सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
बारहवाँ अध्याय(भक्ति योग)भगवान् के मुख से भक्ति की महिमा सुनकर अर्जुन बोले- अभी आपने जैसा कहा है, जो भक्त निरंतर आप में लगे रहकर आप (सगुण-साकार)- की उपासना करते है और जो आपके अक्षर अव्यक्त रूप (निर्गुण-निराकार)- की उपासना करते हैं, उन दोनों प्रकार के उपासकों में कौन से उपासक श्रेष्ठ हैं? श्रीभगवान् बोले- मुझमें मन को लगाकर 'मैं भगवान् का ही हूँ तथा भगवान् ही मेरे हैं- इस प्रकार नित्य-निरंतर मुझमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धा के साथ मेरी (सगुण साकार)- की उपासना करते हैं, उन्हें मैं सर्वश्रेष्ठ योगी (उपासक) मानता हूँ। प्राणिमात्र के हित में लगे हुए और सब जगह समबुद्धि रखवाले जो निर्गुणोपासक अपनी इन्द्रियों को वश में करके चिन्तन न आने वाले, सह जगह परिपूर्ण, देखने में न आने वाले, निर्विकार, अचल, ध्रुव, अक्षर तथा अव्यक्त की उपासना करते हैं, वे भी मुझे ही प्राप्त होते हैं; क्योंकि निर्गुण-निराकार रूप भी मेरा ही है, मेरे समग्ररूप से अलग नहीं है। परंतु वैराग्य की कमी तथा देहाभिमान के कारण जिनका चित्त निर्गुण-तत्त्व में तल्लीन नहीं हुआ है, ऐसे साधकों को निर्गुणोपासना में कष्ट अधिक होता है; क्योंकि देहाभिमान के कारण निर्गुणोपासकों को अपनी साधना में अधिक कठिनाई होती है। परंतु हे पार्थ! जो संपूर्ण कर्मों को मेरे अर्पण करके और मेरे परायण होकर अनन्यभाव से मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं, उन मुझमें तल्लीन चित्तवाले भक्तों का मैं स्वयं मृत्युरूप संसार-समुद्र से शीघ्र ही उद्धार कर देता हूँ। इसलिए तुम अपने मन बुद्धि को मुझमें ही लगा दो, फिर तुम मुझमें ही निवास करोगे, इसमें संशय नहीं है।' |
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- ↑ किसी लक्ष्य पर चित्त को बार-बार लगाने का नाम 'अभ्यास' है और समता का नाम 'योग' है। समता रखते हुए अभ्यास करना ही 'अभ्यासयोग' कहलाता है। केवल भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से किया गया भजन, नामजप आदि 'अभ्यासयोग' है।
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