि में शीघ्रतापूर्वक विचरने वाले सात्यकि की उस फुर्ती को देवताओं, गन्धर्वो, सिद्धों और चारण समूहों ने पहले कभी नहीं देखा था। वे जानते थे कि केवल द्रोणाचार्य ही वैसा पराक्रम कर सकते हैं परंतु उस दिन उन्होंने सात्यकि का पराक्रम भी प्रत्यक्ष देख लिया।[3]
द्रोणाचार्य और सात्यकि द्वारा दिव्यास्त्रों का प्रयोग करना
भारत! तत्पश्रात अस्त्रवेताओं में श्रेष्ठ क्षत्रियसंहारक द्रोणाचार्य ने दूसरा धनुष हाथ में लेकर विभिन्न अस्त्रों द्वारा युद्ध आरम्भ किया। सात्यकि ने अपने अस्त्रों की माया से आचार्य के अस्त्रों का निवारण करके उन्हें तीखे बाणों से घायल कर दिया। वह अद्भुत सी घटना हुई। उस रणक्षेत्र में सात्यकि के उस युक्ति युक्त अलौकिक कर्म को, जिसकी दूसरों से कोई तुलना नहीं थी, देखकर आपके रणकौशल वेता सैनिक उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। द्रोणाचार्य जिस अस्त्र का प्रयोग करते, उसी का सात्यकि भी करते थे। शत्रुओं को संताप देने वाले आचार्य द्रोण भी घबराहट छोड़कर सात्यकि से युद्ध करते रहे। महाराज तदनन्तर धनुर्वेद के पारगड़त विद्वान द्रोणाचार्य ने कुपित हो सात्यकि के वध के लिये एक दिव्यास्त्र प्रकट किया। शत्रुओं का नाश करने वाले उस अत्यन्त भयंकर आग्नेयास्त्र को देखकर महाधनुर्धर सात्यकि ने वारुणनामक दिव्यास्त्र का प्रयोग किया। उन दोनों दिव्यास्त्र धारण किये देख वहाँ महान हाहाकार मच गया। उस समय आकाशचारी प्राणी भी आकाश में विचरण नहीं करते थे। वे वारुण और आग्नेय दोनों अस्त्र उन दोनों के द्वारा अपने बाणों में स्थापित होकर जब तक एक दूसरे के प्रभाव से प्रतिहत नहीं हो गये, तभी तक भगवान सूर्य दक्षिण से पश्चिम के आकाश में ढल गये।
तब राजा युधिष्ठिर, पाण्डुकुमार भीमसेन, नकुल और सहदेव सब ओर से सात्यकि की रक्षा करने लगे। धृष्टद्युम्न आदि वीरों के साथ विराट, केकय राजकुमार मत्स्य देशीय सैनिक तथा शाल्व देश की सेनाएं-ये सब के सब अनायास ही द्रोणाचार्य पर चढ़ आये। उधर से सहस्त्रों राजकुमार दु:शासन को आगे करके शत्रुओं से घिरे हुए द्रोणाचार्य के पास उनकी रक्षा के लिये आ पहुँचे। राजन! तदनन्तर पाण्डवों के और आपके धनुर्धरों का परस्पर युद्ध होने लगा। उस समय सब लोग धूल से आवृत और बाण समूह से आच्छादित हो गये थे। वहाँ का सब कुछ उद्विग्न हो रहा था। सेना द्वारा उड़ायी हुई धूल से ध्वस्त होने के कारण किसी को कुछ ज्ञात नहीं होता था। वहाँ मर्यादाशून्य युद्ध चल रहा था।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 98 श्लोक 1-18
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 98 श्लोक 19-40
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 98 श्लोक 41-57
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| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के ग्यारह पुत्रों का वध
| भीमसेन का द्रोणाचार्य के रथ को आठ बार फेंकना
| भीमसेन की गर्जना सुनकर युधिष्ठिर का प्रसन्न होना
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| दुर्योधन का द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को द्यूत का परिणाम दिखाकर युद्ध हेतु वापस भेजना
| युधामन्यु तथा उत्तमौजा का दुर्योधन के साथ युद्ध
| भीमसेन द्वारा कर्ण की पराजय
| भीमसेन और कर्ण का घोर युद्ध
| भीमसेन द्वारा कर्ण के सारथि सहित रथ का विनाश
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्जय का वध
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्मुख का वध
| कर्ण-भीमसेन युद्ध में कर्ण का पलायन
| धृतराष्ट्र का खेदपूर्वक भीमसेन के बल का वर्णन और अपने पुत्रों की निन्दा
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के पाँच पुत्रों का वध
| भीमसेन और कर्ण का युद्ध तथा कर्ण का पलायन
| भीमसेन का पराक्रम तथा धृतराष्ट्र के सात पुत्रों का वध
| भीमसेन का कर्ण से युद्ध तथा दुर्योधन के सात भाइयों का वध
| भीमसेन और कर्ण का भयंकर युद्ध
| पहले भीम की और पीछे कर्ण की विजय
| अर्जुन के बाणों से व्यथित होकर कर्ण और अश्वत्थामा का पलायन
| सात्यकि द्वारा अलम्बुष का और दु:शासन के घोड़ों का वध
| सात्यकि का अद्भुत पराक्रम
| श्रीकृष्ण का अर्जुन को सात्यकि के आगमन की सूचना देना
| सात्यकि के आगमन से अर्जुन की चिन्ता
| भूरिश्रवा और सात्यकि का रोषपूर्ण सम्भाषण और युद्ध
| अर्जुन द्वारा भूरिश्रवा की भुजा का उच्छेद
| भूरिश्रवा का अर्जुन को उपालम्भ देना और अर्जुन का उत्तर
| भूरिश्रवा का आमरण अनशन
| सात्यकि द्वारा भूरिश्रवा का वध
| भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के अपमानित होने का कारण
| वृष्णिवंशी वीरों की प्रशंसा
| अर्जुन का जयद्रथ पर आक्रमण तथा दुर्योधन और कर्ण का वार्तालाप
| अर्जुन का कौरव योद्धाओं के साथ युद्ध
| कर्ण और अर्जुन का युद्ध तथा कर्ण की पराजय
| अर्जुन का अद्भुत पराक्रम
| अर्जुन द्वारा सिन्धुराज जयद्रथ का वध
| अर्जुन के बाणों से कृपाचार्य का मूर्छित होना तथा अर्जुन का खेद
| कर्ण और सात्यकि का युद्ध एवं कर्ण की पराजय
| अर्जुन का कर्ण को फटकारना और वृषसेन वध की प्रतिज्ञा
| श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर बधाई देना
| श्रीकृष्ण का अर्जुन को रणभूमि का दृश्य दिखाते हुए युधिष्ठिर के पास जाना
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को अर्जुन की विजय का समाचार सुनाना
| युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति
| युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन, भीम एवं सात्यकि का अभिनन्दन
| दुर्योधन का व्याकुल होकर द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को उत्तर और युद्ध के लिए प्रस्थान
| दुर्योधन और कर्ण की बातचीत तथा पुन: युद्ध का आरम्भ
घटोत्कचवध पर्व
कौरव-पांडव सेना का युद्ध
| दुर्योधन और युधिष्ठिर का संग्राम तथा दुर्योधन की पराजय
| रात्रियुद्ध में पांडव सैनिकों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| द्रोणाचार्य द्वारा शिबि का वध
| भीमसेन द्वारा ध्रुव, जयरात एवं कलिंग राजकुमार का वध
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुष्कर्ण और दुर्मद का वध
| सोमदत्त और सात्यकि का युद्ध तथा सोमदत्त की पराजय
| द्रोणाचार्य का पांडवों से घोर संग्राम
| घटोत्कच और अश्वत्थामा का युद्ध तथा अंजनपर्वा का वध
| अश्वत्थामा द्वारा एक अक्षौहिणी राक्षस सेना का संहार
| अश्वत्थामा का अद्भुत पराक्रम तथा द्रुपदपुत्रों का वध
| सोमदत्त की मूर्छा तथा भीमसेन द्वारा बाह्लीक का वध
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के दस पुत्रों और शकुनि के पाँच भाइयों का वध
| द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर के युद्ध में युधिष्ठिर की विजय
| दुर्योधन और कर्ण की बातचीत
| कृपाचार्य द्वारा कर्ण को फटकारना
| कर्ण द्वारा कृपाचार्य का अपमान
| अश्वत्थामा का कर्ण को मारने के लिये उद्यत होना
| पांडवों और पांचालों का कर्ण पर आक्रमण तथा कर्ण का पराक्रम
| अर्जुन द्वारा कर्ण की पराजय
| दुर्योधन का अश्वत्थामा से पांचालों के वध का अनुरोध
| अश्वत्थामा का दुर्योधन को उपालम्भपूर्ण आश्वासन तथा पांचालों से युद्ध
| अश्वत्थामा का धृष्टद्युम्न से युद्ध तथा उसका अद्भुत पराक्रम
| भीमसेन और अर्जुन का आक्रमण तथा कौरव सेना का पलायन
| सात्यकि द्वारा सोमदत्त का वध
| द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का युद्ध
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य से दूर रहने का आदेश
| कौरवों और पांडवों की सेनाओं में प्रदीपों का प्रकाश
| कौरवों और पांडवों की सेनाओं का घमासान युद्ध
| दुर्योधन का द्रोणाचार्य की रक्षा हेतु सैनिकों को आदेश
| कृतवर्मा द्वारा युधिष्ठिर की पराजय
| सात्यकि द्वारा भूरि का वध
| घटोत्कच और अश्वत्थामा का घोर युद्ध
| भीम और दुर्योधन का युद्ध तथा दुर्योधन का पलायन
| कर्ण द्वारा सहदेव की पराजय
| शल्य द्वारा विराट के भाई शतानीक का वध और विराट की पराजय
| अर्जुन से पराजित होकर अलम्बुष का पलायन
| शतानीक के द्वारा चित्रसेन की पराजय
| वृषसेन के द्वारा द्रुपद की पराजय
| प्रतिबिन्ध्य एवं दु:शासन का युद्ध
| नकुल के द्वारा शकुनि की पराजय
| शिखण्डी और कृपाचार्य का घोर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य से युद्ध
| धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुमसेन का वध
| सात्यकि और कर्ण का युद्ध
| कर्ण की दुर्योधन को सलाह
| शकुनि का पांडव सेना पर आक्रमण
| सात्यकि से दुर्योधन की पराजय
| अर्जुन से शकुनि और उलूक की पराजय
| धृष्टद्युम्न से कौरव सेना की पराजय
| दुर्योधन के उपालम्भ से द्रोणाचार्य और कर्ण का घोर युद्ध
| अर्जुन सहित भीमसेन का कौरवों पर आक्रमण
| कर्ण द्वारा धृष्टद्युम्न एवं पांचालों की पराजय
| कर्ण के पराक्रम से युधिष्ठिर की घबराहट
| श्रीकृष्ण और अर्जुन का घटोत्कच को कर्ण के साथ युद्ध हेतु भेजना
| घटोत्कच और जटासुरपुत्र अलम्बुष का घोर युद्ध
| घटोत्कच द्वारा जटासुरपुत्र अलम्बुष का वध
| घटोत्कच और उसके रथ आदि के स्वरूप का वर्णन
| कर्ण और घटोत्कच का घोर संग्राम
| अलायुध के स्वरूप और रथ आदि का वर्णन
| भीमसेन और अलायुध का घोर युद्ध
| घटोत्कच द्वारा अलायुध का वध और दुर्योधन का पश्चाताप
| कर्ण द्वारा इन्द्रप्रदत्त शक्ति से घटोत्कच का वध
| घटोत्कच वध से पांडवों का शोक तथा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता
| श्रीकृष्ण का अर्जुन को जरासंध आदि के वध करने का कारण बताना
| कर्ण द्वारा अर्जुन पर शक्ति न छोड़ने के रहस्य का वर्णन
| धृतराष्ट्र का पश्चाताप और संजय का उत्तर
| युधिष्ठिर का शोक और श्रीकृष्ण तथा व्यास द्वारा उसका निवारण
द्रोणवध पर्व
| अर्जुन के कहने से उभयपक्ष के सैनिकों का सो जाना
| उभयपक्ष के सैनिकों का चन्द्रोदय के बाद पुन: युद्ध में लग जाना
| दुर्योधन का उपालम्भ और द्रोणाचार्य का व्यंग्यपूर्ण उत्तर
| पांडव वीरों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| द्रुपद के पौत्रों तथा द्रुपद और विराट आदि का वध
| धृष्टद्युम्न की प्रतिज्ञा और दोनों दलों में घमासान युद्ध
| युद्धस्थल की भीषण अवस्था का वर्णन
| नकुल के द्वारा दुर्योधन की पराजय
| दु:शासन और सहदेव का घोर युद्ध
| कर्ण और भीमसेन का घोर युद्ध
| द्रोणाचार्य और अर्जुन का घोर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का दु:शासन को हराकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| दुर्योधन और सात्यकि का संवाद तथा युद्ध
| कर्ण और भीमसेन का संग्राम तथा अर्जुन का कौरवों पर आक्रमण
| द्रोणाचार्य का घोर कर्म
| ऋषियों का द्रोण को अस्त्र त्यागने का आदेश
| अश्वत्थामा की मृत्यु सुनकर द्रोण की जीवन से निराशा
| द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न का घोर युद्ध
| सात्यकि की शूरवीरता और प्रशंसा
| उभयपक्ष के श्रेष्ठ महारथियों का परस्पर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य पर आक्रमण और घोर युद्ध
| द्रोणाचार्य का अस्त्र त्यागकर योगधारणा द्वारा ब्रह्मलोक गमन
| धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य के मस्तक का उच्छेद
नारायणास्त्र-मोक्षपर्व
| कौरव सैनिकों तथा सेनापतियों का भागना
| कृपाचार्य का अश्वत्थामा को द्रोणवध का वृत्तान्त सुनाना
| धृतराष्ट्र का प्रश्न
| अश्वत्थामा के क्रोधपूर्ण उद्गार
| अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्राकट्य
| कौरव सेना का सिंहनाद सुनकर युधिष्ठिर का अर्जुन से कारण पूछना
| अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा के क्रोध एवं गुरुहत्या के भीषण परिणाम का वर्णन
| भीमसेन के वीरोचित उद्गार
| धृष्टद्युम्न के द्वारा अपने कृत्य का समर्थन
| सात्यकि और धृष्टद्युम्न का परस्पर क्रोधपूर्ण वाग्बाणों से लड़ना
| भीम, सहदेव तथा युधिष्ठिर द्वारा सात्यकि और धृष्टद्युम्न को लड़ने से रोकना
| अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्रयोग
| नारायणास्त्र के प्रयोग से युधिष्ठिर का खेद
| श्रीकृष्ण के बताये हुए उपाय से सैनिकों की रक्षा
| भीम का वीरोचित उद्गार और उन पर नारायणास्त्र का प्रबल आक्रमण
| श्रीकृष्ण का भीम को रथ से उतारकर नारायणास्त्र को शान्त करना
| अश्वत्थामा का पुन: नारायणास्त्र के प्रयोग में असमर्थता बताना
| अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न की पराजय
| सात्यकि का दुर्योधन, कृपाचार्य, कृतवर्मा, कर्ण और वृषसेन को भगाना
| सात्यकि का अश्वत्थामा से घोर युद्ध
| अश्वत्थामा द्वारा मालव, पौरव और चेदिदेश के युवराज का वध
| भीम और अश्वत्थामा का घोर युद्ध
| अश्वत्थामा के आग्नेयास्त्र से एक अक्षौहिणी पांडव सेना का संहार
| श्रीकृष्ण और अर्जुन पर आग्नेयास्त्र का प्रभाव न होने से अश्वत्थामा की चिन्ता
| व्यास का अश्वत्थामा को शिव और श्रीकृष्ण की महिमा बताना
| व्यास का अर्जुन से शिव की महिमा बताना
| द्रोण पर्व के पाठ और श्रवण का फल
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