सहज गीता -रामसुखदास पृ. 33

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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छठा अध्याय

(आत्म संयम योग)

श्रीभगवान् बोले- जो संसार का अर्थात् वस्तु, व्यक्ति और क्रिया के आश्रय का त्याग करके कर्तव्य कर्म का पालन करता है, वही सच्चा संन्यासी तथा योगी है। केवल अग्नि का त्याग करने वाला सच्चा संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला सच्चा योगी नहीं होता। हे अर्जुन! लोग जिसे संन्यास (ज्ञानयोग) कहते हैं, उसी को तुम योग (कर्मयोग) समझो; क्योंकि दोनों में ही अपने संकल्प[1] का त्याग है। मनुष्य अपने संकल्प का त्याग किये बिना (नाशवान् पदार्थों के साथ संबंध रखते हुए) कोई सा भी योगी नहीं हो सकता। जो योग (समता)- को प्राप्त करना चाहता है, ऐसा मननशील योगी निष्कामभाव से कर्तव्य कर्म करेगा, तभी योग की प्राप्ति होगी; क्योंकि कर्तव्य कर्म किये बिना अर्थात् संसार से मिली वस्तु को संसार की सेवा में लगाये बिना वह योग (समता)- में स्थित नहीं हो सकता। योग में स्थित होने पर जो शान्ति मिलती है, उस शान्ति का भी सुख न लेने से साधक को परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। जिस समय मनुष्य न तो इंद्रियो के भोगों में आसक्त होता है और न कर्मों में ही आसक्त होता है और संपूर्ण संकल्पों का त्याग कर देता है, उस समय वह योग में स्थित कहा जाता है।
मनुष्य अपने उद्धार और पतन में स्वयं ही कारण होता है, दूसरा कोई नहीं। इसलिए मनुष्य अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है। जिसने अपने-आप से अपने आपको जीत लिया है अर्थात् अपने सिवाय दूसरे सब नाशवान् पदार्थों के आश्रय का त्याग कर दिया है, वह आप ही अपना मित्र है। परंतु जिसने अपने-आपको नहीं जीता है अर्थात् अपने लिए नाशवान् पदार्थों की आवश्यकता मानता है, वह आप ही अपना शत्रु है।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104
  1. मन में जो तरह-तरह की बातें आते हैं, उनमें से जिस बात के साथ मन चिपक जाता है, वह ‘संकल्प’ हो जाता है।

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