सहज गीता -रामसुखदास पृ. 43

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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सातवाँ अध्याय

(ज्ञान विज्ञान योग)

[जैसे गेहूँ के खेत में भले ही गेहूँ का एक दाना भी न दीखे, केवल हरी घास दीखे, पर जानकार किसान को वह गेहूँ ही दिखायी देगा। शहर का अनजान आदमी तो कहेगा कि यह तो घास है, गेहूँ है ही नहीं, पर किसान कहेगा कि यह वह घास नहीं है, जो पशु खाया करते हैं, यह तो गेहूँ है। ऐसे ही संसारी आदमी को जो संसार रूप से दिखायी देता है, वही महात्मा को भगवद्-रूप से दिखायी देता है- ‘वासुदेवः सर्वम्’। तात्पर्य है कि जैसे खेत में पहले भी गेहूँ था, अंत में भी गेहूँ रहेगा; अतः बीच में हरी-हरी घास दीखने पर भी वह गेहूँ ही है, ऐसे ही संसार के पहले भी परमात्मा थे, अंत में भी परमात्मा ही रहेंगे; अतः बीच में सब कुछ परमात्मा ही हैं।]
संसारिक कामनाओं के कारण जिनका विवेक ढक गया है, ऐसे मनुष्य अपने स्वभाव के अधीन होकर कामनाओं की पूर्ति के लिए मेरी शरण न लेकर भिन्न-भिन्न देवताओं की शरण लेते हैं और कामना पूर्ति के लिए अनेक उपायों तथा नियमों को धारण करते हैं। परंतु मैं मनुष्यों को दी हुई स्वतंत्रता छीनता नहीं हूँ, अपितु जो मनुष्य जिस-जिस देवता का भक्त होकर श्रद्धापूर्वक उसका यजन-पूजन करना चाहता है, उस मनुष्य की श्रद्धा मैं उस-उस देवता के प्रति दृढ़ कर देता हूँ। मेरे द्वारा दृढ़ की हुई उस श्रद्धा से युक्त होकर वह मनुष्य सकामभाव से उस देवता की उपासना करता है और उसकी कामना पूरी भी होती है; परंतु वह कामना-पूर्ति वास्तव में मेरे द्वारा ही की हुई होती है। कारण कि वास्तव में देवताओं में भी मेरी ही शक्ति है और मेरे ही विधान से वे उसकी कामना पूर्ति करते हैं।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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