सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय(सांख्य योग)हे धनंजय! तुम आसक्ति का त्याग करके कर्मों की सिद्धि अथवा असिद्धि में सम हो जाओ। फिर उस समता में हरदम स्थित रहते हुए ही कर्तव्य कर्म को करो। इस समता को ही ‘योग’ कहा जाता है। संपूर्ण कर्मों में समता ही श्रेष्ठ है। समता की अपेक्षा सकामभाव से कर्म करना अत्यंत ही निकृष्ट (नीचा) है। कारण कि समता तो परमात्मा की प्राप्ति कराने वाली है, पर सकामकर्म जन्म-मरण देने वाला है। इसलिए हे धनंजय! तुम निरंतर समता में ही स्थित रहो; क्योंकि कर्म, कर्मफल और शरीरादि से संबंध जोड़ने वाले अत्यंत निकृष्ट हैं। समता में स्थित रहने वाला मनुष्य जीवित-अवस्था में ही पाप-पुण्य से रहित हो जाता है। इसलिए तुम समता मं स्थित हो जाओ; क्योंकि कर्मों में योग ही कुशलता है अर्थात् कर्मों की सिद्धि असिद्धि में और उनके फल की प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना ही कर्मों में कुशलता है, बुद्धमानी है। कर्मों का महत्त्व नहीं है, अपितु योग (समता) का ही महत्त्व है। कारण कि समता वाला बुद्धिमान साधक संसार से असंग होकर जन्म-मरण रूप बंधन से सदा के लिए मुक्त होकर परमपद को प्राप्त हो जाता है।
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