सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
छठा अध्याय(आत्म संयम योग)श्रीभगवान् बोले- जो संसार का अर्थात् वस्तु, व्यक्ति और क्रिया के आश्रय का त्याग करके कर्तव्य कर्म का पालन करता है, वही सच्चा संन्यासी तथा योगी है। केवल अग्नि का त्याग करने वाला सच्चा संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला सच्चा योगी नहीं होता। हे अर्जुन! लोग जिसे संन्यास (ज्ञानयोग) कहते हैं, उसी को तुम योग (कर्मयोग) समझो; क्योंकि दोनों में ही अपने संकल्प[1] का त्याग है। मनुष्य अपने संकल्प का त्याग किये बिना (नाशवान् पदार्थों के साथ संबंध रखते हुए) कोई सा भी योगी नहीं हो सकता। जो योग (समता)- को प्राप्त करना चाहता है, ऐसा मननशील योगी निष्कामभाव से कर्तव्य कर्म करेगा, तभी योग की प्राप्ति होगी; क्योंकि कर्तव्य कर्म किये बिना अर्थात् संसार से मिली वस्तु को संसार की सेवा में लगाये बिना वह योग (समता)- में स्थित नहीं हो सकता। योग में स्थित होने पर जो शान्ति मिलती है, उस शान्ति का भी सुख न लेने से साधक को परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। जिस समय मनुष्य न तो इंद्रियो के भोगों में आसक्त होता है और न कर्मों में ही आसक्त होता है और संपूर्ण संकल्पों का त्याग कर देता है, उस समय वह योग में स्थित कहा जाता है। |
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- ↑ मन में जो तरह-तरह की बातें आते हैं, उनमें से जिस बात के साथ मन चिपक जाता है, वह ‘संकल्प’ हो जाता है।
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