अभिमन्यु द्वारा कौरवों की चतुरंगिणी सेना का संहार

संजय कहते हैं- महाराज! अभिमन्यु युधिष्ठिर से व्यूह भेदने की प्रतिज्ञा कर व्यूह के निकट पहुँचता है तब उसे रोकने आये द्रोणाचार्ण से युद्ध करके वह व्यूह को भेदते हुए उसमें प्रवेश कर जाता है। अभिमन्यु व्यूह में उपस्थित बहुत से योद्धाओं व पैदल सैनिकों का संहार कर कौरव सेना को रौंदना प्रारम्भ करता है, जिसका वर्णन महाभारत द्रोण पर्व मेंं अभिमन्युवध पर्व के अंतर्गत 36वें अध्याय मेंं दिया है, जो इस प्रकार है[1]-

अभिमन्यु और सारथि सुमित्र का संवाद

संजय कहते हैं– भारत! बुद्धिमान युधिष्ठिर का पूर्वोक्‍त वचन सुनकर सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु ने अपने सारथि को द्रोणाचार्य की सेना की ओर चलने का आदेश दिया। राजन! 'चलो, चलो' ऐसा कहकर अभिमन्‍यु के बारंबार प्रेरित करने पर सारथि ने उससे इस प्रकार कहा- 'आयुष्‍मान! पाण्‍डवों ने आपके ऊपर यह बहुत बड़ा भार रख दिया है। पहले आप क्षण भर रुक कर बुद्धिपूर्वक अपने कर्तव्‍य का निश्चय कर लीजिये। उसके बाद युद्ध कीजिये। द्रोणाचार्य अस्त्रविद्या के विद्वान हैं और उत्‍तम अस्त्रों के अभ्‍यास के लिये उन्‍होंने विशेष परिश्रम किया है। इधर आप अत्‍यन्‍त सुख एवं लाड़-प्‍यार में पले हैं। युद्ध की कला में आप उनके जैसे विज्ञ नहीं हैं।' तब अभिमन्‍यु ने हँसते-हँसते सारथि से इस प्रकार कहा- 'सारथे! इन द्रोणाचार्य अथवा सम्‍पूर्ण क्षत्रियमण्‍डल की तो बात ही क्‍या, मैं तो ऐरावत पर चढ़े हुए सम्‍पूर्ण देवगणों सहित इन्‍द्र के अथवा समस्‍त प्राणियों द्वारा पूजित एवं सबके ईश्‍वर रुद्रदेव के साथ भी सामने खड़ा होकर युद्ध कर सकता हूँ। अत: इस समय इस क्षत्रियसमूह के साथ युद्ध करने में मुझे आज कोई आश्चर्य नहीं हो रहा है। शत्रुओं की यह सारी सेना मेरी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। सूतनन्‍दन! विश्वविजयी विष्‍णुस्‍वरूप मामा श्रीकृष्‍ण को तथा पिता अर्जुन को भी युद्ध में विपक्षी के रूप में सामने पाकर मुझे भय नहीं होगा।' अभिमन्‍यु ने सारथि के पूर्वोक्‍त कथन की अवहेलना करके उससे यही कहा- 'तुम शीघ्र द्रोणाचार्य की सेना की ओर चलो।' तब सारथि ने सुवर्णमय आभूषणों से भूषित तथा तीन वर्ष की अवस्‍था वाले घोड़ों को शीघ्र आगे बढ़ाया। उस समय उसका मन अधिक प्रसन्‍न नहीं था।[1]

अभिमन्यु द्वारा व्यूह में प्रवेश

राजन! सारथि सुमित्र द्वारा द्रोणाचार्य की सेना की ओर हाँके हुए वे घोड़े महान वेगशाली और पराक्रमी द्रोण की और दौड़े। अभिमन्‍यु को इस प्रकार आते देख द्रोणाचार्य आदि कौरव-वीर उनके सामने आकर खड़े हो गये और पांडव-योद्धा उनका अनुसरण करने लगे। अभिमन्‍यु के ऊँचे एवं श्रेष्‍ठ ध्वज पर कर्णिकार का चिह्न बना हुआ था। उसने सुवर्ण का कवच धारण कर रखा था। वह अर्जुनकुमार अपने पिता अर्जुन से भी श्रेष्‍ठ वीर था। जैसे सिंह का बच्‍चा हाथियों पर आक्रमण करता है, उसी प्रकार अभिमन्‍यु ने युद्ध की इच्‍छा से द्रोण आदि महारथियों पर धावा किया। अभिमन्‍यु बीस पग ही आगे बढ़े थे कि सामना करने के लिये उद्यत हुए द्रोणाचार्य आदि योद्धा उन पर प्रहार करने लगे। उस समय उस सैन्‍यसागर में अभिमन्‍यु के प्रवेश करने से दो घड़ी तक सेना की वही दशा रही, जैसी कि समुद्र में गंगा की भँवरों से युक्‍त जलराशि के मिलने से होती है। राजन! युद्ध में तत्‍पर हो एक-दूसरे पर घातक प्रहार करते हुए उन शूरवीरों में अत्‍यन्‍त दारुण एवं भयंकर संघर्ष होने लगा। वह अति भयंकर संग्राम चल ही रहा था कि द्रोणाचार्य के देखते-देखते अर्जुनकुमार अभिमन्‍यु व्‍यूह तोड़कर भीतर घुस गया। अभिमन्‍यु का पराक्रम अचिन्‍त्‍य था। उसने बिना किसी घबराहट के द्रोणाचार्य के अत्‍यन्‍त दुर्जय एवं दुर्धर्ष सैन्‍य-व्यूह को भंग करके उसके भीतर प्रवेश किया।[1]

अभिमन्यु द्वारा कौरवों की चतुरंगिणी सेना का संहार

व्‍यूह के भीतर घुसकर शत्रुसमूहों का विनाश करते हुए महाबली अभिमन्‍यु को हाथों में अस्‍त्र–शस्‍त्र लिये गजारोही, अश्वारोही, रथी और पैदल योद्धाओं के भिन्‍न-भिन्‍न दलों ने चारों ओर से घेर लिया। नाना प्रकार के वाद्यों की ध्‍वनि, कोलाहल, ललकार, गर्जना, हुंकार, सिंहनाद, 'ठहरो, ठहरो' की आवाज और घोर हलहला शब्‍द के साथ 'न जाओ, खड़े रहो, मेरे पास आओ, तुम्‍हारा शत्रु मैं तो यहाँ हूँ' इत्‍या‍दि बातें बारंबार कहते हुए वीर सैनिक हाथियों के चिग्‍घाड़, घुँघुरुओं की झुनझुन, अट्टहास, हाथों की ताली के शब्‍द तथा पहियों की घर्घराहट से सारी वसुधा को गुँजाते हुए अर्जुनकुमार पर टूट पड़े। राजन! महाबली वीर अभिमन्‍यु शीघ्रतापूर्वक युद्ध करने में कुशल, जल्‍दी-जल्‍दी अस्त्र चलाने वाला और शत्रुओं के मर्मस्‍थानों को जानने वाला था। वह अपनी ओर आते हुए शत्रु-सैनिकों का मर्मभेदी बाणों द्वारा वध करने लगा। नाना प्रकार के चिह्नों से सुशोभित पैने बाणों की मार खाकर वे बहुसंख्‍यक कौरव-वीर विवश हो धरती पर गिर पड़े, मानो ढेर-के-ढेर फतिंगे जलती आम में पड़ गये हों। जैसे यज्ञ में वेदी के ऊपर कुश बिछाये जाते हैं, उसी प्रकार अभिमन्‍यु ने तुंरत ही शत्रुओं के शरीरों तथा विभिन्‍न अवयवों के द्वारा सारी रणभूमि को पाट दिया।[1] महाराज! अर्जुनकुमार अभिमन्‍यु ने आपके सहस्‍त्रों सैनिकों की उन भुजाओं को तुरंत काट डाला, जिनमें मनोहर सुगन्‍धयुक्‍त चन्दन का लेप लगा हुआ था। वीरों की उन भुजाओं में गोह के चमड़े से बने हुए दस्‍ताने बँधे हुए थे। धनुष और बाण शोभा पाते थे। किन्‍हीं भुजाओं में ढाल, तलवार, अंकुश और बागडोर दिखायी देती थीं। किन्‍हीं में तोमर और फरसे शोभा पाते थे। किन्हीं में गदा, लोहे की गोलियाँ, प्रास, ऋष्टि, तोमर, पट्टिश, भिन्दिपाल, परिघ, श्रेष्‍ठ शक्ति, कम्‍पन, प्रतोद, महाशंख और कुन्‍त दृष्टिगोचर हो रहे थे। किन्‍हीं-किन्हीं भुजाओं ने शत्रुओं की चोटियाँ पकड़ रखी थीं। किन्हीं में मुद्गर फेंकने योग्‍य अन्‍यान्‍य अस्त्र, पाश, परिघ तथा प्रस्‍तरखण्ड दिखायी देते थे। वीरों की वे सभी भुजाएँ केयूर और अंगद आदि आभूषणों से विभूषित थीं।[2]

आदरणीय महाराज! खून से लथपथ होकर तड़पती हुई उन भुजाओं से इस पृथ्वी की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे गरुड़ के द्वारा छिन्‍न-भिन्‍न किये हुए पाँच मुख वाले सर्पों के शरीरों से आच्‍छादित हुई वसुधा सुशोभित होती है। जिनमें सुन्‍दर नासिका, सुन्‍दर मुख और सुन्‍दर केशान्‍त भाग की अद्भुत शोभा हो रही थी, जिनमें फोड़े-फुंसी या घाव के चिह्न नहीं थे, जो मनोहर कुण्‍डलों से प्रकाशित हो रहे थे, जिनके ओष्‍ठपुट क्रोध के कारण दाँतों तले दबे हुए थे, जो अधिकाधिक रक्‍त की धारा बहा रहे थे, जिनके ऊपर मनोहर मुकुट और पगड़ी की शोभा होती थी जो मणिरत्‍नमय आभूषणों से विभूषित थे, जिनकी प्रभा सूर्य और चन्द्रमा के समान जान पड़ती थी, जो बिना नाल के प्रफुल्‍ल कमल के समान प्रतीत होते थे, जो समय-समय पर हित एवं प्रिय की बातें बताते थे, जिनकी संख्‍या बहुत अधिक थी तथा जो पवित्र सुगन्‍ध से सुवासित थे, शत्रुओं के उन मस्‍तकों द्वारा अभिमन्‍यु ने वहाँ की सारी पृथ्वी को पाट दिया। इसी प्रकार अभिमन्‍यु अपने बाणों से शत्रुओं के गन्‍धर्वनगर के समान विशाल तथा विधिपूर्वक सुसज्जित बहुसंख्‍यक रथों के टुकड़े-टुकड़े करता हुआ सम्‍पूर्ण दिशाओं में दृष्टिगोचर हो रहा था। उन रथों के प्रधान ईषादण्ड नष्‍ट हो गये थे। त्रिवेणु चूर-चूर हो गये थे। स्तम्भदण्ड उखड़ गये थे। उनके बन्‍धन टूट गये थे। जंघा (नीचे का स्‍थान) और कूबर (जूए का आधारभूत काष्‍ठ) टूट-फूट गये थे। पहियों के ऊपरी भाग और अरे चौपट कर दिये गये थे। पहिये, रथ की सजावट के समान और बैठकें नष्‍ट-भ्रष्‍ट हो गयी थीं। सारी सामग्री तथा रथ के अवयव चूर-चूर हो गये थे। रथ की छतरी और आवरण को गिरा दिया गया था तथा उन रथों के समस्‍त योद्धा मार डाले गये थे।

इस तरह सहस्‍त्रों रथों की धज्जियाँ उड़ गयी थीं। रथों का संहार करके अभिमन्‍यु ने पुन: तीखी धार वाले बाणों द्वारा शत्रुओं के हाथियों, गजारोहियों, उनके झंडों, अंकुशों, ध्वजाओं, तूणीरों, कवचों, रस्‍सों, कण्ठाभूषणों, झूलों, घंटों, सूँड़ों, दाँतों, छत्रों, मालाओं और पादरक्षकों को भी काट डाला। राजन! आपके वनायुज, पर्वतीय, काम्बोज तथा बाह्लिक देशीय श्रेष्‍ठ घोड़ों को, जो पूँछ, कान और नेत्रों को निश्चल करके दौड़ने वाले, वेगवान और अच्‍छी तरह सवारी का काम देने वाले थे तथा ‍जिनके ऊपर शक्ति, ऋष्टि एवं प्रास द्वारा युद्ध करने वाले सुशिक्षित योद्धा सवार थे, धराशायी करता हुआ अकेला वीर अभिमन्‍यु एकमात्र भगवान विष्‍णु की भाँति अचिन्‍त्‍य एवं दुष्‍कर कर्म करके बड़ी शोभा पा रहा था। उन घोड़ों के मस्‍तक और गर्दन के चँवर के समान बड़े-बड़े बाल और मुख बाणों के आघात से नष्‍ट हो गये थे। वे सब-के-सब घायल हो गये थे। कितने ही अश्वों के सिर छिन्‍न-भिन्‍न होकर बिखर गये थे। कितनों की जिह्वा और नेत्र बाहर निकल आये थे। आँत और जिगर के टुकड़े-टुकड़े हो गये थे। उन सबके सवार मार डाले गये थे। उनके गले के घुँघुरू कटकर गिर गये थे। वे घोड़ें मृत्यु के अधीन होकर मांसभक्षी प्राणियों का हर्ष बढ़ा रहे थे। उनके चमड़े और कवच टूक-टूक हो गये थे और वे मल-मूत्र तथा रक्‍त में डूबे हुए थे।

जैसे महान तेजस्‍वी त्रिनेत्रधारी भगवान रुद्र ने असुरों की सेना को मथ डाला था, उसी प्रकार अभिमन्‍यु ने रथ, हाथी और घोड़े–इन तीन अंगों से युक्‍त आपकी विशाल सेना को रौंद डाला। इस प्रकार अर्जुनकुमार अभिमन्‍यु ने रणक्षेत्र में शत्रुओं के लिये असह्य पराक्रम करके आपके पैदल योद्धाओं के समूहों का सभी प्रकार से विनाश करना आरम्‍भ किया। जैसे कार्तिकेय ने असुरों की सेना को नष्‍ट-भ्रष्‍ट कर दिया था, उसी प्रकार एकमात्र सुभद्राकुमार अभिमन्‍यु ने अपने तीखे बाणों द्वारा समस्‍त कौरव सेना को अत्‍यन्‍त छिन्‍न-भिन्‍न कर डाला है; यह देखकर आपके पुत्र और सैनिक भयभीत हो दसों दिशाओं की ओर देखने लगे। उनके मुख सूख गये थे, नेत्र चंचल हो उठे थे, सारे अंगों में पसीना हो आया था और उनके रोंगटे खड़े हो गये थे। अब वे भागने में उत्‍साह दिखाने लगे। शत्रुओं को जीतने के लिये उनके मन में तनिक भी उत्‍साह नहीं रह गया था। वे जीवन की इच्‍छा रखकर अपने-अपने सगे-सम्‍बन्धियों के गोत्र और नाम का उच्‍चारण करके एक-दूसरे के लिये क्रन्‍दन कर रहे थे। उस समय आपके सैनिक इतने डर गये थे कि वहाँ मारे गये अपने पुत्रों, पितृ-तुल्‍य सम्‍बन्धियों, भाई-बन्‍धुओं तथा नातेदारों को भी छोड़कर अपने घोड़ों और हाथियों की उतावली के साथ हाँकते हुए रणभूमि से पलायन कर गये।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-22
  2. 2.0 2.1 महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 36 श्लोक 23-46

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युधिष्ठिर का संवाद | सात्यकि की अर्जुन के पास जाने की तैयारी और उनका प्रस्थान | सात्यकि का भीम को युधिष्ठिर की रक्षा हेतु लौटाना | सात्यकि का पराक्रम | सात्यकि का द्रोणाचार्य से युद्ध | सात्यकि का कृतवर्मा से युद्ध | धृतराष्ट्र का संजय से विषादयुक्त वचन | संजय का धृतराष्ट्र को दोषी बताना | कृतवर्मा का भीमसेन से युद्ध | कृतवर्मा का शिखण्डी से युद्ध | सात्यकि द्वारा कृतवर्मा की पराजय | सात्यकि द्वारा त्रिगर्तों की गजसेना का संहार | सात्यकि द्वारा जलसंध का वध | सात्यकि का पराक्रम तथा दुर्योधन और कृतवर्मा की पुन: पराजय | सात्यकि और द्रोणाचार्य का घोर युद्ध | सात्यकि द्वारा द्रोण की पराजय और कौरव सेना का पलायन | सात्यकि द्वारा सुदर्शन का वध | सात्यकि और उनके सारथि का संवाद | सात्यकि द्वारा काम्बोजों और यवन आदि सेना की पराजय | सात्यकि द्वारा दुर्योधन की सेना का संहार | दुर्योधन का भाइयों सहित पलायन | सात्यकि द्वारा पाषाणयोधी म्लेच्छों की सेना का संहार | दु:शासन का सेना सहित पलायन | द्रोणाचार्य का दु:शासन को फटकारना | द्रोणाचार्य द्वारा वीरकेतु आदि पांचालों का वध | द्रोणाचार्य का धृष्टद्युम्न से घोर युद्ध तथा उनका मूर्च्छित होना | धृष्टद्युम्न का पलायन और द्रोणाचार्य की विजय | सात्यकि का घोर युद्ध और दु:शासन की पराजय | कौरव-पांडव सेना का घोर युद्ध | पांडवों के साथ दुर्योधन का संग्राम | द्रोणाचार्य द्वारा बृहत्क्षत्र का वध | द्रोणाचार्य द्वारा धृष्टकेतु का वध | द्रोणाचार्य द्वारा जरासन्धपुत्र सहदेव तथा क्षत्रधर्मा का वध | द्रोणाचार्य द्वारा चेकितान की पराजय | अर्जुन और सात्यकि के प्रति युधिष्ठिर की चिन्ता | युधिष्ठिर का भीमसेन को अर्जुन और सात्यकि का पता लगाने के लिए भेजना | भीमसेन का कौरव सेना में प्रवेश | भीमसेन द्वारा द्रोणाचार्य के सारथि सहित रथ को चूर्ण करना | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के ग्यारह पुत्रों का वध | भीमसेन का द्रोणाचार्य के रथ को आठ बार फेंकना | भीमसेन की गर्जना सुनकर युधिष्ठिर का प्रसन्न होना | भीमसेन और कर्ण का युद्ध तथा कर्ण की पराजय | दुर्योधन का द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को द्यूत का परिणाम दिखाकर युद्ध हेतु वापस भेजना | युधामन्यु तथा उत्तमौजा का दुर्योधन के साथ युद्ध | भीमसेन द्वारा कर्ण की पराजय | भीमसेन और कर्ण का घोर युद्ध | भीमसेन द्वारा कर्ण के सारथि सहित रथ का विनाश | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्जय का वध | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्मुख का वध | कर्ण-भीमसेन युद्ध में कर्ण का पलायन | धृतराष्ट्र का खेदपूर्वक भीमसेन के बल का वर्णन और अपने पुत्रों की निन्दा | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के पाँच पुत्रों का वध | भीमसेन और कर्ण का युद्ध तथा कर्ण का पलायन | भीमसेन का पराक्रम तथा धृतराष्ट्र के सात पुत्रों का वध | भीमसेन का कर्ण से युद्ध तथा दुर्योधन के सात भाइयों का वध | भीमसेन और कर्ण का भयंकर युद्ध | पहले भीम की और पीछे कर्ण की विजय | अर्जुन के बाणों से व्यथित होकर कर्ण और अश्वत्थामा का पलायन | सात्यकि द्वारा अलम्बुष का और दु:शासन के घोड़ों का वध | सात्यकि का अद्भुत पराक्रम | श्रीकृष्ण का अर्जुन को सात्यकि के आगमन की सूचना देना | सात्यकि के आगमन से अर्जुन की चिन्ता | भूरिश्रवा और सात्यकि का रोषपूर्ण सम्भाषण और युद्ध | अर्जुन द्वारा भूरिश्रवा की भुजा का उच्छेद | भूरिश्रवा का अर्जुन को उपालम्भ देना और अर्जुन का उत्तर | भूरिश्रवा का आमरण अनशन | सात्यकि द्वारा भूरिश्रवा का वध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के अपमानित होने का कारण | वृष्णिवंशी वीरों की प्रशंसा | अर्जुन का जयद्रथ पर आक्रमण तथा दुर्योधन और कर्ण का वार्तालाप | अर्जुन का कौरव योद्धाओं के साथ युद्ध | कर्ण और अर्जुन का युद्ध तथा कर्ण की पराजय | अर्जुन का अद्भुत पराक्रम | अर्जुन द्वारा सिन्धुराज जयद्रथ का वध | अर्जुन के बाणों से कृपाचार्य का मूर्छित होना तथा अर्जुन का खेद | कर्ण और सात्यकि का युद्ध एवं कर्ण की पराजय | अर्जुन का कर्ण को फटकारना और वृषसेन वध की प्रतिज्ञा | श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर बधाई देना | श्रीकृष्ण का अर्जुन को रणभूमि का दृश्य दिखाते हुए युधिष्ठिर के पास जाना | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को अर्जुन की विजय का समाचार सुनाना | युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन, भीम एवं सात्यकि का अभिनन्दन | दुर्योधन का व्याकुल होकर द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को उत्तर और युद्ध के लिए प्रस्थान | दुर्योधन और कर्ण की बातचीत तथा पुन: युद्ध का आरम्भ
घटोत्कचवध पर्व
कौरव-पांडव सेना का युद्ध | दुर्योधन और युधिष्ठिर का संग्राम तथा दुर्योधन की पराजय | रात्रियुद्ध में पांडव सैनिकों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण | द्रोणाचार्य द्वारा शिबि का वध | भीमसेन द्वारा ध्रुव, जयरात एवं कलिंग राजकुमार का वध | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुष्कर्ण और दुर्मद का वध | सोमदत्त और सात्यकि का युद्ध तथा सोमदत्त की पराजय | द्रोणाचार्य का पांडवों से घोर संग्राम | घटोत्कच और अश्वत्थामा का युद्ध तथा अंजनपर्वा का वध | अश्वत्थामा द्वारा एक अक्षौहिणी राक्षस सेना का संहार | अश्वत्थामा का अद्भुत पराक्रम तथा द्रुपदपुत्रों का वध | सोमदत्त की मूर्छा तथा भीमसेन द्वारा बाह्लीक का वध | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के दस पुत्रों और शकुनि के पाँच भाइयों का वध | द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर के युद्ध में युधिष्ठिर की विजय | दुर्योधन और कर्ण की बातचीत | कृपाचार्य द्वारा कर्ण को फटकारना | कर्ण द्वारा कृपाचार्य का अपमान | अश्वत्थामा का कर्ण को मारने के लिये उद्यत होना | पांडवों और पांचालों का कर्ण पर आक्रमण तथा कर्ण का पराक्रम | अर्जुन द्वारा कर्ण की पराजय | दुर्योधन का अश्वत्थामा से पांचालों के वध का अनुरोध | अश्वत्थामा का दुर्योधन को उपालम्भपूर्ण आश्वासन तथा पांचालों से युद्ध | अश्वत्थामा का धृष्टद्युम्न से युद्ध तथा उसका अद्भुत पराक्रम | भीमसेन और अर्जुन का आक्रमण तथा कौरव सेना का पलायन | सात्यकि द्वारा सोमदत्त का वध | द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का युद्ध | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य से दूर रहने का आदेश | कौरवों और पांडवों की सेनाओं में प्रदीपों का प्रकाश | कौरवों और पांडवों की सेनाओं का घमासान युद्ध | दुर्योधन का द्रोणाचार्य की रक्षा हेतु सैनिकों को आदेश | कृतवर्मा द्वारा युधिष्ठिर की पराजय | सात्यकि द्वारा भूरि का वध | घटोत्कच और अश्वत्थामा का घोर युद्ध | भीम और दुर्योधन का युद्ध तथा दुर्योधन का पलायन | कर्ण द्वारा सहदेव की पराजय | शल्य द्वारा विराट के भाई शतानीक का वध और विराट की पराजय | अर्जुन से पराजित होकर अलम्बुष का पलायन | शतानीक के द्वारा चित्रसेन की पराजय | वृषसेन के द्वारा द्रुपद की पराजय | प्रतिबिन्ध्य एवं दु:शासन का युद्ध | नकुल के द्वारा शकुनि की पराजय | शिखण्डी और कृपाचार्य का घोर युद्ध | धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य से युद्ध | धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुमसेन का वध | सात्यकि और कर्ण का युद्ध | कर्ण की दुर्योधन को सलाह | शकुनि का पांडव सेना पर आक्रमण | सात्यकि से दुर्योधन की पराजय | अर्जुन से शकुनि और उलूक की पराजय | धृष्टद्युम्न से कौरव सेना की पराजय | दुर्योधन के उपालम्भ से द्रोणाचार्य और कर्ण का घोर युद्ध | अर्जुन सहित भीमसेन का कौरवों पर आक्रमण | कर्ण द्वारा धृष्टद्युम्न एवं पांचालों की पराजय | कर्ण के पराक्रम से युधिष्ठिर की घबराहट | श्रीकृष्ण और अर्जुन का घटोत्कच को कर्ण के साथ युद्ध हेतु भेजना | घटोत्कच और जटासुरपुत्र अलम्बुष का घोर युद्ध | घटोत्कच द्वारा जटासुरपुत्र अलम्बुष का वध | घटोत्कच और उसके रथ आदि के स्वरूप का वर्णन | कर्ण और घटोत्कच का घोर संग्राम | अलायुध के स्वरूप और रथ आदि का वर्णन | भीमसेन और अलायुध का घोर युद्ध | घटोत्कच द्वारा अलायुध का वध और दुर्योधन का पश्चाताप | कर्ण द्वारा इन्द्रप्रदत्त शक्ति से घटोत्कच का वध | घटोत्कच वध से पांडवों का शोक तथा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता | श्रीकृष्ण का अर्जुन को जरासंध आदि के वध करने का कारण बताना | कर्ण द्वारा अर्जुन पर शक्ति न छोड़ने के रहस्य का वर्णन | धृतराष्ट्र का पश्चाताप और संजय का उत्तर | युधिष्ठिर का शोक और श्रीकृष्ण तथा व्यास द्वारा उसका निवारण
द्रोणवध पर्व
| अर्जुन के कहने से उभयपक्ष के सैनिकों का सो जाना | उभयपक्ष के सैनिकों का चन्द्रोदय के बाद पुन: युद्ध में लग जाना | दुर्योधन का उपालम्भ और द्रोणाचार्य का व्यंग्यपूर्ण उत्तर | पांडव वीरों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण | द्रुपद के पौत्रों तथा द्रुपद और विराट आदि का वध | धृष्टद्युम्न की प्रतिज्ञा और दोनों दलों में घमासान युद्ध | युद्धस्थल की भीषण अवस्था का वर्णन | नकुल के द्वारा दुर्योधन की पराजय | दु:शासन और सहदेव का घोर युद्ध | कर्ण और भीमसेन का घोर युद्ध | द्रोणाचार्य और अर्जुन का घोर युद्ध | धृष्टद्युम्न का दु:शासन को हराकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण | दुर्योधन और सात्यकि का संवाद तथा युद्ध | कर्ण और भीमसेन का संग्राम तथा अर्जुन का कौरवों पर आक्रमण | द्रोणाचार्य का घोर कर्म | ऋषियों का द्रोण को अस्त्र त्यागने का आदेश | अश्वत्थामा की मृत्यु सुनकर द्रोण की जीवन से निराशा | द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न का घोर युद्ध | सात्यकि की शूरवीरता और प्रशंसा | उभयपक्ष के श्रेष्ठ महारथियों का परस्पर युद्ध | धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य पर आक्रमण और घोर युद्ध | द्रोणाचार्य का अस्त्र त्यागकर योगधारणा द्वारा ब्रह्मलोक गमन | धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य के मस्तक का उच्छेद
नारायणास्त्र-मोक्षपर्व
| कौरव सैनिकों तथा सेनापतियों का भागना | कृपाचार्य का अश्वत्थामा को द्रोणवध का वृत्तान्त सुनाना | धृतराष्ट्र का प्रश्न | अश्वत्थामा के क्रोधपूर्ण उद्गार | अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्राकट्य | कौरव सेना का सिंहनाद सुनकर युधिष्ठिर का अर्जुन से कारण पूछना | अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा के क्रोध एवं गुरुहत्या के भीषण परिणाम का वर्णन | भीमसेन के वीरोचित उद्गार | धृष्टद्युम्न के द्वारा अपने कृत्य का समर्थन | सात्यकि और धृष्टद्युम्न का परस्पर क्रोधपूर्ण वाग्बाणों से लड़ना | भीम, सहदेव तथा युधिष्ठिर द्वारा सात्यकि और धृष्टद्युम्न को लड़ने से रोकना | अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्रयोग | नारायणास्त्र के प्रयोग से युधिष्ठिर का खेद | श्रीकृष्ण के बताये हुए उपाय से सैनिकों की रक्षा | भीम का वीरोचित उद्गार और उन पर नारायणास्त्र का प्रबल आक्रमण | श्रीकृष्ण का भीम को रथ से उतारकर नारायणास्त्र को शान्त करना | अश्वत्थामा का पुन: नारायणास्त्र के प्रयोग में असमर्थता बताना | अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न की पराजय | सात्यकि का दुर्योधन, कृपाचार्य, कृतवर्मा, कर्ण और वृषसेन को भगाना | सात्यकि का अश्वत्थामा से घोर युद्ध | अश्वत्थामा द्वारा मालव, पौरव और चेदिदेश के युवराज का वध | भीम और अश्वत्थामा का घोर युद्ध | अश्वत्थामा के आग्नेयास्त्र से एक अक्षौहिणी पांडव सेना का संहार | श्रीकृष्ण और अर्जुन पर आग्नेयास्त्र का प्रभाव न होने से अश्वत्थामा की चिन्ता | व्यास का अश्वत्थामा को शिव और श्रीकृष्ण की महिमा बताना | व्यास का अर्जुन से शिव की महिमा बताना | द्रोण पर्व के पाठ और श्रवण का फल

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