सहज गीता -रामसुखदास पृ. 28

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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चौथा अध्याय

(ज्ञान कर्म संन्यास योग)

जिसकी इन्द्रियाँ पूरी तरह वश में हैं और जो अपने साधन मे तत्परतापूर्वक लगा हुआ है, ऐसे श्रद्धावान् मनुष्य को ही ज्ञान प्राप्त होता है। श्रद्धा में कमी होने से ही ज्ञान होने में देरी लगती है। ज्ञान प्राप्त होने पर तत्काल परम शान्ति की प्राप्ति हो जाती है। परंतु जो विवेकहीन और श्रद्धारहित है अर्थात् जो न तो खुद जानता है और न दूसरे की बात ही मानता है, ऐसे संशयात्मा मनुष्य का पारमार्थिक मार्ग से पतन हो जाता है। उसका न तो इस लोक में भला होता है, न परलोक में ही भला होता है और न उसके मन में सुख शान्ति ही रहती है।
हे धनंजय! योग (समता)- के द्वारा जिसका संपूर्ण कर्मों से संबंध विच्छेद हो गया है और विवेकज्ञान के द्वारा जिसके संपूर्ण संशयों का नाश हो गया है, उस कर्मयोगी को कर्म नहीं बाँधते; क्योंकि वह अपने लिए कोई कर्म करता ही नहीं। इसलिए हे भरवंशी अर्जुन! हृदय में स्थित इस अज्ञान से उत्पन्न अपने संशय का (कि युद्धरूप घोर कर्म से मेरा कल्याण कैसे होगा?) ज्ञानरूप तलवार से छेदन करके तुम योग (समता)- में स्थित हो जाओ और युद्ध के लिए खड़े हो जाओ। योग में स्थित होकर युद्ध करने से तुम्हें पाप नहीं लगेगा तथा तुम्हारा कल्याण भी जायेगा।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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