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चौदहवाँ अध्याय
(गुणत्रयविभाग योग)
जीव को दो चीजों से बंधन होता है- प्रकृति से और प्रकृति के कार्य सत्त्व-रज-तम तीनों गुणों से। प्रकृति के बंधन से छूटने के लिए भगवान् ने तेरहवें अध्याय का विषय बता दिया। अब भगवान् गुणों के बंधन से छूटने के लिए चौदहवें अध्याय का विषय आरंभ करते हैं। श्रीभगवान् बोले- लौकिक पारलौकिक संपूर्ण ज्ञानों में जो सबसे उत्तम और श्रेष्ठ ज्ञान है, उसे मैं तुमसे पुनः कहूँगा। उस ज्ञान को प्राप्त करने वाले सब के सब मुनिलोग इस संसार से मुक्त होकर परमात्मा को प्राप्त हो गये हैं। उस ज्ञान का अनुभव करके जो ज्ञानी महापुरुष मेरे समान सच्चिदानंद-स्वरूप हो जाते हैं, वे महासर्ग में भी उत्पन्न नहीं होते और महाप्रलय में भी दुखी नहीं होते अर्थात् वे जन्म-मरण से सदा के लिए छूट जाते हैं।
हे भारत! मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्ति स्थान है और मैं उसमें अपने अंश जीव (चेतन)- रूप गर्भ की स्थापना करता हूँ, जिससे संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार हे कुन्तीनन्दन! संपूर्ण योनियों में प्राणियों के जितने भी शरीर उत्पन्न होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं उसमें जीवरूप बीज की स्थापना करने वाला पिता हूँ।
हे महाबाहो! सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। परंतु प्रकृति के कार्य शरीर से अपना संबंध (मैं-मेरापन) मान लेने के कारण ये गुण अविनाशी जीवात्मा को नाशवान् जड़ शरीर में बाँध देते हैं। हे निष्पाप अर्जुन! उन तीनों गुणों में ‘सत्त्वगुण’ निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण रजोगुण-तमोगुण की अपेक्षा प्रकाशक और निर्विकार है। वह सात्त्विक सुख और सात्त्विक ज्ञान की आसक्ति से जीवात्मा को बाँध देता है अर्थात् उसे गुणातीत नहीं होने देता। हे कौन्तेय! तृष्णा और आसक्ति को उत्पन्न करने वाले ‘रजोगुण’ को तुम राग-स्वरूप समझो। वह कर्मों की आसक्ति से जीवात्मा को बाँधता है। और हे भारत! तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है तथा संपूर्ण मनुष्यों को मोहित करता है अर्थात उनमें विवेक नहीं होने देता। वह प्रमाद[1], आलस्य तथा निद्रा के द्वारा जीवात्मा को शरीर में बाँध देता है अर्थात् उसकी लौकिक-पारलौकिक उन्नति नहीं होने देता।
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