श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम् ॥41॥
जो-जो भी विभूतिमान्, श्रीमान् और ऊर्जित है, उस-उसको तू मेरे ही तेज के अंश के उत्पन्न हुआ जान।। 41।।
यद् यद् विभूतिमद् ईशितव्यसम्पन्नं भूतजातं श्रीमत् कान्तिमद् धनधान्य समृद्धं वा ऊर्जितं कल्याणारम्भेषु उद्युक्तं तत् तद् मम तेजोंऽशसम्भवम् इति अवगच्छ।
जो-जो विभूतियुक्त-शासन-शक्ति से युक्त भूतसमुदाय है, अथवा श्रीमान-कान्तिमान धन-धान्य से समृद्ध है या ऊर्जित-कल्याण प्राप्ति के उद्योग में संलग्न है, उस-उसको तू मेरे तेज के अंश की अभिव्यक्ति समझ।
तेजः पराभिभवनसामर्थयम्, मम अचिन्त्यशक्तेः नियमनशक्त्या एकदेशसम्भवम् इत्यर्थः।। 41।।
दूसरों को पराभूत करने की सामर्थ्य का नाम तेज है। अतः यह अभिप्राय है कि उसे तू मुझ अचिन्त्यशक्ति परमेश्वर की नियमनशक्ति के एक अंश की अभिव्यक्ति समझ।।41।।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥42॥
अथवा अर्जुन! इस बहुत जानने से तुझे क्या (प्रयोजन) है? इस सम्पूर्ण जगत् को मैं (अजने) एक अंश से धारण करके स्थित हूँ।। 42।।
ऊँ तत्सदित श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूति योग ो
नम दशमोअध्यायः ।। 10।।
बहुना एतेन उच्यमानेन ज्ञानेन किं प्रयोजनम्? इदं चिदचिदात्मकं कृत्स्त्रं जगत् कार्यावस्थं कारणावस्थं स्थूलं सूक्ष्मं च स्वरूपसद्धावे स्थितौ प्रवृत्तिभेदे च यथा मत्संकल्पं न अतिवर्तेत तथा मम महिग्नः अयुतायुतांशेन विष्टभ्य अहम् अवस्थितः। यथा उक्तं भगवता पराशरेण- ‘यस्यायुतायुतांशाशे विश्वशक्तिरियं स्थिता।’ [1]इति ।। 42।।
इस बतलाये जाने वाले बहुतेरे ज्ञान से तुझे क्या प्रयोजन क्या है? कारणरूप में स्थित हुआ यह जड-चेतनरूप के सद्भाव में, स्थिति में तथा प्रवृत्ति भेद में भी जिस प्रकार मेरे संकल्प का उल्लंघन न कर सके उस प्रकार मैं अपनी महिमा के सके, उस प्रकार मैं अपनी महिमा के हजारों, लाखों अंशों के एक अंश मात्र से इसे धारण करके स्थित हुँ। जैसे कि भगवान पराशर जी ने कहा है- 'जिसके दस हजार भाग करने पर बचे हुए अंशमात्र में समस्त विश्वशक्ति स्थित है' ॥42॥
इति श्रीमद्भगवद्रामानुजाचार्य विरचिते श्रीमद्भागवद्गीताभाष्ये दशमोअध्यायः।। 10।।
इस प्रकार श्रीमान भगवान रामानुजाचार्य- द्वारा रचित श्रीमद्भागवद्गीताभाष्य के हिन्दी-भाषानुवाद दसवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥10॥
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