व्यास का अर्जुन से शिव की महिमा बताना

महाभारत द्रोण पर्व मेंं नारायणास्त्र-मोक्षपर्व के अंतर्गत 202वें अध्याय मेंं व्यास ने अर्जुन से शिव की महिमा का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है-[1]

धृतराष्ट्र ने पूछा – संजय! धृष्टद्युम्न के द्वारा अतिरथी वीर द्रोणाचार्य के मारे जाने पर मेरे और पाण्‍डु के पुत्रों ने आगे कौन सा कार्य किया? संजय ने कहा भरतश्रेष्‍ठ! धृष्टद्युम्न द्वारा अतिरथी वीर द्रोणाचार्य के मारे जाने पर जब समस्‍त कौरव भाग खड़े हुए, उस समय अपने को विजय दिलाने वाली एक अत्‍यन्‍त आश्‍चर्यमयी घटना कुन्‍तीपुत्र अर्जुन ने अकस्‍मात वहाँ आये हुए वेदव्‍यास जी से उसके सम्‍बन्‍घ में इस प्रकार पूछा।

अर्जुन का व्यास से प्रश्न पूछना

अर्जुन बोल-- महर्षे! जब मैं अपने निर्मल बाणों द्वारा शत्रु सेना का संहार कर रहा था, उस समय मुझे दिखायी दिया कि एक अग्नि के समान तेजस्‍वी पुरुष मेरे आगे-आगे चल रहे हैं। महामुने! वे जलता हुआ शूल हाथ में लेकर जिस ओर जाते उसी दिशा में मेरे शत्रु विदीर्ण हो जाते थे। उन्‍होंने ही मेरे समस्‍त शत्रुओं को मार भगाया है, किन्‍तु लोग समझते हैं कि मैंने ही उन्‍हें मारा और भगाया है शत्रुओं की सारी सेनाएँ उन्‍हीं के द्वारा नष्‍ट की गयी, मैं तो केवल उनके पीछे पीछे चलता था। भगवन! मुझे बताइये, वे महापुरुष कौन थे? मैने उन्‍हें हाथ में त्रिशूल लिये देखा था। वे सूर्य के समान तेजस्‍वी थे। वे अपने पैरों से पृथ्‍वी का स्‍पर्श नहीं करते थे त्रिशूल को अपने हाथ से अलग कभी नहीं छोड़ते थे उनके तेज से उस एक ही त्रिशूल से सहस्‍त्रों नये नये शूल प्रकट होकर शत्रुओं पर गिरते थे।

व्यास द्वारा शिव की महिमा का वर्णन करना

व्‍यास जी ने कहा– अर्जुन! जो प्रजापतियों में प्रथम, तेजः स्‍वरूप, अन्‍तर्यामी तथा सर्वसमर्थ हैं, भूर्लोंक, भुवर्लोक आदि समस्‍त भुवन जिनके स्‍वरूप हैं, जो दिव्‍य विग्रहधारी तथा सम्‍पूर्ण लोकों के शासक एवं स्‍वामी हैं, उन्‍हीं वरदायक ईश्‍वर भगवान शंकर का तुमने दर्शन किया है वे बरद देवता सम्‍पूर्ण जगत के ईश्‍वर हैं, तुम उन्‍हीं की शरण में जाओ। वे महान देव हैं उनका हृदय महान हैा वे सब पर शासन करने वाले, सर्वव्‍यापी और जटाधारी हैं। उनके तीन नेत्र और विशाल भुजाएँ हैं, रुद्र उनकी संज्ञा है, उनके मस्‍तक पर शिखा तथा शरीर पर वल्‍कल वस्‍त्र शोभा देता है। महादेव, हर और स्‍थाणु आदि नामों से प्रसिद्ध वरदायक भगवान शिव सम्‍पूर्ण भुवनों के स्‍वामी हैं। वे ही जगत के कारण भूत अव्‍यक्‍त प्रकृति है। वे किसी से भी पराजित नहीं होते हैं। जगत को प्रेम और सुख की प्राप्ति उन्‍हीं से होती है। वे ही सबके अध्‍यक्ष हैं। वे ही जगत की उत्‍पत्ति के स्‍थान, जगत के बीज, विजयशील, जगत के आश्रय, सम्‍पूर्ण विश्‍व के आत्‍मा, विश्‍व विधाता, विश्‍व रूप और यशस्‍वी हैं। वे ही विश्‍वेश्‍वर, विश्‍वनियन्‍ता, कर्मो के फलदाता ईश्‍वर और प्रभावशाली हैं। वे ही सबका कल्‍याण करने वाले और स्‍वयंभू हैं। सम्‍पूर्ण भूतों के स्‍वामी तथा भूत, भविष्‍य और वर्तमान के कारण भी वे ही हैं। वे ही योग और योगेश्‍वर हैं, वे ही सर्वस्‍वरूप और सम्‍पूर्ण लोकेश्‍वरों के भी ईश्‍वर हैं। सबसे श्रेष्‍ठ, सम्‍पूर्ण जगत से श्रेष्‍ठ और श्रेष्‍ठतम परमेष्‍ठी भी वे ही हैं। तीनों लोकों के एक मात्र स्त्रष्‍टा,त्रिलोकी के आश्रम, शुद्धात्‍मा, भव, भीम और चन्‍द्रमा का मुकुट धारण करने वाले भी वे ही हैं।[1]

वे सनातन देव इस पृथ्‍वी को धारण करने वाले तथा सम्‍पूर्ण बागीश्वरों के भी ईश्‍वर हैं। उन्‍हें जीतना असम्‍भव है। वे जगदीश्‍वर जन्‍म, मृत्‍यु और जरा आदि विकारों से परे हैं। वे ज्ञानस्‍वरूप, ज्ञानगम्‍य तथा ज्ञान में श्रेष्‍ठ हैं। उनके स्‍वरूप को समझ लेना अत्‍यन्‍त कठिन है। वे अपने भक्‍तों को कृपा पूर्वक मनोवांछित उत्‍तम फल देने वाले है। भगवान शंकर के दिव्‍य पार्षद नाना प्रकार के रूपों में दिखायी देते हैं। उनमें से कोई वामन, कोई जटाधारी, कोई मुण्डित मस्‍तक वाले और कोई छोटी गर्दन वाले है। किन्‍हीं के पेट बड़े हैं तो किन्‍हीं के सारे शरीर ही विशाल हैं। कुछ पार्षदों के कान बहुत बड़े-बड़े हैं। वे सब बड़े उत्‍साही होते हैं। कितनों के मुख विकृत हैं और कितनों के पैर। अर्जुन! उन सबके वेष भी बड़े विकराल हैं। ऐसे स्‍वरूप वाले वे सभी पार्षद महान् देवता भगवान शंकर की सदा ही पूजा किया करते हैं। तात! उन तेजस्‍वी पुरुष के रूप में वे भगवान शंकर ही कृपा करके तुम्‍हारे आगे आगे चलते हैं।[2]

कुन्‍तीनन्‍दन! उस रोमान्‍चकारी घोर संग्राम में अश्वत्‍थामा, कर्ण और कृपाचार्य आदि प्रहार कुशल बड़े-बड़े धनुर्धरों से सुरक्षित उस कौरव सेना को उस समय बहुरूपधारी महाधनुर्धर भगवान महेश्वर के सिवा दूसरा कौन मन से भी नष्‍ट कर सकता था। जब वे ही सामने आकर खड़े हो जायँ तो वहाँ ठहरने का साहस कोई नहीं कर सकता है? तीनों लोकों में कोई भी प्राणी उनकी समानता करने वाला नहीं है। संग्राम में भगवान शंकर के कुपित होने पर उनकी गन्‍ध से भी शत्रु बेहोश होकर काँपने लगते और अधमरे होकर गिर जाते हैं। उनको नमस्‍कार करने वाले देवता सदा स्‍वर्गलोक में निवास करते हैं। दूसरे भी जो मानव इस लोक में उन्‍हें नमस्‍कार करते हैं, वे भी स्‍वर्गलोक पर विजय पाते हैं। जो भक्त मनुष्‍य सदा अनन्‍यभाव से वरदायक देवता कल्‍याणस्‍वरूप, सर्वेश्‍वर उमानाथ भगवान रुद्र की उपासना करते हैं, वे भी इद्रलोक में सुख पाकर अन्‍त में परम गति को प्राप्‍त होते हैं।

व्यास द्वारा शिव की स्तुति का वर्णन करना

कुन्‍तीनन्‍दन! अतः तुम भी उन शान्‍तस्‍वरूप भगवान शिव को सदा नमस्‍कार किया करो। जो रुद्र, नीलकण्‍ठ, कनिष्‍ठ, उत्‍तम तेज से सम्‍पन्‍न, जटाजूटधारी, विकराल स्‍वरूप, पिगंल नेत्र वाले तथा कुबेर को वर देने वाले हैं, उन भगवान शिव को नमस्‍कार है। जो यम के अनुकूल रहने वाले काल हैं, अव्‍यक्‍त स्‍वरूप आकाश ही जिनका केश हैं, जो सदाचार सम्‍पन्‍न, सबका कल्‍याण करने वाले, कमनीय, पिंगल नेत्र, सदा स्थित रहने वाले और अन्‍तर्यामी पुरुष हैं, जिनके केश भूरे एवं पिंगल वर्ण के हैं, जिनका मस्‍तक मुण्डित है, जो दुबले पतले और भवसागर से पार उतारने वाले हैं, जो सूर्यस्‍वरूप, उत्‍तम तीर्थ और अत्‍यन्‍त वेगशालीहैं, उन देवाधिदेव महादेव को नमस्‍कार हैं। जो अनेक रूप धारण करने वाले, सर्वस्‍वरूप तथा सबके प्रिय हैं, वल्‍कल आदि वस्‍त्र जिन्‍हें प्रिय हैं, जो मस्‍तक पर पगड़ी धारण करते हैं, जिनका मुख सुन्‍दर है, जिनके सहस्‍त्रों नेत्र हैं तथा जो वर्षा करने वाले हैं, उन भगवान शंकर को नमस्‍कार है। जो पर्वत शयन करने वाले, परम शान्‍त, यति स्‍वरूप, चीरवस्‍त्रधारी, हिरण्‍यबाहु, राजा तथा दिशाओं के अधिपति हैं।[2] जो मेघों के अधिपति तथा सम्‍पूर्ण भूतों के स्‍वामी हैं, उन्‍हें नमस्‍कार है। वृक्षों के पालक और गौओं के अधिपति रूप आपको नमस्‍कार है। जिनका शरीर वृक्षों से आच्‍छादित है, जो सेना के अधिपति और शरीर के मध्‍यवर्ती हैं, यजमान रूप से अपने हाथ में स्‍त्रुवा धारण करते हैं, जो दिव्‍य स्‍वरूप, धनुर्धर और भृगुवंशी परशुराम स्‍वरूप हैं, उनको नमस्‍कार है। जिनके बहुत से रूप हैं, जो इस विश्‍व के पालक होकर भी मूँज का कौपीन धारण करते हैं, जिनके सहस्‍त्रों सिर, सहस्‍त्रों नेत्र, सहस्‍त्रों भुजाएँ और सहस्‍त्रों पैर हैं, उन भगवान शंकर को नमस्‍कार है।[3]

कुन्‍तीनन्‍दन! तुम उन्‍हीं वरदायक भुवनेश्‍वर, उमा, वल्‍लभ, त्रिनेत्रधारी, दक्ष यज्ञ विनाशक, प्रजापति, व्‍यग्रता रहित और अविनाशी भगवान भूतनाथ की शरण में जाओ। जो जटाजूटधारी हैं, जिनका घूमना परम श्रेष्‍ठ है, जो श्रेष्‍ठ नाभि से सुशोभित, ध्‍वजा पर वृष का चिन्‍ह धारण करने वाले, वृषद्रर्प, वृषपति, धर्म को ही उच्‍च्‍तम मानने वाले तथा धर्म से भी सर्वश्रेष्‍ठ हैं, जिनके ध्वज में सॉड का चिन्‍ह अंकित है, जो धर्मात्‍माओं में उदार, धर्मस्‍वरूप, वृषभ के समान विशाल नेत्रों वाले, श्रेष्‍ठ आयुष और श्रेष्‍ठ बाण से युक्‍त्‍ा, धर्मविग्रह तथा धर्म के ईश्‍वर, उन भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। कोटि कोटि ब्रह्माण्‍डों को धारण करने के कारण जिनका उदर और शरीर विशाल हैं, जो व्‍याघ्रचर्म ओढ़ा करते हैं, जो लोकेश्‍वर, वरदायक, मुण्डितमस्‍तक, ब्राह्मणहितैषी तथा ब्राह्मण के प्रिय हैं। जिनके हाथ में त्रिशूल, ढाल, तलवार और पिनाक आदि अस्त्र शोभा पाते हैं, जो वरदायक, प्रभु, सुन्‍दर शरीरधारी, तीनों लोको के स्‍वामी तथा साक्षात ईश्‍वर हैं, उन चीरवस्त्रधारी, शरणागत वत्‍सल भगवान शिव की मैं शरण लेता हूँ। कुबेर जिनके सखा हैं, उन देवेश्‍वर शिव को नमस्‍कार है। प्रभो! आप उत्‍त्‍म वस्‍त्र, उत्‍तम व्रत और उत्‍तम धनुष धारण करते हैं। आप धनुर्धर देवता को धनुष प्रिय हैं, आप धन्‍वी, धन्‍वन्‍तर, धनुष और धन्‍वाचार्य हैं, आपको नमस्‍कार है। भयंकर आयुध धारण करने वाले सुरश्रेष्‍ठ महादेव जी को नमस्‍कार। अनेक रूपधारी शिव को नमस्‍कार हैं, बहुत से धनुष धारण करने वाले रुद्रदेव को नमस्‍कार है, आप स्‍थाणु रूप हैं, आपको नमस्‍कार है, उन तपस्‍वी शिव को नित्‍य नमस्‍कार। त्रिपुरनाशक और भगनेत्र विनाशक भगवान शिव को बारंबार नमस्‍कार है। नस्‍पतियों के पति तथा नरपति रूप महादेव जी को नमस्‍कार है। मातृकाओं के अधिपति और गणों के पालक शिव को नमस्‍कार है। गोपति और यज्ञपति शंकर नित्‍य नमस्‍कार है। जलपति तथा देवपति को नित्‍य नमस्‍कार है। पूषा के दाँत तोड़ने वाले, त्रिनेत्रधारी वरदायक शिव को नमस्‍कार है। नीलकण्‍ठ, पिण्‍डलवर्ण और सुनहरे केशवाले भगवान शंकर को नमस्‍कार है।

व्यास द्वारा शिव के दिव्य कर्म का वर्णन करना

अर्जुन! अब मैं परम बुद्धिमान महादेव जी के जो दिव्‍य कर्म हैं, उनका अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा मैने सुन रखा है, वैसा ही तुम्‍हारे समक्ष वर्णन करता हूँ। यदि वे कुपित हो जायँ तो देवता, असुर, गन्‍धर्व और राक्षस इस लोक में अथवा पाताल में छिप जाने पर भी चैन से नहीं रहने पाते हैं। पहले की बात हैं, वे यज्ञपरायण दक्ष पर कुपित हो गये थे। उस समय उन्‍होंने उनके विधिपूर्वक किये जाने वाले यज्ञ को नष्‍ट कर दिया था। उन दिनों वे निर्दय हो गये थे और धनुष द्वारा बाण छोड़कर बड़े जोर-जोर से गर्जना करने लगे।[3] देवताओं को उस समय कहीं भी सुख और शान्ति नहीं मिली, महेश्वर के कुपित होने से सहसा यज्ञ में उपद्रव खड़ा हो गया था। पार्थ! उनके धनुष की प्रत्‍यंचा के गम्‍भीर घोष से अत्‍यन्‍त व्‍याकुल हो सम्‍पूर्ण लोक उनके अधीन हो गये। देवता और असुर सभी धरती पर गिर पड़े। समुद्र के जल में ज्‍वार आ गया, धरती काँपने लगी, पर्वत टूट-टूटकर बिखरने लगे और दिग्‍गज मूर्च्छित हो गये। घोर अन्‍धकारक से आच्‍छादित हो जाने के कारण सम्‍पूर्ण लोको में कहीं भी प्रकाश नहीं रह गया। भगवान शिव ने सूर्य सहित सम्‍पूर्ण ज्‍योतियों की प्रभा नष्‍ट कर दी। महर्षि भी भयभीत एवं क्षुब्‍ध हो उठे। वे सम्‍पूर्ण भूतों के तथा अपने लिये भी सुख चाहते हुए पुण्‍याह वाचन आदि शान्ति कर्म करने लगे। उस समय हँसते हुए से भगवान शंकर ने पूषा पर आक्रमण किया। वे पुरोडाश खा रहे थे। उन्‍होंने उनके सारे दाँत तोड़ डाले। तदनन्‍तर सारे देवता नतमस्‍तक हो भय से थर-थर काँपते हुए यज्ञशाला से बाहर निकल गये। तब भगवान शिव ने देवताओं को लक्ष्‍य करके तीखे और तेजस्‍वी बाणों का संधान किया। धूम और चिनगारियों सहित वे बाण बिजली सहित मेघों के समान जान पड़ते थे। तब सम्‍पूर्ण देवताओं ने भगवान महेश्वर को कुपित देख उनके चरणों में प्रणाम किया और रुद्र के लिये उन्‍होंने विशिष्‍ट यज्ञभाग की कल्‍पना की। राजन! सब देवता भयभीत हो भगवान शंकर की शरण में आये। तब क्रोध शान्‍त होने पर उन्‍होंने उस यज्ञ को पूर्ण किया। उन दिनों देवता लोग भाग खड़े हुए थे, तभी से आज तक वे देवता उनसे डरते रहते हैं।[4]

देवताओं का शिव से विनती करना

पूर्वकाल में परम पराक्रमी तीन असुरों के आकाश में तीन नगर थे। एक लोहे का, दूसरा चाँदी का और तीसरा अत्‍यन्‍त विशाल नगर सोने का बना हुआ था। उनमें से सोने का नगर कमलाक्ष के, चाँदी का तारकाक्ष के तथा तीसरा लोहे का बना हुआ नगर विधुन्‍माली के अधिकार में था। इन्‍द्र सम्‍पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करके भी उन नगरों का भेद न कर सके। तब उनसे पीड़ित हुए सम्‍पूर्ण देवता भगवान शंकर की शरण में गये। इन्‍द्रसहित सम्‍पूर्ण देवताओं ने महात्‍मा भगवान शंकर से कहा- ‘प्रभो! ब्रह्मा जी से वरदान पाकर ये त्रिपुर निवासी घोर दैत्‍य सम्‍पूर्ण जगत को अधिकाधिक पीड़ा दे रहे है; क्‍योंकि वरदान प्राप्‍त होने से उनका घमंड बहुत बढ़ गया है। ‘देव देवेश्‍वर महादेव! आपके सिवा दूसरा कोई उन दैत्‍यों का वध करने में समर्थ नहीं है; अतः आप उन देव द्रोहियों को मार डालिये। ‘भुवनेश्‍वर! रुद्र! आप जब इन असुरों का विनाश कर डालेंगे, तब से सम्‍पूर्ण यज्ञकर्मो में जो पशु होंगे, वे रुद्र के भाग समझे जायेंगे’।[4]

देवताओं के ऐसा कहने पर भगवान शिव ने ‘तथास्‍तु‘ कहकर उनके हित की इच्‍छा से गन्‍धमादन और विन्‍ध्‍याचल इन दो पर्वतों को अपने रथ के पार्श्‍ववर्ती ध्‍वज बनाये। फिर समुद्र और पर्वतों सहित समूची पृथ्‍वी को रथ बनाकर नागराज शेष को उस रथ का धुरा बनाया। तत्‍पश्‍चात त्रिेनेत्र धारी पिनाकपाणि देवाधिदेव महादेव ने चन्‍द्रमा और सूर्य दोनों को रथ के पहिये बनाये। एलपत्र के पुत्र और पुष्‍प दन्‍त को जूए की कीलें बनाया। फिर त्र्यम्‍बकने मलयाचल को यूप और तक्षक नाग को जूआ बाँधने की रस्‍सी बना लिया। इसी प्रकार प्रतापी भगवान महेश्वर ने अन्‍य प्राणियों को जोते और बागडोर आदि के रूप में रखकर चारों वेद ही रथ के चार घोड़े बना लिये। तत्‍पश्‍चात तीनों लोको के स्‍वामी महेश्वर ने उपवेदों को लगाम बनाकर गायत्री और सावित्री को प्रग्रह बना लिया। फिर ओकांर को चाबुक, ब्रह्मा जी को सारथि, मन्‍दराचल को गाण्‍डीव धनुष, वासुकि नाग को उसकी प्रत्‍यन्‍चा, भगवान विष्‍णु को उत्‍त्‍म बाण, अग्निदेव को उस बाण का फल, वायु को उसके पंख और वैवस्‍वत यम को उसकी पूँछ बनाया। बिजली को उस बाण की तीखी धार बनाकर मेरु पर्वत को प्रधान ध्‍वज के स्‍थान में रखा।[5]

इस प्रकार सर्व देवमय दिव्‍य रथ तैयार करके असुरों का अन्‍त करने वाले, अतुल पराक्रमी, योद्धाओं में श्रेष्‍ठ तथा सदा स्थिर रहने वाले श्रीमान भगवान शिव त्रिपुरवध के लिये उस पर आरूढ़ हुए। पार्थ! उस समय सम्‍पूर्ण देवता और तपोधन म‍हर्षि भगवान शंकर की स्‍तुति करने लगे। उन भगवान ने उस अनुपम एवं दिव्‍य माहेश्‍वर स्‍थान का निर्माण करके उस पर एक हजार वर्षो तक स्थिर भाव से खड़े रहे। जब वे तीनों पुर आकाश में एकत्र हुए, तब उन्‍होंने तीन गाँठ और तीन फल वाले बाण से उन तीनों पुरों को विदीर्ण कर डाला। उस समय दानव उन नगरों की ओर कालाग्नि से संयुक्‍त एंव विष्‍णु तथा सेम की शक्ति से सम्‍पन्‍न उस बाण की ओर भी आँख उठाकर देख न सके। जिस समय वे तीनों पुरों को दग्‍ध कर रहे थे, उस समय पार्वती देवी भी उन्‍हें देखने के लिये एक पाँच शिखा वाले बालक को गोद में लेकर वहाँ गयीं।

देवताओं तथा ब्रह्मा का संवाद

पार्वती देवी ने देवताओं से पूछा– ‘पहचानते हो, यह कौन हैं?’ उनके इस प्रश्‍न से इन्‍द्र के हृदय में असूया और क्रोध की आग जल उठी, वे उस बालक पर वज्र का प्रहार करना ही चाहते थे कि सर्व लोकेश्‍वर सर्वव्‍यापी भगवान शंकर ने हँसकर उनकी वज्र सहित बाँह को स्‍तम्भित कर दिया। तदनन्‍तर स्‍तम्भित हुई भुजा के साथ ही देवताओं सहित इन्‍द्र तुरंत ही वहाँ से अविनाशी भगवान ब्रह्मा जी के पास गये। देवताओं ने मस्‍तक झुकाकर ब्रह्मा जी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा- ‘ब्रह्मन्! पार्वती जी की गोद में बालक रूपधारी एक अद्भुत प्राणी था, जिसे देखकर भी हम लोग पहचान नहीं सके हैं। ‘अतः हम लोग आप से उसके विषय में पूछना चाहते हैं, उस बालक ने बिना युद्ध के खेल ही खेल में इन्‍द्र सहित हम देवताओं को परास्‍त कर दिया’।

उनकी यह बात सुनकर ब्रह्मवेत्‍ताओं में श्रेष्‍ठ भगवान ब्रह्मा ने ध्‍यान करके अमित तेजस्‍वी बालरूप धारी शंकर को पहचान लिया।[5] तत्‍पश्‍चात भगवान ब्रह्मा ने उन देव श्रेष्‍ठ इन्‍द्र आदि से कहा ‘देवताओं! वे चाराचर जगत के स्‍वामी साक्षात भगवान शंकर थे। उन महेश्वर से बढ़कर दूसरी कोई सत्‍ता नहीं है। तुम लोगो ने पार्वती जी के साथ जिस अमित तेजस्‍वी बालक का दर्शन किया है, उसके रूप में भगवान शंकर ही थे। उन्‍होंने पार्वती जी की प्रसन्‍नता के लिये बालरूप धारण कर लिया था; अतः तुम लोग मेरे साथ उन्‍हीं की शरण में चलो। उस बालक के रूप में ये सर्वलोकेश्‍वर प्रभु भगवान महादेव ही थे, किन्‍तु प्रजापतियों सहित सम्‍पूर्ण देवता बाल सूर्य के सदृश कान्तिमान उन जगदीश्‍वर को पहचान न सके। तदनन्‍तर ब्रह्मा जी ने निकट जाकर भगवान महेश्वर को देखा और ये ही सबसे श्रेष्‍ठ हैं, ऐसा जानकर उनकी वन्‍दना की।[6]

ब्रह्मा द्वारा शिव की वंदना करना

ब्रह्मा जी बोल– भगवन! आप ही यज्ञ, आप ही इस विश्‍व के सहारे और आप ही सबको शरण देने वाले हैं, आप ही सबको उत्‍पन्‍न करने वाले भव हैं, आप ही महादेव है, और आप ही परमधाम एवं परमपद हैं। आपने ही इस सम्‍पूर्ण चराचर जगत को व्‍याप्‍त कर रखा है। भूत, वर्तमान और भविष्‍य के स्‍वामी भगवन! लोक नाथ! जगत्‍पते! ये इन्‍द्र आपके क्रोध से पीड़ित हो रहे हैं। आप इन पर कृपा कीजिये।

व्‍यास जी कहते हैं – पार्थ! ब्रह्मा जी की बात सुनकर भगवान महेश्वर प्रसन्‍न हो गये और कृपा के लिये उद्यत हो ठठाकर हँस पड़े। तब देवताओं ने पार्वती देवी तथा भगवान शंकर को प्रसन्‍न किया। फिर वज्रधारी इन्‍द्र की बाँह जैसी पहले थी, वैसी हो गयी। दक्ष यज्ञ का विनाश करने वाले देवश्रेष्‍ठ भगवान वृषध्‍वज अपनी पत्‍नी उमा के साथ देवताओं पर प्रसन्‍न हो गये। वे ही रुद्र हैं, वे ही शिव हैं, वे ही अग्नि हैा, वे ही सर्वस्‍वरूप एवं सर्वज्ञ हैं। वे ही इन्‍द्र और वायु है, वे ही दोनों अश्विनी कुमार तथा विद्युत हैं। वे ही भव, वे ही मेघ और वे ही सनातन महादेव हैं। चन्‍द्रमा, ईशान, सूर्य और वरुण भी वे ही हैं। वे ही काल, अन्‍तक, मृत्यु, यम, रात्रि, दिन, मास, पक्ष, ऋतु, संध्‍या और संवत्‍सर हैं। वे ही धाता, विधाता, विश्‍व आत्‍मा और विश्‍वरूपी कार्य के कर्ता हैं। वे शरीर हित होकर भी सम्‍पूर्ण देवताओं के शरीर धारण करते हैं। सम्‍पूर्ण देवता सदा उनकी स्‍तुति करते हैं। वे महादेव जी एक होकर भी अनेक हैं। सौ हजार और लाखों रूपों में वे ही विराज रहे हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण उनके दो शरीर मानते हैं, एक घोर और दूसरा शिव। ये दोनों पृथक-पृथक हैं और उन्‍हीं से पुनः बहुसंख्‍यक शरीर प्रकट हो जाते हैं। उनका जो घोर शरीर है, वही अग्नि, विष्‍णु और सूर्य है और उनका सौम्‍य शरीर ही जल, ग्रह, नक्षत्र और चन्‍द्रमा है। वेद, वेदांग, उपनिषद, पुराण और अध्‍यात्‍मशास्त्र के जो सिदान्‍त हैं तथा उनमें जो भी जो परम रहस्‍य है, वह भगवान महेश्वर ही हैं। अर्जुन! यह है अजन्‍मा भगवान महादेव का महामहिम स्‍वरूप। मैं सहस्‍त्रों वर्षो तक लगातार वर्णन करता रहूँ तो भी भगवान के समस्‍त गुणों का पार नहीं पा सकता।[6]

व्यास का शिव के स्वरूप का वर्णन करना=

अर्जुन! यह है अजन्‍मा भगवान महादेव का महामहिम स्‍वरूप। मैं सहस्‍त्रों वर्षो तक लगातार वर्णन करता रहूँ तो भी भगवान के समस्‍त गुणों का पार नहीं पा सकता। जो सब प्रकार की ग्रहबाधाओं से पीड़ित हैं और सम्‍पूर्ण पापों में डूबे हुए हैं, वे भी यदि शरण में आ जायँ तो शरणागत वत्‍सल भगवान शिव अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर उन्‍हें पाप ताप से मुक्‍त कर देते हैं। वे ही प्रसन्‍न होने पर मनुष्‍यों को आयु, आरोग्‍य, ऐश्‍वर्य, धन और प्रचुर मात्रा में मनोवान्छित पदार्थ देते हैं तथा वे ही कुपित होने पर फिर उन सबका संहार कर डालते हैं। इन्‍द्र आदि देवताओं में उन्‍हीं का ऐश्‍वर्य बताया जाता है, वे ही ईश्‍वर होने के कारण लोक में मनुष्‍यों के शुभाशुभ कर्मो के फल देने में संलग्‍न रहते हैं। सम्‍पूर्ण कामनाओं के ईश्‍वर भी वे ही बताये जाते हैं। महाभूतों के ईश्‍वर होने से वे ही महेश्वर कहलाते हैं। वे नाना प्रकार के बहुसंख्‍यक रूपो द्वारा सम्‍पूर्ण विश्‍व में व्‍याप्‍त हैं। उन महादेव जी का जो मुख है, वह समुद्र में स्थित है।[7]

वह ‘वडवामुख’ नाम से विख्‍यात होकर जलमय हविष्‍य का पान करता है। ये ही महादेव जी श्‍मशान भूमि में नित्‍य निवास करते हैं। वहाँ मनुष्‍य ‘वीरस्‍थानेश्‍वर’ के नाम से इनकी आराधना करते हैं। इनके बहुत से तेजस्‍वी घोर रूप है, जो लोक में पूजित होते हैं और मनुष्‍य उनका कीर्तन करते रहते हैं। उनकी महत्‍त, सर्वव्‍यापकता तथा कर्म के अनुसार लोक में इनके बहुत से यथार्थ नाम बताये जाते हैं। यजुर्वेद में भी परमात्‍मा शिव की ‘शतरुद्रिय’ नामक उत्‍तम स्‍तुति बतायी गयी है। अनन्‍त रुद्र नाम से इनका उपस्‍थान बताया गया है। जो दिव्‍य तथा मानव भोग हैं, उन सबके स्‍वामी से महादेव जी ही हैं। ये देव इस विशाल विश्‍व में व्‍याप्‍त हैं; इसलिये विभु और प्रभु कहलाते हैं। ब्राह्मण और मुनिजन इन्‍हें सबसे ज्‍येष्‍ठ बताते हैं, ये देवताओं में सबसे प्रथम है; इन्‍हीं के मुख से अग्निेदेव का प्रादुर्भाव हुआ है। ये सर्वथा (प्राणियों) का पालन करते और उन्‍हीं के साथ खेला करते हैं तथा उन पशुओं के अधिपति है; इसलिये ‘प्रशुपति’ कहे गये हैं। इनका दिव्‍य लिंग ब्रह्मचर्य से स्थित है। ये सम्‍पूर्ण लोको में महिमान्वित करते है; इसलिये महेश्वर कहे गये हैं। ऋषि, देवता, गन्‍धर्व और अप्‍सराएँ इनके उर्ध्‍व लोक स्थित लिंग विग्रह (प्रतीक) की पूजा करती हैं। उस लिंग अर्थात प्रतीक की पूजा होने पर कल्‍याणकारी भगवान महेश्वर आनन्दित होते हैं। सुखी, प्रसन्‍न तथा हर्षोल्‍लास से परिपूर्ण होते हैं। भूत, भविष्‍य और वर्तमान तीनों कालों में इनके स्‍थावर जंगम बहुत से रूप स्थित होते हैं; इसलिये इन्‍हें ‘बहुरूप’ नाम दिया गया है। यद्यपि उनके सब ओर नेत्र हैं, तथापि उनका एक विलक्षण अग्निमय नेत्र अलग भी है, जो सदा क्रोध से प्रज्‍वलित रहता है; वे सब लोको में समाविष्‍ट होने के कारण ‘सर्व’ कहे गये हैं। उनका रूप धूम्रवर्ण का है; इसलिये वे ‘धूजंटि’ कहलाते हैं। विश्‍वेदेव उन्‍हीं में प्रतिष्ठित हैं, इसलिये उनका एक नाम ‘विश्‍वरूप’ है। वे भगवान भुवनेश्‍वर आकाश, जल और पृथ्‍वी इन अम्‍बास्‍वरूपा तीन देवियों को अपनाते, उनकी रक्षा करते हैं, इसलिये त्र्यम्‍बक कहे गये हैं।[7]

ये मनुष्‍यों का कल्‍याण चाहते हुए उनके समस्‍त कर्मो में सम्‍पूर्ण अभि‍लषित पदार्थो की समृद्धि (सिद्धि) करते हैं, इसलिये ‘शिव’ कहे गये हैं। उनके सहस्‍त्र अथवा दस हजार नेत्र हैं अथवा वे सब ओर से नेत्रमय ही हैं। भगवान शिव महान विश्‍व का पालन करते है; इसलिये ‘महादेव’ कहे गये हैं। वे पूर्वकाल से ही महान रूप में स्थित हैं, प्राणों की उत्‍पति और स्थिति के कारण हैं तथा उनका लिंगमय शरीर सदा स्थित रहता है; इसलिये उन्‍हें ‘स्‍थाणु’ कहते हैं। लोक में जो सूर्य और चन्‍द्रमा की किरणें प्रकाशित होती हैं, वे भगवान त्रिलोचन के केश कही गयी हैं। वे व्‍योम (आकाश) में प्रकाशित होती है; इसलिये उनका नाम ‘व्‍योमकेश’ है। भूत, वर्तमान और भविष्‍य सम्‍पूर्ण जगत भगवान शंकर से ही विस्‍तार को प्राप्‍त हुआ है; इसलिये वे ‘भूतभव्‍यभवोद्भुव’ कहे गये हैं। कपि कहते हैं श्रेष्‍ठ को और वृष नाम है धर्म का। वृष और कपि दोनों होने के कारण देवाधिदेव भगवान शंकर ‘वृषाकपि’ कहलाते हैं। वे ब्रह्मा, इन्‍द्र, वरुण, यम तथा कुबेर को भी काबू में करके उनसे उनका ऐश्‍वर्य हर लेते हैं; इसलिये ‘हर’ कहे गये हैं। उन भगवान महेश्‍वर ने दोनों नेत्रों को बंद करके अपने ललाट में बलपूर्वक तीसरे नेत्र की सृष्टि की, इसलिये उन्‍हें त्रिनेत्र कहते हैं। वे प्राणियों के शरीर में विषम संख्‍या वाले पाँच प्राणों के साथ निवास करते हुए सदा समभाव से स्थित रहते है। विषम परिस्थितियों में पड़े हुए समस्‍त देहधारियों के भीतर वे ही प्राणवायु और अपानवायु के रूप में विराजमान हैं। जो कोई भी मनुष्‍य हो, उसे महात्‍मा शिव के अर्चाविग्रह अथवा लिंग (प्रतीक) की पूजा करनी चाहिये। लिंग अथवा प्रतिमा की पूजा करने वाला पुरुष बड़ी भारी सम्‍पति प्राप्‍त कर लेता है। दोनों जाँघों से नीचे भगवान शिव का आधा शरीर आग्‍नेय अथवा घोर है तथा उससे ऊँपर का आधा शरीर सोम एवं शिव है। किसी किसी के मत में उनके सम्‍पूर्ण शरीर का आधा भाग ‘अग्नि’ और आधा भाग ‘सोम’ कहलाता है। उनका जो शिव शरीर है, वह तेजोमय और परम कान्तिमान है। वह देवताओं के उपयोग में आता है तथा मनुष्‍य लोक में उनका प्रकाशमान घोर शरीर ‘अग्नि’कहलाता है। उनकी जो शिव मूर्ति है, वह जगत की रक्षा के लिये ब्रह्मचर्य का पालन करती है और उनकी जो घोरतर मूर्ति है, उसके द्वारा भगवान शंकर सम्पूर्ण जगत का संहार करते हैं। ये प्रतापी देवता प्रलय काल में अत्‍यन्‍त तीक्ष्‍ण एवं उग्र रूप धारण करके सबको दग्‍ध कर डालते हैं और प्राणियों के रक्‍त, मांस एवं मज्‍जा को भी भक्षण करते हैं; अतः रौद्र भाव के कारण ‘रुद्र’ कहलाते है।[8]

व्यास का अर्जुन को समझाना

अर्जुन! संग्राम भूमि में जो तुम्‍हारे आगे शत्रुओं का संहार करते हुए दिखायी दिये हैं, वे ये ही पिनाकधारी भगवान महादेव हैं। निष्‍पाप अर्जुन! जब तुमने सिंधुराज के वध की प्रतिज्ञा की थी, उस समय स्‍वप्र में भगवान श्रीकृष्‍ण ने तुम्‍हें गिरिराज के शिखर पर जिनका दर्शन कराया था, ये वे ही भगवान शंकर संग्राम में तुम्‍हारे आगे आगे चल रहे हैं। उन्‍होंने ही तुम्‍हें वे दिव्‍यास्त्र प्रदान किये थे, जिनके द्वारा तुमने दानवों का संहार किया है।[8] पार्थ! यह देवाधिदेव भगवान शिव के ‘शतरुद्रिय’स्‍तोत्र की व्‍याख्‍या की गयी है। यह स्‍तोत्र वेदों के समान परम पवित्र तथा धन, यश और आयु की वृद्धि करने वाला है। इसके पाठ से सम्‍पूर्ण मनोरथीं की सिद्धि होती है। यह पवित्र स्‍तोत्र सम्‍पूर्ण किल्विर्षो का नाशक, सब पापों का निवारक तथा सब प्रकार के दुःख और भय को दूर करने वाला है। जो मनुष्‍य भगवान शंकर के ब्रह्मा, विष्‍णु, महेश और निर्गण निराकार– इन चतुर्विध स्‍वरूप का प्रतिपादन करने वाले इस स्‍तोत्र को सदा सुनता है, वह सम्‍पूर्ण शत्रुओं को जीतकर रुद्रलाक में प्रतिष्ठित होता है। परमात्‍मा शिव का यह चरित सदा संग्राम में विजय दिलाने वाला है, जो सदा उद्यत रहकर शतरुद्रिय को पढ़ता और सुनता है तथा मनुष्‍यों में जो कोई भी निरन्‍तर भगवान विश्‍वेश्‍वर का भक्ति भाव से भजन करता है, वह उन त्रिलोचन के प्रसन्‍न होने पर समस्‍त उत्‍तम कामनाओं को प्राप्‍त कर लेता है। कुन्‍तीनन्‍दन! जाओ, युद्ध करो। तुम्‍हारी पराजय नहीं हो सकती; क्‍योंकि तुम्‍हारे मन्‍त्री, रक्षक और पार्श्‍ववर्ती साक्षात भगवान श्रीकृष्‍ण हैं।[9]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 202 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 202 श्लोक 17-33
  3. 3.0 3.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 202 श्लोक 34-53
  4. 4.0 4.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 202 श्लोक 54-69
  5. 5.0 5.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 202 श्लोक 70-90
  6. 6.0 6.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 202 श्लोक 91-110
  7. 7.0 7.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 202 श्लोक 111-130
  8. 8.0 8.1 महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 202 श्लोक 131-147
  9. महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 202 श्लोक 148-158

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संशप्तकवध पर्व
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अभिमन्युवध पर्व
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प्रतिज्ञा पर्व
अभिमन्यु की मृत्यु के कारण अर्जुन का विषाद | अभिमन्यु की मृत्यु पर अर्जुन का क्रोध | युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन को अभिमन्युवध का वृत्तान्त सुनाना | अर्जुन की जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा | अर्जुन की प्रतिज्ञा से जयद्रथ का भय | दुर्योधन और द्रोणाचार्य का जयद्रथ को आश्वासन | श्रीकृष्ण का अर्जुन को कौरवों के जयद्रथ की रक्षा विषयक उद्योग का समाचार बताना | अर्जुन के वीरोचित वचन | अशुभसूचक उत्पातों से कौरव सेना में भय | श्रीकृष्ण का सुभद्रा को आश्वासन | सुभद्रा का विलाप और श्रीकृष्ण द्वारा आश्वासन | पांडव सैनिकों की अर्जुन के लिए शुभाशंसा | अर्जुन की सफलता हेतु श्रीकृष्ण के दारुक से उत्साह भरे वचन | अर्जुन का स्वप्न में श्रीकृष्ण के साथ शिव के समीप जाना | अर्जुन और श्रीकृष्ण द्वारा शिव की स्तुति | अर्जुन को स्वप्न में पुन: पाशुपतास्त्र की प्राप्ति | युधिष्ठिर का ब्राह्मणों को दान देना | युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण का पूजन | अर्जुन की प्रतिज्ञा की सफलता हेतु युधिष्ठिर की श्रीकृष्ण से प्रार्थना | जयद्रथ वध हेतु श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को आश्वासन | युधिष्ठिर का अर्जुन को आशीर्वाद | सात्यकि और श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन की रणयात्रा | अर्जुन का सात्यकि को युधिष्ठिर की रक्षा का आदेश
जयद्रथवध पर्व
धृतराष्ट्र का विलाप | संजय का धृतराष्ट्र को उपालम्भ | द्रोणाचार्य द्वारा चक्रशकट व्यूह का निर्माण | दुर्मर्षण का अर्जुन से लड़ने का उत्साह | अर्जुन का रणभूमि में प्रवेश और शंखनाद | अर्जुन द्वारा दुर्मर्षण की गजसेना का संहार | अर्जुन से हताहत होकर दु:शासन का सेनासहित पलायन | अर्जुन और द्रोणाचार्य का वार्तालाप तथा युद्ध | अर्जुन का कौरव सैनिकों द्वारा प्रतिरोध | अर्जुन का द्रोणाचार्य और कृतवर्मा से युद्ध | श्रुतायुध का अपनी ही गदा से वध | अर्जुन द्वारा सुदक्षिण का वध | अर्जुन द्वारा श्रुतायु, अच्युतायु, नियतायु, दीर्घायु और अम्बष्ठ आदि का वध | दुर्योधन का द्रोणाचार्य को उपालम्भ | अर्जुन से युद्ध हेतु द्रोणाचार्य का दुर्योधन के शरीर में दिव्य कवच बाँधना | द्रोण और धृष्टद्युम्न का भीषण संग्राम | उभय पक्ष के प्रमुख वीरों का संकुल युद्ध | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों का द्वन्द्व युद्ध | द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न का युद्ध | सात्यकि द्वारा धृष्टद्युम्न की रक्षा | द्रोणाचार्य और सात्यकि का अद्भुत युद्ध | अर्जुन द्वारा तीव्र गति से कौरव सेना में प्रवेश | अर्जुन द्वारा विन्द और अनुविन्द का वध | अर्जुन द्वारा अद्भुत जलाशय का निर्माण | श्रीकृष्ण द्वारा अश्वपरिचर्या | अर्जुन का शत्रुसेना पर आक्रमण और जयद्रथ की ओर बढ़ना | श्रीकृष्ण और अर्जुन को आगे बढ़ा देख कौरव सैनिकों की निराशा | जयद्रथ की रक्षा हेतु दुर्योधन का अर्जुन के समक्ष आना | श्रीकृष्ण का अर्जुन की प्रशंसापूर्वक प्रोत्साहन देना | अर्जुन और दुर्योधन का एक-दूसरे के सम्मुख आना | दुर्योधन का अर्जुन को ललकारना | दुर्योधन और अर्जुन का युद्ध | अर्जुन द्वारा दुर्योधन की पराजय | अर्जुन का कौरव महारथियों के साथ घोर युद्ध | अर्जुन तथा कौरव महारथियों के ध्वजों का वर्णन | अर्जुन का नौ कौरव महारथियों के साथ अकेले युद्ध | द्रोणाचार्य की सेना का पांडव सेना से द्वन्द्व युद्ध | युधिष्ठिर का द्रोणाचार्य से युद्ध और रणभूमि से पलायन | क्षेमधूर्ति तथा वीरधन्वा का वध | निरमित्र तथा व्याघ्रदत्त का वध और दुर्मुख तथा विकर्ण की पराजय | द्रौपदी के पुत्रों द्वारा शल का वध | भीमसेन द्वारा अलम्बुष की पराजय | घटोत्कच द्वारा अलम्बुष का वध | द्रोणाचार्य और सात्यकि का युद्ध | युधिष्ठिर का सात्यकि को कौरव सेना में प्रवेश करने का आदेश | सात्यकि और युधिष्ठिर का संवाद | सात्यकि की अर्जुन के पास जाने की तैयारी और उनका प्रस्थान | सात्यकि का भीम को युधिष्ठिर की रक्षा हेतु लौटाना | सात्यकि का पराक्रम | सात्यकि का द्रोणाचार्य से युद्ध | सात्यकि का कृतवर्मा से युद्ध | धृतराष्ट्र का संजय से विषादयुक्त वचन | संजय का धृतराष्ट्र को दोषी बताना | कृतवर्मा का भीमसेन से युद्ध | कृतवर्मा का शिखण्डी से युद्ध | सात्यकि द्वारा कृतवर्मा की पराजय | सात्यकि द्वारा त्रिगर्तों की गजसेना का संहार | सात्यकि द्वारा जलसंध का वध | सात्यकि का पराक्रम तथा दुर्योधन और कृतवर्मा की पुन: पराजय | सात्यकि और द्रोणाचार्य का घोर युद्ध | सात्यकि द्वारा द्रोण की पराजय और कौरव सेना का पलायन | सात्यकि द्वारा सुदर्शन का वध | सात्यकि और उनके सारथि का संवाद | सात्यकि द्वारा काम्बोजों और यवन आदि सेना की पराजय | सात्यकि द्वारा दुर्योधन की सेना का संहार | दुर्योधन का भाइयों सहित पलायन | सात्यकि द्वारा पाषाणयोधी म्लेच्छों की सेना का संहार | दु:शासन का सेना सहित पलायन | द्रोणाचार्य का दु:शासन को फटकारना | द्रोणाचार्य द्वारा वीरकेतु आदि पांचालों का वध | द्रोणाचार्य का धृष्टद्युम्न से घोर युद्ध तथा उनका मूर्च्छित होना | धृष्टद्युम्न का पलायन और द्रोणाचार्य की विजय | सात्यकि का घोर युद्ध और दु:शासन की पराजय | कौरव-पांडव सेना का घोर युद्ध | पांडवों के साथ दुर्योधन का संग्राम | द्रोणाचार्य द्वारा बृहत्क्षत्र का वध | द्रोणाचार्य द्वारा धृष्टकेतु का वध | द्रोणाचार्य द्वारा जरासन्धपुत्र सहदेव तथा क्षत्रधर्मा का वध | द्रोणाचार्य द्वारा चेकितान की पराजय | अर्जुन और सात्यकि के प्रति युधिष्ठिर की चिन्ता | युधिष्ठिर का भीमसेन को अर्जुन और सात्यकि का पता लगाने के लिए भेजना | भीमसेन का कौरव सेना में प्रवेश | भीमसेन द्वारा द्रोणाचार्य के सारथि सहित रथ को चूर्ण करना | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के ग्यारह पुत्रों का वध | भीमसेन का द्रोणाचार्य के रथ को आठ बार फेंकना | भीमसेन की गर्जना सुनकर युधिष्ठिर का प्रसन्न होना | भीमसेन और कर्ण का युद्ध तथा कर्ण की पराजय | दुर्योधन का द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को द्यूत का परिणाम दिखाकर युद्ध हेतु वापस भेजना | युधामन्यु तथा उत्तमौजा का दुर्योधन के साथ युद्ध | भीमसेन द्वारा कर्ण की पराजय | भीमसेन और कर्ण का घोर युद्ध | भीमसेन द्वारा कर्ण के सारथि सहित रथ का विनाश | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्जय का वध | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्मुख का वध | कर्ण-भीमसेन युद्ध में कर्ण का पलायन | धृतराष्ट्र का खेदपूर्वक भीमसेन के बल का वर्णन और अपने पुत्रों की निन्दा | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के पाँच पुत्रों का वध | भीमसेन और कर्ण का युद्ध तथा कर्ण का पलायन | भीमसेन का पराक्रम तथा धृतराष्ट्र के सात पुत्रों का वध | भीमसेन का कर्ण से युद्ध तथा दुर्योधन के सात भाइयों का वध | भीमसेन और कर्ण का भयंकर युद्ध | पहले भीम की और पीछे कर्ण की विजय | अर्जुन के बाणों से व्यथित होकर कर्ण और अश्वत्थामा का पलायन | सात्यकि द्वारा अलम्बुष का और दु:शासन के घोड़ों का वध | सात्यकि का अद्भुत पराक्रम | श्रीकृष्ण का अर्जुन को सात्यकि के आगमन की सूचना देना | सात्यकि के आगमन से अर्जुन की चिन्ता | भूरिश्रवा और सात्यकि का रोषपूर्ण सम्भाषण और युद्ध | अर्जुन द्वारा भूरिश्रवा की भुजा का उच्छेद | भूरिश्रवा का अर्जुन को उपालम्भ देना और अर्जुन का उत्तर | भूरिश्रवा का आमरण अनशन | सात्यकि द्वारा भूरिश्रवा का वध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के अपमानित होने का कारण | वृष्णिवंशी वीरों की प्रशंसा | अर्जुन का जयद्रथ पर आक्रमण तथा दुर्योधन और कर्ण का वार्तालाप | अर्जुन का कौरव योद्धाओं के साथ युद्ध | कर्ण और अर्जुन का युद्ध तथा कर्ण की पराजय | अर्जुन का अद्भुत पराक्रम | अर्जुन द्वारा सिन्धुराज जयद्रथ का वध | अर्जुन के बाणों से कृपाचार्य का मूर्छित होना तथा अर्जुन का खेद | कर्ण और सात्यकि का युद्ध एवं कर्ण की पराजय | अर्जुन का कर्ण को फटकारना और वृषसेन वध की प्रतिज्ञा | श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर बधाई देना | श्रीकृष्ण का अर्जुन को रणभूमि का दृश्य दिखाते हुए युधिष्ठिर के पास जाना | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को अर्जुन की विजय का समाचार सुनाना | युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन, भीम एवं सात्यकि का अभिनन्दन | दुर्योधन का व्याकुल होकर द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना | द्रोणाचार्य का दुर्योधन को उत्तर और युद्ध के लिए प्रस्थान | दुर्योधन और कर्ण की बातचीत तथा पुन: युद्ध का आरम्भ
घटोत्कचवध पर्व
कौरव-पांडव सेना का युद्ध | दुर्योधन और युधिष्ठिर का संग्राम तथा दुर्योधन की पराजय | रात्रियुद्ध में पांडव सैनिकों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण | द्रोणाचार्य द्वारा शिबि का वध | भीमसेन द्वारा ध्रुव, जयरात एवं कलिंग राजकुमार का वध | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुष्कर्ण और दुर्मद का वध | सोमदत्त और सात्यकि का युद्ध तथा सोमदत्त की पराजय | द्रोणाचार्य का पांडवों से घोर संग्राम | घटोत्कच और अश्वत्थामा का युद्ध तथा अंजनपर्वा का वध | अश्वत्थामा द्वारा एक अक्षौहिणी राक्षस सेना का संहार | अश्वत्थामा का अद्भुत पराक्रम तथा द्रुपदपुत्रों का वध | सोमदत्त की मूर्छा तथा भीमसेन द्वारा बाह्लीक का वध | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के दस पुत्रों और शकुनि के पाँच भाइयों का वध | द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर के युद्ध में युधिष्ठिर की विजय | दुर्योधन और कर्ण की बातचीत | कृपाचार्य द्वारा कर्ण को फटकारना | कर्ण द्वारा कृपाचार्य का अपमान | अश्वत्थामा का कर्ण को मारने के लिये उद्यत होना | पांडवों और पांचालों का कर्ण पर आक्रमण तथा कर्ण का पराक्रम | अर्जुन द्वारा कर्ण की पराजय | दुर्योधन का अश्वत्थामा से पांचालों के वध का अनुरोध | अश्वत्थामा का दुर्योधन को उपालम्भपूर्ण आश्वासन तथा पांचालों से युद्ध | अश्वत्थामा का धृष्टद्युम्न से युद्ध तथा उसका अद्भुत पराक्रम | भीमसेन और अर्जुन का आक्रमण तथा कौरव सेना का पलायन | सात्यकि द्वारा सोमदत्त का वध | द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का युद्ध | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य से दूर रहने का आदेश | कौरवों और पांडवों की सेनाओं में प्रदीपों का प्रकाश | कौरवों और पांडवों की सेनाओं का घमासान युद्ध | दुर्योधन का द्रोणाचार्य की रक्षा हेतु सैनिकों को आदेश | कृतवर्मा द्वारा युधिष्ठिर की पराजय | सात्यकि द्वारा भूरि का वध | घटोत्कच और अश्वत्थामा का घोर युद्ध | भीम और दुर्योधन का युद्ध तथा दुर्योधन का पलायन | कर्ण द्वारा सहदेव की पराजय | शल्य द्वारा विराट के भाई शतानीक का वध और विराट की पराजय | अर्जुन से पराजित होकर अलम्बुष का पलायन | शतानीक के द्वारा चित्रसेन की पराजय | वृषसेन के द्वारा द्रुपद की पराजय | प्रतिबिन्ध्य एवं दु:शासन का युद्ध | नकुल के द्वारा शकुनि की पराजय | शिखण्डी और कृपाचार्य का घोर युद्ध | धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य से युद्ध | धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुमसेन का वध | सात्यकि और कर्ण का युद्ध | कर्ण की दुर्योधन को सलाह | शकुनि का पांडव सेना पर आक्रमण | सात्यकि से दुर्योधन की पराजय | अर्जुन से शकुनि और उलूक की पराजय | धृष्टद्युम्न से कौरव सेना की पराजय | दुर्योधन के उपालम्भ से द्रोणाचार्य और कर्ण का घोर युद्ध | अर्जुन सहित भीमसेन का कौरवों पर आक्रमण | कर्ण द्वारा धृष्टद्युम्न एवं पांचालों की पराजय | कर्ण के पराक्रम से युधिष्ठिर की घबराहट | श्रीकृष्ण और अर्जुन का घटोत्कच को कर्ण के साथ युद्ध हेतु भेजना | घटोत्कच और जटासुरपुत्र अलम्बुष का घोर युद्ध | घटोत्कच द्वारा जटासुरपुत्र अलम्बुष का वध | घटोत्कच और उसके रथ आदि के स्वरूप का वर्णन | कर्ण और घटोत्कच का घोर संग्राम | अलायुध के स्वरूप और रथ आदि का वर्णन | भीमसेन और अलायुध का घोर युद्ध | घटोत्कच द्वारा अलायुध का वध और दुर्योधन का पश्चाताप | कर्ण द्वारा इन्द्रप्रदत्त शक्ति से घटोत्कच का वध | घटोत्कच वध से पांडवों का शोक तथा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता | श्रीकृष्ण का अर्जुन को जरासंध आदि के वध करने का कारण बताना | कर्ण द्वारा अर्जुन पर शक्ति न छोड़ने के रहस्य का वर्णन | धृतराष्ट्र का पश्चाताप और संजय का उत्तर | युधिष्ठिर का शोक और श्रीकृष्ण तथा व्यास द्वारा उसका निवारण
द्रोणवध पर्व
| अर्जुन के कहने से उभयपक्ष के सैनिकों का सो जाना | उभयपक्ष के सैनिकों का चन्द्रोदय के बाद पुन: युद्ध में लग जाना | दुर्योधन का उपालम्भ और द्रोणाचार्य का व्यंग्यपूर्ण उत्तर | पांडव वीरों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण | द्रुपद के पौत्रों तथा द्रुपद और विराट आदि का वध | धृष्टद्युम्न की प्रतिज्ञा और दोनों दलों में घमासान युद्ध | युद्धस्थल की भीषण अवस्था का वर्णन | नकुल के द्वारा दुर्योधन की पराजय | दु:शासन और सहदेव का घोर युद्ध | कर्ण और भीमसेन का घोर युद्ध | द्रोणाचार्य और अर्जुन का घोर युद्ध | धृष्टद्युम्न का दु:शासन को हराकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण | दुर्योधन और सात्यकि का संवाद तथा युद्ध | कर्ण और भीमसेन का संग्राम तथा अर्जुन का कौरवों पर आक्रमण | द्रोणाचार्य का घोर कर्म | ऋषियों का द्रोण को अस्त्र त्यागने का आदेश | अश्वत्थामा की मृत्यु सुनकर द्रोण की जीवन से निराशा | द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न का घोर युद्ध | सात्यकि की शूरवीरता और प्रशंसा | उभयपक्ष के श्रेष्ठ महारथियों का परस्पर युद्ध | धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य पर आक्रमण और घोर युद्ध | द्रोणाचार्य का अस्त्र त्यागकर योगधारणा द्वारा ब्रह्मलोक गमन | धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य के मस्तक का उच्छेद
नारायणास्त्र-मोक्षपर्व
| कौरव सैनिकों तथा सेनापतियों का भागना | कृपाचार्य का अश्वत्थामा को द्रोणवध का वृत्तान्त सुनाना | धृतराष्ट्र का प्रश्न | अश्वत्थामा के क्रोधपूर्ण उद्गार | अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्राकट्य | कौरव सेना का सिंहनाद सुनकर युधिष्ठिर का अर्जुन से कारण पूछना | अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा के क्रोध एवं गुरुहत्या के भीषण परिणाम का वर्णन | भीमसेन के वीरोचित उद्गार | धृष्टद्युम्न के द्वारा अपने कृत्य का समर्थन | सात्यकि और धृष्टद्युम्न का परस्पर क्रोधपूर्ण वाग्बाणों से लड़ना | भीम, सहदेव तथा युधिष्ठिर द्वारा सात्यकि और धृष्टद्युम्न को लड़ने से रोकना | अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्रयोग | नारायणास्त्र के प्रयोग से युधिष्ठिर का खेद | श्रीकृष्ण के बताये हुए उपाय से सैनिकों की रक्षा | भीम का वीरोचित उद्गार और उन पर नारायणास्त्र का प्रबल आक्रमण | श्रीकृष्ण का भीम को रथ से उतारकर नारायणास्त्र को शान्त करना | अश्वत्थामा का पुन: नारायणास्त्र के प्रयोग में असमर्थता बताना | अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न की पराजय | सात्यकि का दुर्योधन, कृपाचार्य, कृतवर्मा, कर्ण और वृषसेन को भगाना | सात्यकि का अश्वत्थामा से घोर युद्ध | अश्वत्थामा द्वारा मालव, पौरव और चेदिदेश के युवराज का वध | भीम और अश्वत्थामा का घोर युद्ध | अश्वत्थामा के आग्नेयास्त्र से एक अक्षौहिणी पांडव सेना का संहार | श्रीकृष्ण और अर्जुन पर आग्नेयास्त्र का प्रभाव न होने से अश्वत्थामा की चिन्ता | व्यास का अश्वत्थामा को शिव और श्रीकृष्ण की महिमा बताना | व्यास का अर्जुन से शिव की महिमा बताना | द्रोण पर्व के पाठ और श्रवण का फल

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