सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
सातवाँ अध्याय(ज्ञान विज्ञान योग)जैसे भगवान् की याद आने पर भक्त मस्त हो जाते हैं, ऐस ही भक्तों का प्रसंग, उनकी याद आने पर भगवान् भी मस्त हो गये और अर्जुन के बिना पूछे ही अपनी तरफ से बोलने लगे- हे पार्थ! अत्यधिक प्रेम के कारण मुझमें ही आसक्त मन वाले तथा मेरे ही आश्रित होकर मेरा भजन करते हुए तुम मेरे समग्ररूप को अर्थात् ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’- इसको जिस प्रकार से जान सकोगे, उसे मुझसे सुनो। उस समग्र रूप को जानने के लिए मैं तुम्हारे लिए यह ‘विज्ञानहित ज्ञान’[1]पूर्णरूप से कहूँगा, जिसे जानने के बाद फिर जानने योग्य कुछ भी बाकी नहीं रहेगा। कारण कि जब एक मेरे सिवाय कुछ है ही नहीं, तो फिर जानने योग्य क्या बाकी रहा? परंतु इस विज्ञानसहित ज्ञान को सब मनुष्य नहीं जानते; क्योंकि हजारों मनुष्यों में कोई एक ही मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है और उन यत्न करने वालों में जो मुक्त हो चुके हैं, उन महापुरुषों में भी कोई एक ही ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’- इस प्रकार मेरे समग्ररूप को यथार्थरूप से जानता है। |
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अध्याय | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ संसार भगवान् से ही उत्पन्न होता है और भगवान् में ही लीन होता है, ऐसा मानना ‘ज्ञान’ है। सब कुछ भगवान् ही हैं, स्वयं भगवान् ही सब कुछ बने हुए हैं, भगवान् के सिवाय और कुछ है ही नहीं, ऐसा अनुभव हो जाना ‘विज्ञान’ है। अतः अहम् सहित सब कुछ भगवान् ही हैं, यह ‘विज्ञानसहित ज्ञान’ है।
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