श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
मध्यम षट्क
सातवाँ अध्याय
नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढ़ोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥25॥
योगमाया से ढका हुआ मैं सबके लिये प्रत्यक्ष नहीं हूँ। मैं सबके लिये प्रत्यक्ष नहीं हूँ। (इसी से) यह मूढ़ जगत् मुझ अजन्मा और अविनाशी को नहीं जानता है।। 25।।
क्षेत्रज्ञासाधारणमनुष्यत्वादिसंस्थानयोगाख्यमायया समावृतः अहं न सर्वस्य प्रकाशः। मयि मनुष्यत्वादिसंस्थानदर्शनमात्रेण मूढः अयं लोको माम् अतिवाय्विन्द्रकर्माणम् अतिसूर्याग्नितेजसम् उपलभ्यमानम् अपि अजम् अव्ययं निखिलजगदेककारणं सर्वेश्वरं मां सर्वसमाश्रयणीयत्वाय मनुष्यत्वसंस्थानम् आस्थितं न अभिजानाति।। 25।।
अन्य जीवों से विलक्षण मनुष्यादि शरीरों की हेतुरूप जो ‘योग’ नामक माया है, उस योगमाया से भलीभाँति ढका हुआ मैं सबके लिये प्रत्यक्ष नहीं हूँ। मुझमें मनुष्यादि की आकृति को देखकर ही जिनकी बुद्धि मोहित हो गयी है ऐसा यह मूढ़ मनुष्य समुदाय मैं जो इन्द्र और वायु से बढ़कर कर्म करने वाला, तथा अग्नि और सूर्य से बढ़कर तेज वाला, सबके सामने प्रकट हूँ, ऐसे अजन्मा, अविनाशी, समस्त जगत् के एकमात्र कारण और सबको समाश्रय प्रदान करने के लिये मनुष्य में स्थित मुझ सर्वेश्वर को नहीं जानता ।। 25।।
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥26॥
अर्जुन! मैं बीत गये हुए, वर्तमान और भविष्य में होने वाले सब भूतों को जानता हूँ; पर मुझको कोई नहीं जानता ।। 26।।
अतीतानि वर्तमानानि अनागतानि च सर्वाणि भूतानि अहं वेद जानामि मां तु वेद न कंचन। मया अनुसन्धीयमानेषु कालत्रयवर्तिषु भूतेषु माम् एवंविधं वासुदेवं सर्वसमाश्रयणीयतया अवतीर्ण विदित्वा माम् एव समाश्रयम् न कश्चिद् उपलभ्यत इत्यर्थः। अतो ज्ञानी सुदलुभ एव।। 26।।
जो प्राणी अतीत हो गये हैं, जो वर्तमान हैं और जो होने वाले हैं, उन सबको मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको कोई नहीं जानता। अभिप्राय यह है कि मैं सदा जिनकी खोज-खबर रखता हूँ, उन त्रिकालवर्ती प्राणियों में से कोई भी ऐसे प्रभाव वाले मुझ वासुदेव को सबको समाश्रय प्रदान करने के लिये अवतीर्ण हुआ समझकर, मेरी शरण ग्रहण करने वाला नहीं उपलब्ध होता। इसीलिये ज्ञानी बहुत दुर्लभ है।। 26।।
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