सहज गीता -रामसुखदास पृ. 11

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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दूसरा अध्याय

(सांख्य योग)

हे कुरुनन्दन! समता परमात्मा का स्वरूप है। उस परमात्मा को प्राप्त करने का जो एक निश्चय है, उसका नाम है- व्यवसायात्मिका अर्थात् एक निश्चयवाली बुद्धि। यह बुद्धि एक ही होती है। परंतु जिनका एक निश्चय नहीं होता, उनमें कामना के कारण अनन्त बुद्धियाँ होती हैं। ऐसे मनुष्य कामनाओं में ही रचे-पचे रहते हैं। वे स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानते हैं और वेदों का तात्पर्य केवल भोगों की तथा स्वर्ग की प्राप्ति में मानते हैं। वे वेदों की उसी वाणी की महिमा गाया करते हैं, जिसमें संसार तथा उसके भोगों का वर्णन है और जो जन्म-मरण देने वाली है। ऐसी वाणी से जिसका चित्त भोगों की तरफ खिंच गया है और जो सांसारिक भोग भोगने तथा संग्रह करने में ही आसक्त हैं, ऐसे मनुष्य परमात्मराप्ति करना तो दूर रहा, परमात्मप्राप्ति का एक निश्चय भी नहीं कर सकते। इसलिए हे अर्जुन! तुम सत्त्व, रज और तम- इन तीनों गुणों के कार्यरूप संसार की कामना का त्याग करके संसार से ऊँचा उठ जाओ,
राग-द्वेषादि द्वन्द्वों से रहित हो जाओ, नित्य-निरन्तर रहने वाले परमात्मतत्त्व में स्थित हो जाओ, योगक्षेम[1] की इच्छा भी मत रखो और केवल परमात्मा के ही परायण हो जाओ। इसका परिणाम यह होगा कि जैसे बड़ा सरोवर मिल जाने के बाद मनुष्य को छोटे गड्ढों में भरे जल की जरूरत नहीं रहती, ऐसे ही परमात्मतत्त्व को जानने वाले ब्रह्मज्ञानी को वेदों में वर्णित पुण्यकर्मों की कोई जरूरत नहीं रहती।
प्राप्त कर्तव्य कराम करने में ही तुम्हारा अधिकार है अर्थात् कर्म करने में तुम स्वतंत्र हो। परंतु कर्म के फल में तुम्हारा किंचिन्मात्र भी अधिकार नहीं है अर्थात् इसमें तुम स्वतंत्र नहीं हो। इसलिए कर्म न करने (प्रमाद, आलस्य आदि)- में तुम्हारी आसक्ति नहीं होनी चाहिए और तुम्हें शरीरादि कर्म-सामग्री में ममता करके कर्मफल का हेतु भी नहीं बनना चाहिए। तात्पर्य है कि ‘करना’ मनुष्य के अधीन है और ‘होना’ प्रारब्ध के अधीन है। इसलिए मनुष्य को करने में सावधान और होने में प्रसन्न रहना चाहिए।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104
  1. अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है और प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है।

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