सहज गीता -रामसुखदास पृ. 29

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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पाँचवाँ अध्याय

(कर्म संन्यास योग)

चौथे अध्याय में ज्ञानयोग और कर्मयोग- दोनों की प्रशंसा सुनकर अर्जुन यह निर्णय नहीं कर सके कि इन दोनों में कौन सा साधन मेरे लिए श्रेष्ठ है। अतः इसका निर्णय कराने के उद्देश्य से अर्जुन पूछते हैं- हे कृष्ण! आप पहले कर्मों का त्याग करने की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। अतः इन दोनों में कोई एक साधन मेरे लिए कहिये, जो निश्चित रूप से कल्याण करनेवाला हो।
श्रीभगवान् बोले- यद्यपि ज्ञानयोग और कर्मयोग- दोनों ही कल्याण करने वाले हैं, तथापि उन दोनों में भी ज्ञानयोग से कर्मयोग श्रेष्ठ है। कारण कि हे महाबाहो! कर्मयोगी न किसी से द्वेष करता है और न किसी की कामना करता है, इसलिए उसको सदा ही संन्यासी समझना चाहिए; क्योंकि द्वंद्वों से अर्थात् राग द्वेष से रहित मनुष्य सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।
बेसमझ लोग ज्ञानयोग और कर्मयोग को अलग-अलग परिमाण वाले कहते है, बुद्धिमान् लोग नहीं; क्योंकि इन दोनों में से एक साधन में भी अच्छी तरह से स्थित होने पर मनुष्य दोनों के परिणामरूप तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर लेता है। जो तत्त्व ज्ञानयोगी प्राप्त करते हैं, वही तत्त्व कर्मयोगी भी प्राप्त करते हैं। अतः जो मनुष्य ज्ञानयोग और कर्मयोग को परिणाम में देखता है, वही ठीक देखता है। परंतु हे महाबाहो! कर्मयोग का साधन किये बिना ज्ञानयोग का सिद्ध होना कठिन है। अपने निष्कामभाव का और दूसरे के हित का मनन करने वाला कर्मयोगी शीघ्र ही परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर लेता है। जिसकी इन्द्रियाँ अपने वश में है, जिसका अंतःकरण निर्मल है, जिसका शरीर अपने वश में है और जिसको संपूर्ण प्राणियों के साथ अपनी एकता का अनुभव हो गया है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी कर्मों से नहीं बँधता।
सब क्रियाएँ प्रकृति में ही हो रही हैं, उन क्रियाओं का मेरे साथ कोई संबंध है ही नहीं- ऐसा विवेक जिसमें जाग्रत् हो गया है, वह ज्ञानयोग का साधक देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, सूँघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, ग्रहण करता हुआ, बोलता हुआ, मल-मूत्र का त्याग करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ तथा आँख खोलता और मूँदता हुआ भी ‘संपूर्ण क्रियाएँ इन्द्रियों के द्वारा इन्द्रियों के विषयों में ही हो रही हैं’- ऐसा समझकर ‘मैं स्वयं (स्वरूप से) कुछ भी नहीं करता हूँ’- ऐसा माने। तात्पर्य है कि शरीर के द्वारा क्रिया होने पर भी साधक की अपने सत्तामात्र स्वरूप पर दृष्टि रहनी चाहिए कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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