- महाभारत द्रोण पर्व मेंं जयद्रथवध पर्व के अंतर्गत 112वें अध्याय मेंं 'संजय ने सात्यकि की अर्जुन के पास जाने की तैयारी और उनके प्रस्थान' का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
सात्यकि का युधिष्ठिर से संवाद
संजय कहते हैं- राजन! धर्मराज का कथन सुनकर शिनिप्रवर सात्यकि के मन में राजा को छोड़कर जाने से अर्जुन के अप्रसन्न होने की आशा का उत्पन्न हुई। विशेषत: उन्हें अपने लिये लोकापवाद का भय दिखायी देने लगा। वे सोचने लगे-मुझे अर्जुन की ओर आते देख सब लोग यही कहेंगे कि वह डरकर भाग आया है। युद्ध में दुर्जय वीर पुरुषराज सात्यकि ने इस प्रकार भाँति-भाँति से विचार करके धर्मराज से यह बात कही-। ‘प्रजानाथ! यदि आप अपनी रक्षा की व्यवस्था की हुई मानते हैं तो आपका कल्याण हो। मैं अर्जुन के पास जाऊँगा और आपकी आज्ञा का पालन करुंगा। ‘राजन! मैं आपसे सच कहता हूँ कि तीनों लोकों में कोई ऐसा पुरुष नहीं हैं, जो मुझे पाण्डुनन्दन अर्जुन से अधिक प्रिय हो। ‘मानद! मैं आपके आदेश और संदेश से अर्जुन के पथ का अनुसरण करुंगा। आपके लिये कोई ऐसा कार्य नहीं हैं, जिसे मैं किसी प्रकार न कर सकूं। ‘नरश्रेष्ठ! मेरे गुरु अर्जुन का वचन मेरे लिये जैसा महत्त्व रखता हैं, आपका वचन भी वैसा ही हैं, बल्कि उससे भी बढ़कर है। ‘नृपश्रेष्ठ! दोनों भाई श्रीकृष्ण और अर्जुन आपके प्रिय साधन में लगे हुए हैं और उन दोनों के प्रिय कार्य में आप उनके पास जाऊँगा। ‘राजन! जैसे महात्म्य महासागर में प्रवेश करता हैं, उसी प्रकार में भी कुपित होकर द्रोणाचार्य की सेना में घुसता हूँ। मैं वही जाऊँगा, जहाँ राजा जयद्रथ हैं। ‘पाण्डुनन्दन! अर्जुन से भयभीत हो, अपनी सेना का आश्रय लेकर जयद्रथ जहाँ अश्वत्थामा, कर्ण और कृपाचार्य आदि श्रेष्ठ महारथियों से सुरक्षित होकर खड़ा हैं, वहीं मुझे पहुँचना है। ‘प्रजापालक नरेश! इस समय जहाँ जयद्रथ-वध के लिये उद्यत हुए अर्जुन खड़े हैं, उस स्थान को मैं यहाँ से तीन योजन दूर मानता हूँ। ‘राजन! अर्जुन के तीन योजन दूर चले जाने पर भी मैं जयद्रथ-वध के पहले भी सुद्दढ़ हृदय से अर्जुन के स्थान पर पहुँच जाऊँगा।
‘नरेश्वर! गुरु की आज्ञा प्राप्त हुए बिना कौन मनुष्य युद्ध करेगा और गुरु की आज्ञा मिल जाने पर मेरे-जैसा कौन वीर युद्ध नहीं करेगा?। ‘प्रभो! मुझे जहाँ जाना हैं, उस स्थान को मैं जानता हूँ। वह हल, शक्ति, गदा, प्रास, ढाल, तलवार, ऋष्टि अस्त्र, और तोमरों से भरा है। श्रेष्ठ धनुष बाणों से परिपूर्ण शत्रु-सैन्यरुपी महासागर को मैं मथ डालूंगा। ‘महाराज! यह जो आप हजारों हाथियों की सेना देखते हैं, इसका नाम है आञ्जनक कुल! इसमें पराक्रमशाली गजराज खड़े हैं, जिनके ऊपर प्रहार कुशल और युद्ध निपुण बहुत से ग्लेच्छा योद्धा सवार हैं। ‘राजन! ये हाथी मेंघों की घटा के समान दिखायी देते हैं और पानी बरसाने वाले बादलों के समान मद की वर्षा करते हैं। हाथी सवारों के हांकने पर ये कभी युद्ध से पीछे नहीं हटते है। महाराज! वध के अतिरिक्त और किसी उपाय से इनकी पराजय नहीं हो सकती।[1]
सात्यकि द्वारा युधिष्ठिर से दुर्योधन की कौरव-सेना का वर्णन करना
‘राजन! आप जिन सहस्रों, रथियों को देख रहे हैं, ये रुक्मरथ नाम वाले महारथी राजकुमार हैं। प्रजानाथ! ये रथों, अस्त्रों और हाथियों के संचालन में भी निपुण हैं। ‘ये सब-के-सब धनुर्वेद के पारंगत विद्वान हैं। सृष्टि-युद्ध में भी निपुण है, महायुद्ध के विशेषत्र हैं और मल्लयुद्ध में भी कुशल है। ‘तलवार चलाने का भी इन्हें अच्छा अभ्यास है। ये ढाल, तलवार लेकर विचर ने में समर्थ हैं। शूर और अस्त्र–शस्त्रों के विद्वान होने के साथ ही परस्पर स्पर्धा रखते हैं। ‘नरेश्वर! ये सदा समरभूमि में मनुष्यों को जीतने की इच्छा रखते हैं। महाराज! कर्ण ने इन्हें दु:शासन का अनुगामी बना रखा है। ‘भगवान श्रीकृष्ण भी इन सब श्रेष्ठ महारथियों की प्रंशसा करते हैं, ये सब-के-सब कर्ण के वश में स्थित हैं और सदा उसका प्रिय करने की अभिलाषा रखते हैं। ‘राजन! कर्ण के ही कहने से ये अर्जुन की ओर से इधर लौट आये हैं। इनके कवच और धनुष अत्यन्त सुद्दढ़ हैं। वे न तो थके हैं और न पीड़ित ही हुए हैं। ‘दुर्योधन के आदेश से ही निश्चय ही मुझसे युद्ध करने के लिये खड़े हैं। कुरुनन्दन! मैं आपका प्रिय करने के लिये इन सब को संग्राम में मथ कर सव्यसाची अर्जुन के मार्ग पर जाऊँगा।[2]
‘महाराज! जिन दूसरे इन सात सौ हाथियों को आप देख रहे हैं, जो कवच से आच्छादित हैं और जिन पर किरात योद्धा चढ़े हुए हैं, ये वे ही हाथी हैं, जिन्हें दिग्विजय के समय अपने प्राण बचाने की इच्छा रखकर किरातराज ने सव्यसाची अर्जुन को भेंट किया था। ये सजे-सजाये हाथी उन दिनों आपके सेवक थे। ‘महाराज! यह काल चक्र का परिवर्तन तो देखिये-जो पूर्वकाल में द्दढ़तापूर्वक आपकी सेवा करने वाले थें, वे आज आपसे ही युद्ध करना चाहते हैं। ‘ये रण दुर्भद किरात इन हाथियों के महावत और इन्हें शिक्षा देने में कुशल है। ये सब-के-सब अग्नि से उत्पन्न हुए हैं। सव्यसाची अर्जुन ने इन सबको संग्रामभूमि में पराजित कर दिया था। ‘राजन! आज दुर्योधन के वशीभूत होकर ये मेरे साथ यु्द्ध करने को तैयार है। इन रण-दुर्भद किरातों का अपने बाणों द्वारा संहार करके मैं सिधुराज के वध के प्रयत्न में लगे हुए पाण्डुनन्दन अर्जुन के पास जाऊँगा।’ ये जो बड़े गजराज द्दष्टिगोचर हो रहे हैं, ये अञ्जन-नामक दिग्गज के कुल में उत्पन्न हुए हैं[3] इनका स्वभाव बड़ा ही कठोर हैं। इन्हें युद्ध की अच्छी शिक्षा मिली हैं। इनके मण्डस्थल और मुख से मद की धारा बहती रहती है। वे सब-के-सब सुवर्णमय कवचों से विभूषित है। राजन! ये पहले भी युद्ध स्थल में अपने लक्ष्य पर विजय पा चुके हैं और समरांगण में ऐरावत के समान पराक्रम प्रकट करते हैं। उत्तर पर्वत (हिमाचल प्रदेश) से आये हुए तीखे स्वभाव-वाले लुटेरे और डाकू इन हाथियों पर सवार हैं। ‘वे कर्कश स्वभाव वाले तथा श्रेष्ठ योद्धा हैं। उन्हेांने काले लोहे के बने हुए कवच धारण कर रखें हैं। उनमें से बहुत-से दस्यु गायों के पेट से उत्पन्न हुए हैं। कितने ही बंदरियों की संताने हैं। कुछ ऐसे भी हैं, जिनमें अनेक योनियों का सम्मिश्रण हैं तथा कितने ही मानव संतान भी हैं। ‘यहाँ एकत्र हुए हिमदुर्ग निवासी पापाचारी ग्लेच्छों की यह सेना धुएं के समान काली प्रतीत होती है।[2]
‘काल से प्रेरित हुआ दुर्योधन इन समस्त राजाओं के समुदाय को तथा रथियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भूरिश्रवा, जयद्रथ और कर्ण को पाकर पाण्डवों का अपमान करते हैं तथा अपने आप को कृतार्थ मान रहा है। ‘कुन्तीनन्दन! वे सब लोग आज मेरे नाराचों के लक्ष्य बने हुए हैं। वे मन के समान वेगशाली हो तो भी मेरे हाथों से छूट नहीं सकेगे। ‘दूसरों के बल पर जीने वाले दुर्योधन ने इन सब लोगों का सदा आदरपूर्वक भरण-पोषण किया हैं; परंतु ये मेरे बाण-समूहों से पीड़ित होकर आज विनष्ट हो जायंगें। ‘राजन! ये जो सोने की ध्वजा वाले रथी दिखायी देते हैं, ये दुर्वारण नाम वाले काम्बोज सैनिक हैं। आपने इनका नाम सुना होगा। ‘ये शूर, विद्वान तथा धनुर्वेद में परिनिष्ठित हैं। इनमें परस्पर बड़ा संगठन हैं। ये एक दूसरे का हित चाहने वाले हैं। ‘भरतनन्दन! दुर्योधन की क्रोध में भरी हुई ये कई अक्षौहिणी सेनाएं कौरव वीरों से सुरक्षित हो मेरे लिये तैयार खड़ी हैं। महाराज! ये सब सावधान होकर मुझ पर ही आक्रमण करने वाली हैं। ‘परंतु जैसे आग तिनकों को जला डालती हैं, उसी प्रकार मैं उन समझ कौरव-सेनिकों को मथ डालूंगा।
सात्यकि का अर्जुन के पास जाने की तैयारी
अत: राजन! रथ को सुसज्जित करने वाले लोग आज मेरे रथ पर यथावत रुप से भरे हुए तरकसों तथा अन्य सब आवश्यक उपकरणों को रख दें।। ‘इस संग्राम में नाना प्रकार के आयुधों का उसी प्रकार संग्रह कर लेना चाहियें, जैसा कि आचार्यो ने उपदेश किया है। रथ पर रखी जाने वाली युद्ध सामग्री पहले से पांच गुनी कर देनी चाहिये। ‘आज मैं विषधर सर्प के समान क्रूर स्वभाव वाले उन काम्बोज-सैनिकों के साथ युद्ध करुंगा, जो नाना प्रकार के शस्त्र समुदायों से सम्पन्न और भाँति-भाँति के आयुधों द्वारा युद्ध करने में कुशल हैं। ‘दुर्योधन का हित चाहने वाले और विष के समान घातक उन प्रहार कुशल किरात-योद्धाओं के साथ भी संग्राम करुंगा, जिनका राजा दुर्योधन ने सदा ही लालन-पालन किया है।। ‘प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी, दुर्घर्ष एवं इन्द्र के ‘राजन! इनके सिवा और भी जो नाना प्रकार के बहुसंख्यक युद्धदुर्भद, काल के तुल्य भयंकर तथा दुर्जय योद्धा हैं, रणक्षेत्र में उन सब का सामना करुंगा।‘इसलिये उत्तम लक्षणों से सम्पन्न श्रेष्ठ घोड़े, जो विश्राम कर चुके हों, जिन्हें टहलाया गया हों और पानी भी पिला दिया गया हों, पुन: मेरे रथ में जोते जायें।[4]
संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्तर राजा युधिष्ठिर ने सात्यकि के रथ पर भरे हुए सारे तरकसों, समस्त उपकरणों तथा भाँति-भाँति के शस्त्रों को रखवा दिया। तदन्तर सब प्रकार से सुशिक्षित उन चारों उत्तम घोड़ों को सेवकों ने मदमत बना देने वाला रसीला पेय पदार्थ पिलाया। जब वे पी चुके तो उन्हें टहलाया और नहलाया गया। उसके बाद दाना और चारा खिलाया गया। फिर उन्हें सब प्रकार से सुसज्जित किया गया। उनके अंगों में गड़े हुए बाण पहले ही निकाल दिये गये थे। वे चारों घोड़े सोने की मालाओं से विभूषित थे। उन योग्य अश्वों की कान्ति सुवर्ण के समान थी। वे सुशिक्षित और शीघ्रगामी थे। उनके मन में हर्ष और उत्साह था। तनिक भी व्यग्रता नहीं थी। उन्हें विधिपूर्वक सजाया गया था। स्वर्णमय अलंकारों से अलकृत उन अश्वों को सारथि ने रथ में जोता। वह रथ सुवर्णमय केशरो से सशोभित सिंह के चिह्न वाले विशाल ध्वज से सम्पन्न था। मणियों और मूंगों से चित्रित सोने की शलाकाओं से शोभायमान एवं श्वेत पताकाओं से अलंकृत था। उस रथ के उपर स्वर्णमय दण्ड से विभूषित छत्र सना हुआ था तथा रथ के भीतर नाना प्रकार के शस्त्र तथा अन्य आवश्यक सामान रखें गये थे।[4] जैसे मातलि इन्द्र का सारथि और सखा भी है, उसी प्रकार दारुक का छोटा भाई सात्यकि का सारथि और प्रिय सखा था। उसने सात्यकि को वह सूचना दी कि रथ जोतकर तैयार है।
सात्यकि का युद्ध के लिये प्रस्थान
तदनन्तर सात्यकि ने स्नान करके पवित्र हो यात्रा कालिक मंगलकृत्य सम्पन्न करने के पश्चात एक सहस्र स्त्रात को को सोने की मुद्राएं दान की। ब्राह्मणों के आशीर्वाद पाकर तेजस्वी पुरुषों में श्रेष्ठ एवं मधुषर्क के अधिकारी सात्यकि ने कैलातक नामक मधु का पान किया। उसे पीते ही उनकी आंखें लाल हो गयीं। मद से नेत्र चञ्चल हो उठे, फिर उन्होंने अत्यन्त हर्ष में भरकर वीर कांस्य पात्र का स्पर्श किया। उस समय प्रज्वलित अग्नि के समान रथियों में श्रेष्ठ सात्यकि का तेज दूना हो गया। उन्होंने बाण सहित धनुष को गोद में लेकर ब्रह्मणों के मुख से स्वस्ति वाचन का कार्य सम्पन्न कराकर कवच एवं आभूषण धारण किये, फिर कुमारी कन्याओं ने लावा, गन्ध तथा पुष्पमालाओं से उनका पूजन एंव अभिनन्दन किया। इसके बाद सात्यकि ने हाथ जोडकर युधिष्ठिर के चरणों में प्रणाम किया और युधिष्ठिर ने उनका मस्तक सूघां। फिर वे उस विशाल रथ पर आरुढ़ हो गये। तदनन्तर वे हष्ट-पुष्ट वायु के समान वेगशाली एवं अजेय सिंधु देशीय घोड़े मदमत हो उस विजयशील रथ को लेकर चल दिये।[5]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 112 श्लोक 1-18
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 112 श्लोक 19-38
- ↑ अञ्जन के कुल मे उत्पन्न हुए हाथियों का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है-
स्त्रिग्धनीलाम्बुदप्रख्या बलिनो विपुलै: करै:। सुविभक्तमहाशीर्षा करिणोअञ्जनवंशजा:
- ↑ 4.0 4.1 महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 112 श्लोक 39-57
- ↑ महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 112 श्लोक 58-78
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| द्रोणाचार्य द्वारा चेकितान की पराजय
| अर्जुन और सात्यकि के प्रति युधिष्ठिर की चिन्ता
| युधिष्ठिर का भीमसेन को अर्जुन और सात्यकि का पता लगाने के लिए भेजना
| भीमसेन का कौरव सेना में प्रवेश
| भीमसेन द्वारा द्रोणाचार्य के सारथि सहित रथ को चूर्ण करना
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के ग्यारह पुत्रों का वध
| भीमसेन का द्रोणाचार्य के रथ को आठ बार फेंकना
| भीमसेन की गर्जना सुनकर युधिष्ठिर का प्रसन्न होना
| भीमसेन और कर्ण का युद्ध तथा कर्ण की पराजय
| दुर्योधन का द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को द्यूत का परिणाम दिखाकर युद्ध हेतु वापस भेजना
| युधामन्यु तथा उत्तमौजा का दुर्योधन के साथ युद्ध
| भीमसेन द्वारा कर्ण की पराजय
| भीमसेन और कर्ण का घोर युद्ध
| भीमसेन द्वारा कर्ण के सारथि सहित रथ का विनाश
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्जय का वध
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्मुख का वध
| कर्ण-भीमसेन युद्ध में कर्ण का पलायन
| धृतराष्ट्र का खेदपूर्वक भीमसेन के बल का वर्णन और अपने पुत्रों की निन्दा
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के पाँच पुत्रों का वध
| भीमसेन और कर्ण का युद्ध तथा कर्ण का पलायन
| भीमसेन का पराक्रम तथा धृतराष्ट्र के सात पुत्रों का वध
| भीमसेन का कर्ण से युद्ध तथा दुर्योधन के सात भाइयों का वध
| भीमसेन और कर्ण का भयंकर युद्ध
| पहले भीम की और पीछे कर्ण की विजय
| अर्जुन के बाणों से व्यथित होकर कर्ण और अश्वत्थामा का पलायन
| सात्यकि द्वारा अलम्बुष का और दु:शासन के घोड़ों का वध
| सात्यकि का अद्भुत पराक्रम
| श्रीकृष्ण का अर्जुन को सात्यकि के आगमन की सूचना देना
| सात्यकि के आगमन से अर्जुन की चिन्ता
| भूरिश्रवा और सात्यकि का रोषपूर्ण सम्भाषण और युद्ध
| अर्जुन द्वारा भूरिश्रवा की भुजा का उच्छेद
| भूरिश्रवा का अर्जुन को उपालम्भ देना और अर्जुन का उत्तर
| भूरिश्रवा का आमरण अनशन
| सात्यकि द्वारा भूरिश्रवा का वध
| भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के अपमानित होने का कारण
| वृष्णिवंशी वीरों की प्रशंसा
| अर्जुन का जयद्रथ पर आक्रमण तथा दुर्योधन और कर्ण का वार्तालाप
| अर्जुन का कौरव योद्धाओं के साथ युद्ध
| कर्ण और अर्जुन का युद्ध तथा कर्ण की पराजय
| अर्जुन का अद्भुत पराक्रम
| अर्जुन द्वारा सिन्धुराज जयद्रथ का वध
| अर्जुन के बाणों से कृपाचार्य का मूर्छित होना तथा अर्जुन का खेद
| कर्ण और सात्यकि का युद्ध एवं कर्ण की पराजय
| अर्जुन का कर्ण को फटकारना और वृषसेन वध की प्रतिज्ञा
| श्रीकृष्ण का अर्जुन को प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर बधाई देना
| श्रीकृष्ण का अर्जुन को रणभूमि का दृश्य दिखाते हुए युधिष्ठिर के पास जाना
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को अर्जुन की विजय का समाचार सुनाना
| युधिष्ठिर द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति
| युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन, भीम एवं सात्यकि का अभिनन्दन
| दुर्योधन का व्याकुल होकर द्रोणाचार्य को उपालम्भ देना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को उत्तर और युद्ध के लिए प्रस्थान
| दुर्योधन और कर्ण की बातचीत तथा पुन: युद्ध का आरम्भ
घटोत्कचवध पर्व
कौरव-पांडव सेना का युद्ध
| दुर्योधन और युधिष्ठिर का संग्राम तथा दुर्योधन की पराजय
| रात्रियुद्ध में पांडव सैनिकों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| द्रोणाचार्य द्वारा शिबि का वध
| भीमसेन द्वारा ध्रुव, जयरात एवं कलिंग राजकुमार का वध
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्रपुत्र दुष्कर्ण और दुर्मद का वध
| सोमदत्त और सात्यकि का युद्ध तथा सोमदत्त की पराजय
| द्रोणाचार्य का पांडवों से घोर संग्राम
| घटोत्कच और अश्वत्थामा का युद्ध तथा अंजनपर्वा का वध
| अश्वत्थामा द्वारा एक अक्षौहिणी राक्षस सेना का संहार
| अश्वत्थामा का अद्भुत पराक्रम तथा द्रुपदपुत्रों का वध
| सोमदत्त की मूर्छा तथा भीमसेन द्वारा बाह्लीक का वध
| भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के दस पुत्रों और शकुनि के पाँच भाइयों का वध
| द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर के युद्ध में युधिष्ठिर की विजय
| दुर्योधन और कर्ण की बातचीत
| कृपाचार्य द्वारा कर्ण को फटकारना
| कर्ण द्वारा कृपाचार्य का अपमान
| अश्वत्थामा का कर्ण को मारने के लिये उद्यत होना
| पांडवों और पांचालों का कर्ण पर आक्रमण तथा कर्ण का पराक्रम
| अर्जुन द्वारा कर्ण की पराजय
| दुर्योधन का अश्वत्थामा से पांचालों के वध का अनुरोध
| अश्वत्थामा का दुर्योधन को उपालम्भपूर्ण आश्वासन तथा पांचालों से युद्ध
| अश्वत्थामा का धृष्टद्युम्न से युद्ध तथा उसका अद्भुत पराक्रम
| भीमसेन और अर्जुन का आक्रमण तथा कौरव सेना का पलायन
| सात्यकि द्वारा सोमदत्त का वध
| द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का युद्ध
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य से दूर रहने का आदेश
| कौरवों और पांडवों की सेनाओं में प्रदीपों का प्रकाश
| कौरवों और पांडवों की सेनाओं का घमासान युद्ध
| दुर्योधन का द्रोणाचार्य की रक्षा हेतु सैनिकों को आदेश
| कृतवर्मा द्वारा युधिष्ठिर की पराजय
| सात्यकि द्वारा भूरि का वध
| घटोत्कच और अश्वत्थामा का घोर युद्ध
| भीम और दुर्योधन का युद्ध तथा दुर्योधन का पलायन
| कर्ण द्वारा सहदेव की पराजय
| शल्य द्वारा विराट के भाई शतानीक का वध और विराट की पराजय
| अर्जुन से पराजित होकर अलम्बुष का पलायन
| शतानीक के द्वारा चित्रसेन की पराजय
| वृषसेन के द्वारा द्रुपद की पराजय
| प्रतिबिन्ध्य एवं दु:शासन का युद्ध
| नकुल के द्वारा शकुनि की पराजय
| शिखण्डी और कृपाचार्य का घोर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य से युद्ध
| धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुमसेन का वध
| सात्यकि और कर्ण का युद्ध
| कर्ण की दुर्योधन को सलाह
| शकुनि का पांडव सेना पर आक्रमण
| सात्यकि से दुर्योधन की पराजय
| अर्जुन से शकुनि और उलूक की पराजय
| धृष्टद्युम्न से कौरव सेना की पराजय
| दुर्योधन के उपालम्भ से द्रोणाचार्य और कर्ण का घोर युद्ध
| अर्जुन सहित भीमसेन का कौरवों पर आक्रमण
| कर्ण द्वारा धृष्टद्युम्न एवं पांचालों की पराजय
| कर्ण के पराक्रम से युधिष्ठिर की घबराहट
| श्रीकृष्ण और अर्जुन का घटोत्कच को कर्ण के साथ युद्ध हेतु भेजना
| घटोत्कच और जटासुरपुत्र अलम्बुष का घोर युद्ध
| घटोत्कच द्वारा जटासुरपुत्र अलम्बुष का वध
| घटोत्कच और उसके रथ आदि के स्वरूप का वर्णन
| कर्ण और घटोत्कच का घोर संग्राम
| अलायुध के स्वरूप और रथ आदि का वर्णन
| भीमसेन और अलायुध का घोर युद्ध
| घटोत्कच द्वारा अलायुध का वध और दुर्योधन का पश्चाताप
| कर्ण द्वारा इन्द्रप्रदत्त शक्ति से घटोत्कच का वध
| घटोत्कच वध से पांडवों का शोक तथा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता
| श्रीकृष्ण का अर्जुन को जरासंध आदि के वध करने का कारण बताना
| कर्ण द्वारा अर्जुन पर शक्ति न छोड़ने के रहस्य का वर्णन
| धृतराष्ट्र का पश्चाताप और संजय का उत्तर
| युधिष्ठिर का शोक और श्रीकृष्ण तथा व्यास द्वारा उसका निवारण
द्रोणवध पर्व
| अर्जुन के कहने से उभयपक्ष के सैनिकों का सो जाना
| उभयपक्ष के सैनिकों का चन्द्रोदय के बाद पुन: युद्ध में लग जाना
| दुर्योधन का उपालम्भ और द्रोणाचार्य का व्यंग्यपूर्ण उत्तर
| पांडव वीरों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| द्रुपद के पौत्रों तथा द्रुपद और विराट आदि का वध
| धृष्टद्युम्न की प्रतिज्ञा और दोनों दलों में घमासान युद्ध
| युद्धस्थल की भीषण अवस्था का वर्णन
| नकुल के द्वारा दुर्योधन की पराजय
| दु:शासन और सहदेव का घोर युद्ध
| कर्ण और भीमसेन का घोर युद्ध
| द्रोणाचार्य और अर्जुन का घोर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का दु:शासन को हराकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| दुर्योधन और सात्यकि का संवाद तथा युद्ध
| कर्ण और भीमसेन का संग्राम तथा अर्जुन का कौरवों पर आक्रमण
| द्रोणाचार्य का घोर कर्म
| ऋषियों का द्रोण को अस्त्र त्यागने का आदेश
| अश्वत्थामा की मृत्यु सुनकर द्रोण की जीवन से निराशा
| द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न का घोर युद्ध
| सात्यकि की शूरवीरता और प्रशंसा
| उभयपक्ष के श्रेष्ठ महारथियों का परस्पर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य पर आक्रमण और घोर युद्ध
| द्रोणाचार्य का अस्त्र त्यागकर योगधारणा द्वारा ब्रह्मलोक गमन
| धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य के मस्तक का उच्छेद
नारायणास्त्र-मोक्षपर्व
| कौरव सैनिकों तथा सेनापतियों का भागना
| कृपाचार्य का अश्वत्थामा को द्रोणवध का वृत्तान्त सुनाना
| धृतराष्ट्र का प्रश्न
| अश्वत्थामा के क्रोधपूर्ण उद्गार
| अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्राकट्य
| कौरव सेना का सिंहनाद सुनकर युधिष्ठिर का अर्जुन से कारण पूछना
| अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा के क्रोध एवं गुरुहत्या के भीषण परिणाम का वर्णन
| भीमसेन के वीरोचित उद्गार
| धृष्टद्युम्न के द्वारा अपने कृत्य का समर्थन
| सात्यकि और धृष्टद्युम्न का परस्पर क्रोधपूर्ण वाग्बाणों से लड़ना
| भीम, सहदेव तथा युधिष्ठिर द्वारा सात्यकि और धृष्टद्युम्न को लड़ने से रोकना
| अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्रयोग
| नारायणास्त्र के प्रयोग से युधिष्ठिर का खेद
| श्रीकृष्ण के बताये हुए उपाय से सैनिकों की रक्षा
| भीम का वीरोचित उद्गार और उन पर नारायणास्त्र का प्रबल आक्रमण
| श्रीकृष्ण का भीम को रथ से उतारकर नारायणास्त्र को शान्त करना
| अश्वत्थामा का पुन: नारायणास्त्र के प्रयोग में असमर्थता बताना
| अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न की पराजय
| सात्यकि का दुर्योधन, कृपाचार्य, कृतवर्मा, कर्ण और वृषसेन को भगाना
| सात्यकि का अश्वत्थामा से घोर युद्ध
| अश्वत्थामा द्वारा मालव, पौरव और चेदिदेश के युवराज का वध
| भीम और अश्वत्थामा का घोर युद्ध
| अश्वत्थामा के आग्नेयास्त्र से एक अक्षौहिणी पांडव सेना का संहार
| श्रीकृष्ण और अर्जुन पर आग्नेयास्त्र का प्रभाव न होने से अश्वत्थामा की चिन्ता
| व्यास का अश्वत्थामा को शिव और श्रीकृष्ण की महिमा बताना
| व्यास का अर्जुन से शिव की महिमा बताना
| द्रोण पर्व के पाठ और श्रवण का फल
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