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सातवाँ अध्याय
(ज्ञान विज्ञान योग)
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! नामजप, कीर्तन आदि भगवत्संबंधी कर्म करने वाले ये चार प्रकार के भक्त मेरे शरण होते हैं-
- अर्थार्थी- जिनमें कभी कोई न्याययुक्त इच्छा उप्तन्न हो जाती है तो वे उसे केवल भगवान् से ही पूरी कराना चाहते हैं, दूसरे से नहीं, ऐसे भक्त ‘अर्थार्थी’ कहलाते हैं।
- आर्त- कोई संकट आने पर जो दुखी होकर भगवान् को पुकारते हैं और उन्हीं से अपना दुख दूर कराना चाहते हैं, ऐसे भक्त ‘आर्त’ कहलाते हैं।
- जिज्ञासु- दो विज्ञानसहित ज्ञान का अर्थात् भगवान् के समग्ररूप को केवल भगवान् से ही जानना चाहते हैं, ऐसे भक्त ‘जिज्ञासु’ कहलाते हैं।
- ज्ञानी- जिन्हें ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’- इस प्रकार भगवान् के समग्ररूप का ज्ञान हो गया है, जिनमें किंचिन्मात्र भी कोई इच्छा नहीं होती और जो केवल भगवान् के प्रेम में ही मस्त रहते हैं, ऐसे भक्त ‘ज्ञानी’ अर्थात् ‘प्रेमी’ कहलाते हैं।
इन चारों भक्तों में मुझमें निरंतर लगा हुआ अनन्य भक्तिवाला ‘ज्ञानी’ अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है। कारण कि अर्थार्थी में धन की भी इच्छा है, आर्त में दुख दूर करने की भी इच्छा है और जिज्ञासु में तत्त्व को जानने की भी इच्छा है, पर ज्ञानी में किसी भी तरह की कोई इच्छा नहीं है। इसलिए उस ज्ञानी भक्त को मैं अत्यंत प्रिय हूँ और वह भी मुझे अत्यंत प्रिय है।
यद्यपि अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी- या चारों ही भक्त बड़े उदार (श्रेष्ठ भाववाले) हैं, तथापि ज्ञानी (प्रेमी) तो मेरा स्वरूप ही है- ऐसा मेरा मत है। कारण कि वह मुझसे अभिन्न है और जिससे दूसरा कोई प्रापणीय तत्त्व नहीं है, ऐसे सर्वोपरि मुझमें ही उसकी दृढ़ स्थिति है। संपूर्ण जन्मों के अंतिम इस मनुष्यजन्म में जिसे ‘वासुदेवः सर्वम्’ अर्थात् ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’, ऐसा अनुभव हो गया है, ऐसा भक्त ही सच्चा ‘ज्ञानी’ तथा ‘महात्मा’ है। उसकी दृष्टि में एक भगवान् के सिवाय कोई दूसरी सत्ता होती ही नहीं- यह उसकी शरणागति है। ऐसा महात्मा भक्त संसार में अत्यंत ही दुर्लभ है।
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