श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
नवाँ अध्याय
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥39॥
अर्जुन! जो भी सारे भूतों का बीज है, वह मैं हूँ, ऐसा कोई भी चराचर पदार्थ नहीं है, जो मेरे बिना हो ।। 39।।
सर्वभूतानां सर्वावस्थावस्थितानां तत्तदवस्थाबीजभूतं प्रतीयमानम् अप्रतीयमानं च यत् तद् अहम् एव। चराचरसर्वभूतजातं मया आत्मतया अवस्थितेन विना यत् स्यात् न तद् अस्ति; ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।’ [1] इति प्रक्रमात्; ‘न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।’ इति अत्र अपि आत्मतया अवस्थानम् एव विवक्षितम्।
विभिन्न प्रकार की सब अवस्थाओं में स्थित सम्पूर्ण भूतों की उन-उन अवस्थाओं का जो व्यक्त या अव्यक्त बीज है, वह मै ही हूँ। सम्पूर्ण चराचर भूत समुदाय, जो आत्मारूप से मुझ परमेश्वर के स्थित हुए बिना ही रह सके, ऐसा नहीं है, क्योंकि आरम्भ में ‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।’ यह बात कही गयी है। इसलिये यहाँ ‘न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्’ इस कथन में भी आत्मारूप से स्थित होना ही विवक्षित है।
सर्ववस्तुजातं सर्वावस्थं मया आत्मभूतेन युक्तं स्याद् इत्यर्थः। अनेन सर्वस्य अस्य सामनाधिकरण्यनिर्देशस्य आत्मतया अवस्थितिः एव हेतुः इति प्रकटयति।। 39।।
अभिप्राय यह है कि सभी अवस्थाओं में स्थित सम्पूर्ण वस्तुमात्र उनके आत्मरूप मुझ परमेश्वर से युक्त है। इस वर्णन से यह बात प्रकट करते हैं कि इस सम्पूर्ण समानाधिकरता के वर्णन का कारण भगवान् का आत्मस्वरूप से स्थित होना ही है।। 39।।
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप ।
एष तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥40॥
परंतप अर्जुन! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है, यह विभूतियों का विस्तार तो मेरे द्वार संक्षेप से कहा गया है।। 40।।
मम दिव्यानां कल्याणीनां विभूती नाम् अन्तो न अस्ति। एष तु विभूतेः विस्तरो मया कैश्चिद् उपाधिभिः सङ्क्षेपतः प्रोक्तः।। 40।।
मेरी दिव्य- कल्याणमयी विभूतियों का अन्त नहीं है। यह कितनी उपाधियों से युक्त मेरी विभूतियों का विस्तार तो मैंने तुझे संक्षेप से बतलाया है।। 40।।
|