सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
दूसरा अध्याय(सांख्य योग)हे कुरुनन्दन! समता परमात्मा का स्वरूप है। उस परमात्मा को प्राप्त करने का जो एक निश्चय है, उसका नाम है- व्यवसायात्मिका अर्थात् एक निश्चयवाली बुद्धि। यह बुद्धि एक ही होती है। परंतु जिनका एक निश्चय नहीं होता, उनमें कामना के कारण अनन्त बुद्धियाँ होती हैं। ऐसे मनुष्य कामनाओं में ही रचे-पचे रहते हैं। वे स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानते हैं और वेदों का तात्पर्य केवल भोगों की तथा स्वर्ग की प्राप्ति में मानते हैं। वे वेदों की उसी वाणी की महिमा गाया करते हैं, जिसमें संसार तथा उसके भोगों का वर्णन है और जो जन्म-मरण देने वाली है। ऐसी वाणी से जिसका चित्त भोगों की तरफ खिंच गया है और जो सांसारिक भोग भोगने तथा संग्रह करने में ही आसक्त हैं, ऐसे मनुष्य परमात्मराप्ति करना तो दूर रहा, परमात्मप्राप्ति का एक निश्चय भी नहीं कर सकते। इसलिए हे अर्जुन! तुम सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों के कार्यरूप संसार की कामना का त्याग करके संसार से ऊँचा उठ जाओ,
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अध्याय | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है।
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