श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
हे पार्थ! सुनो, भेद के आधार पर जो ज्ञान अपने कदम आगे बढ़ाता है, उस ज्ञान को राजस ज्ञान कहते हैं। स्वयं भेदभाव से भूतमात्र के अनगिनत भेद करके तथा ज्ञाता को ही धोखे में डालकर जो ज्ञान विचित्रता उत्पन्न करता है, जो ज्ञान वास्तविक आत्मज्ञान के क्षेत्र के बाहर मिथ्या मोहरूपी खंदक में जीव को ठीक वैसे ही जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं का खेल दिखलाता है, जैसे प्रत्यक्ष दृष्टिगत होने वाली वस्तु पर विस्मृति का परदा डालकर निद्रा व्यक्ति को स्वप्न की व्यर्थ की चिन्ताओं का अनुभव कराती है, जिस ज्ञान के कारण नाम तथा रूप की ओट में छिपा हुआ अद्वैत तत्त्व वैसे ही दृष्टिगोचर नहीं होता, जैसे आभूषण की ओट में छिपा हुआ स्वर्ण किसी बालक को दृष्टिगत नहीं होता, जिस ज्ञान के कारण अद्वैत तत्त्व का वैसे ही पता नहीं लगने पाता, जैसे घट के रूप में दृष्टिगत होने वाली मृत्तिका अज्ञानियों को दृष्टिगत नहीं होती अथवा दीपक की भावना होने के कारण उसमें विद्यमान अग्नि का ज्ञान नहीं होता अथवा किसी चीज का नाम वस्त्र पड़ जाने के कारण अज्ञानियों को उसके सूत का ज्ञान नहीं होता, जिस ज्ञान के कारण जीवमात्र भिन्न-भिन्न दृष्टिगोचर होने लगते हैं और ऐक्य बुद्धि नष्ट हो जाती है और तब जैसे ईंधन के कारण अग्नि पर, पुष्पों के कारण सुगन्ध पर अथवा लहरों के कारण पूर्ण चन्द्रमा पर भेदभाव का आरोप किया जाता है, ठीक वैसे ही जो ज्ञान तरह-तरह के पदार्थों का भेद करके उनके रूपों तथा आकारों के अनुसार उनके छोटे-बड़े अनेक वर्गीकरण करता है, वही राजस ज्ञान कहलाता है। चाण्डाल के घर से बचने हेतु इस चीज की जानकारी रखनी पड़ती है कि वह कहाँ और कैसा है। ठीक इसी प्रकार तामस ज्ञान के लक्षणों का जानना भी अत्यावश्यक होता है। अत:अब मै तुमकों उनके लक्षण भी बतलाता हूँ। तुम उन्हें भली-भाँति जान लो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (538-548)
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