कर्ण और घटोत्कच का घोर संग्राम

महाभारत द्रोण पर्व मेंं घटोत्कचवध पर्व के अंतर्गत 175वें अध्याय मेंं कर्ण और घटोत्कच के घोर संग्राम का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

घटोत्कच और कर्ण का घोर संग्राम

संजय कहते हैं- राजन! घटोत्कच रथ पर आरूढ़ हो कर्ण की ओर चला। उस समय रथ पर स्थिरतापूर्वक खड़े हो जब वह अपने धनुष को खींच रहा था, उस समय उसकी टंकार वज्र की गड़गड़ाहट के समान सुनायी देती थी। भारत! उस घोर शब्द से डरायी हुई आपकी सारी सेनाएँ समुद्र की बड़ी-बड़ी लहरो के समान काँपने लगीं। विकराल नेत्रों वाले उस भयानक राक्षस को आते देख राधा पुत्र कर्ण ने मुसकराते हुए से शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़कर उसे रोका। जैसे एक यूथपति गजराज का सामना करने के लिये दूसरे यूथ का अधिपति गजराज चढ़ आता है, उसी प्रकार बाणों की वर्षा करते हुए घटोत्कच पर बाणों की बौछार करते हुए कर्ण ने उसके ऊपर निकट से आक्रमण किया। प्रजानाथ! राजन! पूर्वकाल में जैसे इन्द्र और शम्बरासुर में युद्ध हुआ था, उसी प्रकार कर्ण और राक्षस का वह संग्राम बड़ा भयंकर हुआ। वे दोनों भयंकर टंकार करने वाले अत्यन्त वेगशाली धनुष लेकर बड़े-बड़े बाणों द्वारा एक दूसरे को क्षत-विक्षत करते हुए आच्छादित करने लगे। तदनन्तर वे दोनों वीर धनुष को पूर्णतः खींचकर छोड़े गये झुकी हुई गाँठवाले बाणों द्वारा परस्पर कांस्य निर्मित कवचों को छिन्न-भिन्न करके एक दूसरे को रोकने लगे। जैसे दो सिंह नखों से और दो महान गजराज दाँतों से परस्पर प्रहार करते हैं, उसी प्रकार वे दोनों योद्धा रथ शक्तियों और बाणों द्वारा एक दूसरे को घायल करने लगे।

वे सायकों का संधान करके एक दूसरे के अंगों को छेदते और बाणमयी उल्काओं से दग्ध करते थे। उससे उन दोनों की ओर देखना अत्यन्त कठिन हो रहा था। उन दोनों के सारे अंग घावों से भर गये थे और दोनों ही खून से लथपथ हो गये थे। उस समय वे जल का स्त्रोत बहाते हुए गेरू के दो पर्वतों के समान शोभा पा रहे थे। दोनों के अंग बाणों के अग्रभाग से छिदकर छलनी हो रहे थे। दोनों ही एक दूसरे को विदीर्ण कर रहे थे, तो भी वे महातेजस्वी वीर परस्पर विजय के प्रयत्न में लगे रहे और एक दूसरे को कम्पित न कर सके। राजन! युद्ध के जूए में प्राणों की बाजी लगाकर खेलते हुए कर्ण और राक्षस का वह रात्रि युद्ध दीर्घकाल तक समान रूप में ही चलता रहा। घटोत्कच तीखे बाणों का संहार करके उन्हें इस प्रकार छोड़ता कि वे एक दूसरे से सटे हुए निकलते थे। उसके धनुष की टंकार से अपने और शत्रुपक्ष के योद्धा भी भय से थर्रा उठते थे।

घटोत्कच का भयंकर पराक्रम

नरेश्वर! जब कर्ण घटोत्कच से बढ़ न सका, तब उस अस्त्र वेत्ताओं में श्रेष्ठ वीर ने दिव्यास्त्र प्रकट किया। कर्ण को दिव्यास्त्र का संधान करते देख पाण्डव नन्दन घटोत्कच ने अपनी राक्षसी महामाया प्रकट की।[1] वह तत्काल ही शूल, मुद्गर, शिलाखण्ड और वृक्ष हाथ में लिये हुए घोररूप धारी राक्षसों की विशाल सेना से घिर गया। भयानक कालदण्ड धारण किये, समस्त, भूतों के प्राणहन्ता यमराज के समान उसे विशाल धनुष उठाये आते देख वहाँ उपस्थित हुए वे सभी नरेश व्यथित हो उठे। घटोत्कच के सिंहनाद से भयभीत हो हाथियों के पेशाब झरने लगे और मनुष्य भी अत्यन्त व्यथित हो गये। तदनन्तर चारों ओर से पत्थरों की अत्यन्त भयंकर एवं भारी वर्षा होने लगी। आधी रात के समय अधिक बलशाली हुए राक्षसों के समुदाय वह प्रस्तर-वर्षा कर रहे थे। लोहे के चक्र, भुशुण्डी, शक्ति, तोमर, शूल, शतघ्नी और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रों की अबिरल धाराएँ गिर रही थीं। नरेश्वर! उस अत्यन्त भयंकर और उग्र संग्राम को देखकर आपके पुत्र और योद्धा भयभीत होकर भाग चले। अपने अस्त्रबल की प्रशंसा करने वाला एकमात्र अभिमानी कर्ण ही वहाँ खड़ा रहा।[2]

कर्ण द्वारा घटोत्कच को विदीर्ण करना

उसके मन में तनिक भी व्यथा नहीं हुई। उसने अपने बाणों से घटोत्कच द्वारा निर्मित माया को नष्ट कर दिया। उस माया के नष्ट हो जाने पर घटोत्कच ने अमर्ष में भरकर भयंकर बाण छोड़े, जो सूतपुत्र के शरीर में समा गये। तदनन्तर वे रुधिर से रँगे हुए बाण उस महासमर में कर्ण को छेदकर कुपित हुए सर्पों के समान धरती में समा गये। इससे शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाला प्रतापी वीर सूत पुत्र कर्ण अत्यन्त कुपित हो उठा। उसने घटोत्कच का उल्लंघन करके उसे दस बाणों से घायल कर दिया। सूतपुत्र के द्वारा मर्मस्थानों में विदीर्ण होकर अत्यन्त व्यथित हुए घटोत्कच ने दिव्य सहस्रार चक्र हाथ में लिया। उस चक्र के किनारे-किनारे छुरे लगे हुए थे। मणि एवं रत्नों से विभूषित हुआ वह चक्र प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रतीत होता था। क्रोध में भरे हुए भीमसेन कुमार घटोत्कच ने अधिरथ पुत्र कर्ण को मार डालने की इच्छा से उस चक्र को चला दिया। परंतु अत्यन्त वेग से फेंका गया वह घूमता हुआ चक्र कर्ण के बाणों द्वारा आहत हो भाग्यहीन के संकल्प की भाँति व्यर्थ होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। चक्र को गिराया हुआ देखक्रोध में भरे हुए घटोत्कच ने अपने बाणों द्वारा कर्ण को उसी प्रकार आच्छादित कर दिया, जैसे राहु सूर्य को ढक देता है। परंतु रुद्र, विष्णु और इन्द्र के समान पराक्रमी सूत पुत्र कर्ण को इससे तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उसने तुरंत ही पंखदार बाणों से घटोत्कच के रथ को आच्छादित कर दिया। तब कुपित हुए घटोत्कच ने सोने के कड़े से विभूषित गदा घुमाकर चलायी, किन्तु कर्ण के बाणों से आहत होकर वह भी नीचे गर पड़ी। तदनन्तर अन्तरिक्ष में उछलकर वह विशालकाय राक्षस प्रलयकाल के मेघ की भाँति गर्जना करता हुआ आकाश से वृक्षों की वर्षा करने लगा। तब कर्ण भीमसेन के मायावी पुत्र को अपने बाणों द्वारा आकाश में उसी प्रकार बींधने लगा, जैसे सूर्य अपनी किरणों द्वारा मेघों को विद्व कर देते हैं। उसके सारे घोड़ों को मारकर और रथ के सैकड़ों टुकट़े करके कर्ण ने वर्षा करने वाले मेघ की भाँति बाणों की वृष्टि आरम्भ कर दी। घटोत्कच के शरीर में दो अंगुल भी ऐसा स्थान नहीं बचा था, जो बाणों से विदीर्ण न हो गया हो। वह दो ही घड़ी में काँटों से युक्त साही के समान दिखायी देने लगा।[2]

समरांगण में बाणों के समूह से घिरे हुए घटोत्कच को, उसके घो़डो़ को, रथ को तथा ध्वज को भी कोई नहीं देख पाते थे। वह मायावी राक्षस कर्ण के दिव्यास्त्र को अपने अस्त्र द्वारा काटते हुए वहाँ सूत पुत्र के साथ मायामय युद्ध करने लगा। उस समय माया तथा शीघ्रकारिता के द्वारा वह कर्ण को लड़ा रहा था। आकाश से कर्ण पर अलक्षित बाण समूहों की वर्षा हो रही थी। कुरुश्रेष्ठ! भरतनन्दन! वह विशालकाय महामायावी भीमसेन कुमार घटोत्कच माया से सबको मोहित करता हुआ सा सब ओर विचरने लगा। उसने माया द्वारा बहुत से विकराल एवं अमंगल सूचक मुख बनाकर सूत पुत्र के दिव्यास्त्रों को अपना ग्रास बना लिया। फिर वह महाकाय राक्षस धैर्यहीन एवं उत्साह शून्य सा होकर रणभूमि में आकाश से सैकड़ों टुकट़ों में कटकर गिरा हुआ दिखायी दिया।[3]

उस समय उसे मरा हुआ मानकर कौरव दल के प्रमुख वीर जोर-जोर से गर्जना करने लगे। इतने ही में वह दूसरे बहुत से नये-नये शरीर धारण करके सम्पूर्ण दिशाओं में दिखायी देने लगा। फिर वह बड़ी-बड़ी बाहों वाला एक ही विशालकाय रूप धारण करके मैनाक पर्वत के समान दृष्टिगोचर हुआ। उस समय उसके सौ मस्तक तथा सौ पेट हो गये थे। तत्पश्चात् वह राक्षस अँगूठे के बराबर होकर उछलती हुई समुद्र की लहर के समान कभी ऊपर और कभी इधर-उधर होने लगा। फिर पृथ्वी को फाड़कर वह पानी में डूब गया और दूसरी जगह पुनः जल से ऊपर आकर दिखायी देने लगा। इसके बाद आकाश से उतरकर वह पुनः अपने सुवर्ण मण्डित रथ पर स्थित हो गया और माया से ही पृथ्वी, आकाश एवं सम्पूर्ण दिशाओं में घूमता हुआ कवच से सुसज्चित हो कर्ण के रथ के समीप जाकर विचरने लगा। उस समय उसका मुख कुण्डलों से सुशोभित हो रहा था।

घटोत्कच का पुन: कर्ण के साथ युद्ध

प्रजानाथ! अब घटोत्कच सम्भ्रमरहित हो सूत पुत्र कर्ण से बोला- 'सारथि के बेटे! खड़ा रह। अब तू मुझसे जीवित बचकर कहाँ जायेगा? आज मैं समरांगण में तेरा युद्ध का हौसला मिटा दूँगा'। क्रोध से लाल आँखें किये वह क्रूर पराक्रमी राक्षस उपर्युक्त बात कहकर आकाश में उछला और बड़े जोर से अट्टहास करने लगा फिर जैसे सिंह गजराज पर चोट करता है, उसी प्रकार वह कर्ण पर आघात करने लगा। जैसे बादल पर्वत पर जल की धारा बरसाता है, उसी प्रकार घटोत्कच रथियों में श्रेष्ठ कर्ण पर रथ के धुरे के समान मोटे-मोटे बाणों की वर्षा करने लगा। अपने ऊपर प्राप्त हुई उस बाणवर्षा को कर्ण ने दूर से ही काट गिराया। भरतश्रेष्ठ! कर्ण के द्वारा अपनी माया को नष्ट हुई देख घटोत्कच ने अदृश्य होकर पुनः दूसरी माया की सृष्टि की। वह वृक्षावलियों द्वारा हरे-भरे शिखरों से सुशोभित एक अत्यन्त ऊँचा महान पर्वत बन गया और उससे पानी के झरने की भाँति शूल, प्रास, खड्ग और मूसल आदि अस्त्र-शस्त्रों का स्रोत बहने लगा। घटोत्कच को अञ्जनराशि के समान काला पर्वत बनकर अपने झरनों द्वारा भयंकर अस्त्र-शस्त्रों को प्रवाहित करते देखकर भी कर्ण के मन में तनिक भी क्षोभ नहीं हुआ। उसने मुसकराते हुए से अपना दिव्यास्त्र प्रकट किया। उस दिव्यास्त्र द्वारा दूर फेंका गया वह पर्वतराज क्षण भर में अदृश्य हो गया और पुनः आकाश में इन्द्रधनुष सहित काला मेघ बनकर वह अत्यन्त भयंकर राक्षस सूत पुत्र कर्ण पर पत्थरों की वर्षा करने लगा।[3]

तब अस्त्र वेत्ताओं में श्रेष्ठ वैकर्तन दानी कर्ण ने वायव्यास्त्र का संधान करके उस काले मेघ को नष्ट कर दिया। महाराज! कर्ण ने अपने बाण समूहों द्वारा सारी दिशाओं को आच्छादित करके घटोत्कच द्वारा चलाये गये अस्त्रों को काट डाला। तब महाबली भीमसेन कुमार ने जोर-जोर से हँसकर समरभूमि में महारथी कर्ण के प्रति अपनी महामाया प्रकट की। उस समय कर्ण ने रथियों में श्रेष्ठ घटोत्कच को पुनः रथ पर बैठकर आते देखा। उसके मन में तनिक भी घबराहट नहीं थी। सिंह, शार्दूल और मतवाले गजराज के समान पराक्रमी बहुत से राक्षस उसे घेरे हुए थे। उन राक्षसों में से कुछ हाथियों पर, कुछ रथों पर और कुछ घोड़ों की पीठों पर सवार थे। वे भयंकर निशाचर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र, कवच और आभूषण धारण किये हुए थे।[4]

कर्ण का महान पराक्रम

देवताओं से घिरे हुए इन्द्र के समान क्रूर राक्षसों से आवृत्त घटोत्कच को सामने देखकर महाधनुर्धर कर्ण ने उस निशाचर के साथ युद्ध आरम्भ किया। तदनन्तर घटोत्कच ने कर्ण को पाँच बाणों से घायल करके समस्त राजाओँ को भयभीत करते हुए वहाँ भयानक गर्जना की। तत्पश्चात् अञ्जलिक नामक बाण मारकर घटोत्कच ने कर्ण के हाथ में स्थित हुए विशाल धनुष को बाण समूहों सहित शीघ्र काट डाला। तब कर्ण ने भार सहन करने में समर्थ दूसरा विशाल, सुदृढ़ एवं इन्द्रधनुष के समान ऊँचा धनुष हाथ में लेकर उसे बलपूर्वक खींचा। महाराज! तदनन्तर कर्ण ने उस आकाशचारी राक्षसों को लक्ष्य करके सोने के पंखवाले बहुत से शत्रु नाशक बाण चलाये। उन बाणों से पीड़ित हुआ चौड़ी छाती वाले राक्षसों का वह समूह सिंह के सताये हुए जंगली हाथियों के झुंड की भाँति व्याकुल हो उठा। जैसे प्रलयकाल में भगवान् अग्निदेव सम्पूर्ण भूतों को भस्म कर डालते हैं, उसी प्रकार शक्तिशाली कर्ण ने अपने बाणों द्वारा घोड़े, सारथि और हाथियों सहित उन राक्षसों को संतप्त करके जला डाला। जैसे पूर्वकाल में भगवान महेश्वर आकाश में त्रिपुरासुर का दाह करके सुशोभित हुए थे, उसी प्रकार उस राक्षस सेना का संहार करके सूत नन्दन कर्ण बड़ी शोभा पाने लगा। माननीय नरेश! पाण्डव पक्ष के सहस्रों राजाओं में से कोई भी भूपाल उस समय कर्ण की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता था। राजन! क्रोध में भरे हुए यमराज के समान भयंकर बल पराक्रम से सम्पन्न महाबली राक्षसराज घटोत्कच को छोड़कर दूसरा कोई कर्ण का सामना न कर सका।

नरेश्वर! जैसे मशालों से जलती हुई तेल की बूँदें गिरती हैं, उसी प्रकार क्रुद्ध हुए घटोत्कच के दोनों नेत्रों से आग की चिनगारियाँ छूटने लगीं। उसने उस समय हाथ से हाथ मलकर, दाँतों से ओठ चबाकर, पुनः हाथी जैसे बलवान एवं पिशाचों के से मुख वाले प्रखर गधों से जुते हुए माया निर्मित रथ पर बैठकर अपने सारथि से कहा- 'तुम मुझे सूत्रपुत्र कर्ण के पास ले चलो'। प्रजानाथ! ऐसा कहकर रथियों में श्रेष्ठ घटोत्कच पुनः उस भयंकर रथ के द्वारा सूतपुत्र कर्ण के साथ द्वैरथ युद्ध करने के लिये गया। उस राक्षस ने कुपित होकर पुनः सूतपुत्र कर्ण पर आठ चक्रों से युक्त एक अत्यन्त भयंकर रुद्र निर्मित अशनि चलायी, जिसकी ऊँचाई दो योजन और लम्बाई-चौड़ाई एक-एक योजन की थी। लोहे की बनी हुई उस शक्ति में शूल चुने गये थे। इससे वह केसरों से युक्त कदम्ब-पुष्प के समान जान पड़ती थी। कर्ण ने अपना विशाल धनुष नीचे रख दिया और उछलकर उस अशनि को हाथ से पकड़ लिया, फिर उसे घटोत्कच पर ही चला दिया। घटोत्कच शीघ्र ही उस रथ से कूद पड़ा। वह अतिशय प्रभापूर्ण अशनि घोड़े, सारथि और ध्वजसहित घटोत्कच के रथ को भस्म करके धरती फाड़कर समा गयी। यह देख वहाँ खड़े हुए सब देवता आश्चर्यचकित हो उठे।[4] उस समय वहाँ सम्पूर्ण प्राणी कर्ण की प्रशंसा करने लगे, क्योंकि उसने महादेव जी की बनायी हुई उस विशाल अशनि को अनायास ही उछलकर पकड़ लिया था। रणभूमि में ऐसा पराक्रम करके कर्ण पुनः अपने रथ पर आ बैठा। शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! फिर सूतपुत्र कर्ण नाराचों की वर्षा करने लगा। दूसरों को सम्मान देने वाले महाराज! उस भयंकर संग्राम में कर्ण ने उस समय जो कार्य किया था, उसे सम्पूर्ण प्राणियों में दूसरा कोई नहीं कर सकता था। जैसे पर्वत पर जल की धाराएँ गिरती हैं, उसी प्रकार नाराचों के प्रहार से आहत हुआ घटोत्कच गन्धर्व नगर के समान पुनः अदृश्य हो गया।[5]

इस प्रकार शत्रुओं का संहार करने वाले विशालकाय घटोत्कच ने अपनी माया तथा अस्त्र-संचालन की शीघ्रता से कर्ण के उन दिव्यास्त्रों को नष्ट कर दिया। उस राक्षस के द्वारा माया से अपने अस्त्रों के नष्ट हो जाने पर भी उस समय कर्ण के मन में तनिक भी घबराहट नहीं हुई। वह उस राक्षस के साथ युद्ध करता ही रहा। महाराज! तत्पश्चात् क्रोध में भरे हुए महाबली भीमसेन कुमार घटोत्कच ने महारथियों को भयभीत करते हुए अपने बहुत से रूप बना लिये। तदनन्तर सम्पूर्ण दिशाओँ से सिंह, व्याघ्र, तरक्षु (जरख) अग्निमयी जिह्वावाले सर्प तथा लोहमय चंचुवाले पक्षी आक्रमण करने लगे। नागराज के समान घटोत्कच की ओर देखना कठिन हो रहा था। वह कर्ण के धनुष से छूटे हुए शिखाहीन बाणों द्वारा आच्छादित हो वहीं अन्तर्धान हो गया। उस समय बहुत से राक्षस, पिशाच, यातुधान, कुत्ते और विकराल मुख वाले भेड़िये कर्ण को काटने के लिये सब ओर से उस पर टूट पड़े और अपनी भयंकर गर्जनाओं द्वारा उसे भयभीत करने लगे। कर्ण ने खून से रँगे हुए अपने बहुत से भयंकर आयुधों तथा बाणों द्वारा उनमें से प्रत्येक को बींध डाला। अपने दिव्यास्त्र से उस राक्षसी माया का विनाश करके उसने झुकी हुई गाँठवाले बाणों से घटोत्कच के घोड़ों को मार डाला। उन घोड़ों के सारे अंग क्षत-विक्षत हो गये थे, बाणों की मार से उनके पृष्ठभाग फट गये थे, अतः उस राक्षस के देखते-देखते वे पृथ्वी पर गिर पड़े। इस प्रकार अपनी माया के नष्ट हो जाने पर हिडिम्बाकुमार घटोत्कच ने सूर्य पुत्र कर्ण से कहा- 'यह ले, मैं अभी तेरी मृत्यु का आयोजन करता हूँ' ऐसा कहकर वह वहीं अदृश्य हो गया।[5]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 175 श्लोक 17-34
  2. 2.0 2.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 175 श्लोक 35-54
  3. 3.0 3.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 175 श्लोक 55-75
  4. 4.0 4.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 175 श्लोक 76-99
  5. 5.0 5.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 175 श्लोक 100-114

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जयद्रथवध पर्व
धृतराष्ट्र का विलाप | संजय का धृतराष्ट्र को उपालम्भ | द्रोणाचार्य द्वारा चक्रशकट व्यूह का निर्माण | दुर्मर्षण का अर्जुन से लड़ने का उत्साह | अर्जुन का रणभूमि में प्रवेश और शंखनाद | अर्जुन द्वारा दुर्मर्षण की गजसेना का संहार | अर्जुन से हताहत होकर दु:शासन का सेनासहित पलायन | अर्जुन और द्रोणाचार्य का वार्तालाप तथा युद्ध | अर्जुन का कौरव सैनिकों द्वारा प्रतिरोध | अर्जुन का द्रोणाचार्य और कृतवर्मा से युद्ध | श्रुतायुध का अपनी ही गदा से वध | अर्जुन द्वारा सुदक्षिण का वध | अर्जुन द्वारा श्रुतायु, अच्युतायु, नियतायु, दीर्घायु और अम्बष्ठ आदि का वध | दुर्योधन का द्रोणाचार्य को उपालम्भ | अर्जुन से युद्ध हेतु द्रोणाचार्य का दुर्योधन के शरीर में दिव्य कवच बाँधना | द्रोण और धृष्टद्युम्न का भीषण संग्राम | उभय पक्ष के प्रमुख वीरों का संकुल युद्ध | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों का द्वन्द्व युद्ध | द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न का युद्ध | सात्यकि द्वारा धृष्टद्युम्न की रक्षा | द्रोणाचार्य और सात्यकि का अद्भुत युद्ध | अर्जुन द्वारा तीव्र गति से कौरव सेना में प्रवेश | अर्जुन द्वारा विन्द और अनुविन्द का वध | अर्जुन द्वारा अद्भुत जलाशय का निर्माण | श्रीकृष्ण द्वारा अश्वपरिचर्या | अर्जुन का शत्रुसेना पर आक्रमण और जयद्रथ की ओर बढ़ना | श्रीकृष्ण और अर्जुन को आगे बढ़ा देख कौरव सैनिकों की निराशा | जयद्रथ की रक्षा हेतु दुर्योधन का अर्जुन के समक्ष आना | श्रीकृष्ण का अर्जुन की प्रशंसापूर्वक प्रोत्साहन देना | अर्जुन और दुर्योधन का एक-दूसरे के सम्मुख आना | दुर्योधन का अर्जुन को ललकारना | दुर्योधन और अर्जुन का युद्ध | अर्जुन द्वारा दुर्योधन की पराजय | अर्जुन का कौरव महारथियों के साथ घोर युद्ध | अर्जुन तथा कौरव महारथियों के ध्वजों का वर्णन | अर्जुन का नौ कौरव महारथियों के साथ अकेले युद्ध | द्रोणाचार्य की सेना का पांडव सेना से द्वन्द्व युद्ध | युधिष्ठिर का द्रोणाचार्य से युद्ध और रणभूमि से पलायन | क्षेमधूर्ति तथा वीरधन्वा का वध | निरमित्र तथा व्याघ्रदत्त का वध और दुर्मुख तथा विकर्ण की पराजय | द्रौपदी के पुत्रों द्वारा शल का वध | भीमसेन द्वारा अलम्बुष की पराजय | घटोत्कच द्वारा अलम्बुष का वध | द्रोणाचार्य और सात्यकि का युद्ध | युधिष्ठिर का सात्यकि को कौरव सेना में प्रवेश करने का आदेश | सात्यकि और युधिष्ठिर का संवाद | सात्यकि की अर्जुन के पास जाने की तैयारी और उनका प्रस्थान | सात्यकि का भीम को युधिष्ठिर की रक्षा हेतु लौटाना | सात्यकि का पराक्रम | सात्यकि का द्रोणाचार्य से युद्ध | सात्यकि का कृतवर्मा से युद्ध | धृतराष्ट्र का संजय से विषादयुक्त वचन | संजय का धृतराष्ट्र को दोषी बताना | कृतवर्मा का भीमसेन से युद्ध | कृतवर्मा का शिखण्डी से युद्ध | सात्यकि द्वारा कृतवर्मा की पराजय | सात्यकि द्वारा त्रिगर्तों की गजसेना का संहार | सात्यकि द्वारा जलसंध का वध | सात्यकि का पराक्रम तथा दुर्योधन और कृतवर्मा की पुन: पराजय | सात्यकि और द्रोणाचार्य का घोर युद्ध | सात्यकि द्वारा द्रोण की पराजय और कौरव सेना का पलायन | सात्यकि द्वारा सुदर्शन का वध | सात्यकि और उनके सारथि का संवाद | सात्यकि द्वारा काम्बोजों और यवन आदि सेना की पराजय | सात्यकि द्वारा दुर्योधन की सेना का संहार | दुर्योधन का भाइयों सहित पलायन | सात्यकि द्वारा पाषाणयोधी म्लेच्छों की सेना का संहार | दु:शासन का सेना सहित पलायन | द्रोणाचार्य का दु:शासन को फटकारना | द्रोणाचार्य द्वारा वीरकेतु आदि पांचालों का वध | द्रोणाचार्य का धृष्टद्युम्न से घोर युद्ध तथा उनका मूर्च्छित होना | धृष्टद्युम्न का पलायन और द्रोणाचार्य की विजय | सात्यकि का घोर युद्ध और दु:शासन की पराजय | कौरव-पांडव सेना का घोर युद्ध | पांडवों के साथ दुर्योधन का संग्राम | द्रोणाचार्य द्वारा बृहत्क्षत्र का वध | द्रोणाचार्य द्वारा धृष्टकेतु का वध | द्रोणाचार्य द्वारा जरासन्धपुत्र सहदेव तथा क्षत्रधर्मा का वध | द्रोणाचार्य द्वारा चेकितान की पराजय | अर्जुन और सात्यकि के प्रति युधिष्ठिर की चिन्ता | युधिष्ठिर का भीमसेन को अर्जुन और सात्यकि का पता लगाने के लिए भेजना | भीमसेन का कौरव सेना में प्रवेश | भीमसेन द्वारा द्रोणाचार्य के सारथि सहित रथ को चूर्ण करना | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के ग्यारह पुत्रों का वध | भीमसेन का द्रोणाचार्य के रथ को आठ बार फेंकना | भीमसेन की गर्जना सुनकर युधिष्ठिर का प्रसन्न होना | भीमसेन और कर्ण का युद्ध तथा कर्ण की पराजय | दुर्योधन का द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को द्यूत का परिणाम दिखाकर युद्ध हेतु वापस भेजना | युधामन्यु तथा उत्तमौजा का दुर्योधन के साथ युद्ध | भीमसेन द्वारा कर्ण की पराजय | भीमसेन और कर्ण का घोर युद्ध | भीमसेन द्वारा कर्ण के सारथि सहित रथ का विनाश | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्जय का वध | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्मुख का वध | कर्ण-भीमसेन युद्ध में कर्ण का पलायन | धृतराष्ट्र का खेदपूर्वक भीमसेन के बल का वर्णन और अपने पुत्रों की निन्दा | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के पाँच पुत्रों का वध | भीमसेन और कर्ण का युद्ध तथा कर्ण का पलायन | भीमसेन का पराक्रम तथा धृतराष्ट्र के सात पुत्रों का वध | भीमसेन का कर्ण से युद्ध तथा दुर्योधन के सात भाइयों का वध | भीमसेन और कर्ण का भयंकर युद्ध | पहले भीम की और पीछे कर्ण की विजय | अर्जुन के बाणों से व्यथित होकर कर्ण और अश्वत्थामा का पलायन | सात्यकि द्वारा अलम्बुष का और दु:शासन के घोड़ों का वध | सात्यकि का अद्भुत पराक्रम | श्रीकृष्ण का अर्जुन को सात्यकि के आगमन की सूचना देना | सात्यकि के आगमन से अर्जुन की चिन्ता | भूरिश्रवा और सात्यकि का रोषपूर्ण सम्भाषण और युद्ध | अर्जुन द्वारा भूरिश्रवा की भुजा का उच्छेद | भूरिश्रवा का अर्जुन को उपालम्भ देना और अर्जुन का उत्तर | भूरिश्रवा का आमरण अनशन | सात्यकि द्वारा भूरिश्रवा का वध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के अपमानित होने का कारण | वृष्णिवंशी वीरों की प्रशंसा | अर्जुन का जयद्रथ पर आक्रमण तथा दुर्योधन और कर्ण का वार्तालाप | अर्जुन का कौरव योद्धाओं के साथ युद्ध | कर्ण और अर्जुन का युद्ध तथा कर्ण की पराजय | अर्जुन का अद्भुत पराक्रम | अर्जुन द्वारा सिन्धुराज जयद्रथ का वध | अर्जुन के बाणों से कृपाचार्य का मूर्छित होना तथा अर्जुन का खेद | कर्ण और सात्यकि का युद्ध एवं कर्ण की पराजय | अर्जुन का कर्ण को फटकारना और वृषसेन वध की प्रतिज्ञा | श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर बधाई देना | श्रीकृष्ण का अर्जुन को रणभूमि का दृश्य दिखाते हुए युधिष्ठिर के पास जाना | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को अर्जुन की विजय का समाचार सुनाना | युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन, भीम एवं सात्यकि का अभिनन्दन | दुर्योधन का व्याकुल होकर द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को उत्तर और युद्ध के लिए प्रस्थान | दुर्योधन और कर्ण की बातचीत तथा पुन: युद्ध का आरम्भ
घटोत्कचवध पर्व
कौरव-पांडव सेना का युद्ध | दुर्योधन और युधिष्ठिर का संग्राम तथा दुर्योधन की पराजय | रात्रियुद्ध में पांडव सैनिकों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण | द्रोणाचार्य द्वारा शिबि का वध | भीमसेन द्वारा ध्रुव, जयरात एवं कलिंग राजकुमार का वध | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुष्कर्ण और दुर्मद का वध | सोमदत्त और सात्यकि का युद्ध तथा सोमदत्त की पराजय | द्रोणाचार्य का पांडवों से घोर संग्राम | घटोत्कच और अश्वत्थामा का युद्ध तथा अंजनपर्वा का वध | अश्वत्थामा द्वारा एक अक्षौहिणी राक्षस सेना का संहार | अश्वत्थामा का अद्भुत पराक्रम तथा द्रुपदपुत्रों का वध | सोमदत्त की मूर्छा तथा भीमसेन द्वारा बाह्लीक का वध | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के दस पुत्रों और शकुनि के पाँच भाइयों का वध | द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर के युद्ध में युधिष्ठिर की विजय | दुर्योधन और कर्ण की बातचीत | कृपाचार्य द्वारा कर्ण को फटकारना | कर्ण द्वारा कृपाचार्य का अपमान | अश्वत्थामा का कर्ण को मारने के लिये उद्यत होना | पांडवों और पांचालों का कर्ण पर आक्रमण तथा कर्ण का पराक्रम | अर्जुन द्वारा कर्ण की पराजय | दुर्योधन का अश्वत्थामा से पांचालों के वध का अनुरोध | अश्वत्थामा का दुर्योधन को उपालम्भपूर्ण आश्वासन तथा पांचालों से युद्ध | अश्वत्थामा का धृष्टद्युम्न से युद्ध तथा उसका अद्भुत पराक्रम | भीमसेन और अर्जुन का आक्रमण तथा कौरव सेना का पलायन | सात्यकि द्वारा सोमदत्त का वध | द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का युद्ध | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य से दूर रहने का आदेश | कौरवों और पांडवों की सेनाओं में प्रदीपों का प्रकाश | कौरवों और पांडवों की सेनाओं का घमासान युद्ध | दुर्योधन का द्रोणाचार्य की रक्षा हेतु सैनिकों को आदेश | कृतवर्मा द्वारा युधिष्ठिर की पराजय | सात्यकि द्वारा भूरि का वध | घटोत्कच और अश्वत्थामा का घोर युद्ध | भीम और दुर्योधन का युद्ध तथा दुर्योधन का पलायन | कर्ण द्वारा सहदेव की पराजय | शल्य द्वारा विराट के भाई शतानीक का वध और विराट की पराजय | अर्जुन से पराजित होकर अलम्बुष का पलायन | शतानीक के द्वारा चित्रसेन की पराजय | वृषसेन के द्वारा द्रुपद की पराजय | प्रतिबिन्ध्य एवं दु:शासन का युद्ध | नकुल के द्वारा शकुनि की पराजय | शिखण्डी और कृपाचार्य का घोर युद्ध | धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य से युद्ध | धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुमसेन का वध | सात्यकि और कर्ण का युद्ध | कर्ण की दुर्योधन को सलाह | शकुनि का पांडव सेना पर आक्रमण | सात्यकि से दुर्योधन की पराजय | अर्जुन से शकुनि और उलूक की पराजय | धृष्टद्युम्न से कौरव सेना की पराजय | दुर्योधन के उपालम्भ से द्रोणाचार्य और कर्ण का घोर युद्ध | अर्जुन सहित भीमसेन का कौरवों पर आक्रमण | कर्ण द्वारा धृष्टद्युम्न एवं पांचालों की पराजय | कर्ण के पराक्रम से युधिष्ठिर की घबराहट | श्रीकृष्ण और अर्जुन का घटोत्कच को कर्ण के साथ युद्ध हेतु भेजना | घटोत्कच और जटासुरपुत्र अलम्बुष का घोर युद्ध | घटोत्कच द्वारा जटासुरपुत्र अलम्बुष का वध | घटोत्कच और उसके रथ आदि के स्वरूप का वर्णन | कर्ण और घटोत्कच का घोर संग्राम | अलायुध के स्वरूप और रथ आदि का वर्णन | भीमसेन और अलायुध का घोर युद्ध | घटोत्कच द्वारा अलायुध का वध और दुर्योधन का पश्चाताप | कर्ण द्वारा इन्द्रप्रदत्त शक्ति से घटोत्कच का वध | घटोत्कच वध से पांडवों का शोक तथा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता | श्रीकृष्ण का अर्जुन को जरासंध आदि के वध करने का कारण बताना | कर्ण द्वारा अर्जुन पर शक्ति न छोड़ने के रहस्य का वर्णन | धृतराष्ट्र का पश्चाताप और संजय का उत्तर | युधिष्ठिर का शोक और श्रीकृष्ण तथा व्यास द्वारा उसका निवारण
द्रोणवध पर्व
| अर्जुन के कहने से उभयपक्ष के सैनिकों का सो जाना | उभयपक्ष के सैनिकों का चन्द्रोदय के बाद पुन: युद्ध में लग जाना | दुर्योधन का उपालम्भ और द्रोणाचार्य का व्यंग्यपूर्ण उत्तर | पांडव वीरों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण | द्रुपद के पौत्रों तथा द्रुपद और विराट आदि का वध | धृष्टद्युम्न की प्रतिज्ञा और दोनों दलों में घमासान युद्ध | युद्धस्थल की भीषण अवस्था का वर्णन | नकुल के द्वारा दुर्योधन की पराजय | दु:शासन और सहदेव का घोर युद्ध | कर्ण और भीमसेन का घोर युद्ध | द्रोणाचार्य और अर्जुन का घोर युद्ध | धृष्टद्युम्न का दु:शासन को हराकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण | दुर्योधन और सात्यकि का संवाद तथा युद्ध | कर्ण और भीमसेन का संग्राम तथा अर्जुन का कौरवों पर आक्रमण | द्रोणाचार्य का घोर कर्म | ऋषियों का द्रोण को अस्त्र त्यागने का आदेश | अश्वत्थामा की मृत्यु सुनकर द्रोण की जीवन से निराशा | द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न का घोर युद्ध | सात्यकि की शूरवीरता और प्रशंसा | उभयपक्ष के श्रेष्ठ महारथियों का परस्पर युद्ध | धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य पर आक्रमण और घोर युद्ध | द्रोणाचार्य का अस्त्र त्यागकर योगधारणा द्वारा ब्रह्मलोक गमन | धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य के मस्तक का उच्छेद
नारायणास्त्र-मोक्षपर्व
| कौरव सैनिकों तथा सेनापतियों का भागना | कृपाचार्य का अश्वत्थामा को द्रोणवध का वृत्तान्त सुनाना | धृतराष्ट्र का प्रश्न | अश्वत्थामा के क्रोधपूर्ण उद्गार | अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्राकट्य | कौरव सेना का सिंहनाद सुनकर युधिष्ठिर का अर्जुन से कारण पूछना | अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा के क्रोध एवं गुरुहत्या के भीषण परिणाम का वर्णन | भीमसेन के वीरोचित उद्गार | धृष्टद्युम्न के द्वारा अपने कृत्य का समर्थन | सात्यकि और धृष्टद्युम्न का परस्पर क्रोधपूर्ण वाग्बाणों से लड़ना | भीम, सहदेव तथा युधिष्ठिर द्वारा सात्यकि और धृष्टद्युम्न को लड़ने से रोकना | अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्रयोग | नारायणास्त्र के प्रयोग से युधिष्ठिर का खेद | श्रीकृष्ण के बताये हुए उपाय से सैनिकों की रक्षा | भीम का वीरोचित उद्गार और उन पर नारायणास्त्र का प्रबल आक्रमण | श्रीकृष्ण का भीम को रथ से उतारकर नारायणास्त्र को शान्त करना | अश्वत्थामा का पुन: नारायणास्त्र के प्रयोग में असमर्थता बताना | अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न की पराजय | सात्यकि का दुर्योधन, कृपाचार्य, कृतवर्मा, कर्ण और वृषसेन को भगाना | सात्यकि का अश्वत्थामा से घोर युद्ध | अश्वत्थामा द्वारा मालव, पौरव और चेदिदेश के युवराज का वध | भीम और अश्वत्थामा का घोर युद्ध | अश्वत्थामा के आग्नेयास्त्र से एक अक्षौहिणी पांडव सेना का संहार | श्रीकृष्ण और अर्जुन पर आग्नेयास्त्र का प्रभाव न होने से अश्वत्थामा की चिन्ता | व्यास का अश्वत्थामा को शिव और श्रीकृष्ण की महिमा बताना | व्यास का अर्जुन से शिव की महिमा बताना | द्रोण पर्व के पाठ और श्रवण का फल

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