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पंद्रहवाँ अध्याय
(पुरुषोत्तम योग)
श्रीभगवान् बोले- यह संसार रूप पीपल का वृक्ष ऐसा विचित्र वृक्ष है कि इसका मूल (जड़) ऊपर है तथा शाखाएँ नीचे की ओर हैं! परमात्मा ही इस संसार वृक्ष के मूल (आधार, कारण) हैं और ब्रह्मा जी इसकी प्रधान शाखा हैं, जिनसे सृष्टि- रचना रूप अनेक शाखाएँ निकलती हैं। कल दिन तक भी स्थिर न रहने के कारण इसे ‘अश्वत्थ’ कहते हैं। इसके आदि- अन्त का पता न होने से तथा प्रवाहरूप से नित्य रहने के कारण इसे ‘अव्यय’ कहते हैं। वेदों में आये हुए सकाम अनुष्ठानों का वर्णन इस संसार वृक्ष के पत्ते कहे गये हैं। ऐसे संसार वृक्ष को जो यथार्थ रूप से जानता है, वही वास्तव में वेदों के तत्त्व को जानने वाला है।
इस संसार वृक्ष की सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों के द्वारा बढ़ी हुई शाखाएँ (प्राणी) नीचे, मध्य तथा ऊपर के सभी लोकों में फैली हुई हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध- ये पाँचों विषय उन शाखाओं की कोंपलों हैं। इन विषयों का चिन्तन करना ही नयी-नयी कोंपलों का निकलना है। मनुष्य लोक में कर्मानुसार बाँधने वाले तादात्म्य (मैं शरीर हूँ- ऐसा मानना), ममता और कामनारूप मूल नीचे और ऊपर सभी लोकों में व्याप्त हो रहे हैं। कारण कि मनुष्य शरीर में किए हुए कर्मों का फल ही सभी लोकों में भोगा जाता है।
इस संसार वृक्ष का जैसा सत्य, सुंदर तथा सुखदायी रूप देखने में आता है, वैसा रूप विचार करने पर मिलता नहीं। कारण कि इसका देशकाल की दृष्टि न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति (स्वतंत्र सत्ता) ही है। साधक को चाहिए कि वह पहले तादात्म्य, ममता और कामनारूप दृढ़ मूलों वालें इस संसार वृक्ष को असंगता (वैराग्य)- रूप शस्त्र के द्वारा काट दे अर्थात् उससे संबंध-विच्छेद कर ले। उसके बाद वह संसारवृक्ष के मूल उस परमपद परमात्मा की खोज करे, जो इस संपूर्ण सृष्टि के रचयिता हैं और जिसे प्राप्त होने पर मनुष्य फिर लौटकर संसार में नहीं आते। इसके लिए साधक उस आदिपुरुष परमात्मा के ही शरण हो जाय।
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