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दूसरा अध्याय
(सांख्य योग)
(दूसरे प्रश्न का उत्तर-) कितने ही दुख आने पर जिसके मन में हलचल नहीं होती और कितना ही सुख मिलने पर जिसके मन में ‘ऐसा सुख बना रहे और मिलता भी रहे’- ऐसी स्पृहा नहीं होती तथा जो राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है, वह मननशील पुरुष स्थिर बुद्धि कहलाता है। जिसकी कहीं भी आसक्ति नहीं है और जो अनुकूल परिस्थिति आने पर प्रसन्न तथा प्रतिकूल परिस्थिति आने पर दुखी नहीं होता, उसकी बुद्धि स्थिर है।
(तीसरे प्रश्न का उत्तर-) जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, उसी प्रकार जब कर्मयोगी अपनी संपूर्ण इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। परंतु इन्द्रियों का विषयों से हट जाना ही स्थितप्रज्ञ का लक्षण नहीं है। कारण कि इन्द्रियों को विषयों से हटाने पर भी साधक की भोगों में रसबुद्धि (सूक्ष्म आसक्ति) बनी रहती है। परंतु परमात्मतत्त्व का अनुभव होने पर स्थितप्रज्ञ मनुष्य की भोगों की रसबुद्धि सर्वथा निवृत्त हो जाती है। कारण कि रसबुद्धि रहने से विद्वान् मनुष्य की भी प्रथमनशील इन्द्रियाँ उसके मन की जबर्दस्ती विषयों की तरफ खींच ले जाती हैं। इसलिए कर्मयोगी साधक अपनी इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण हो जाय; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है। मेरे परायण न होने से विषयों का चिन्तन होता है। विषयों का चिन्तन होने से उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना में बाधा लगने पर क्रोध पैदा होता है। क्रोध से मूढ़ता छा जाती है। मूढ़ता छा जाने से ‘मुझे अपना कल्याण करना है’, यह स्मृति नष्ट हो जाती है। स्मृति नष्ट होने पर बुद्धि में प्रकट होने वाला विवेक लुप्त हो जाता है अर्थात् मनुष्य में नया विचार करने की शक्ति नहीं रहती। विवेक लुप्त होने पर मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है। इस प्रकार विषयभोगों को भोगना तो दूर रहा, उनका रागपूर्वक चिन्तन करने मात्र से मनुष्य पतन की ओर चला जाता है।
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