श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-18
मोक्ष संन्यास योग
वह यह कहता फिरता है कि मुझे सौभाग्य से यह देह-सरीखी अमूल्य वस्तु मिली हुई है; फिर मैं किसी कर्मदरिद्री पापी की भाँति अपना यह शरीर कर्म इत्यादि के कष्टों से क्यों सुखाऊँ? भला यह कौन कहता है कि सर्वप्रथम कर्म करो और तब उसके भोग की प्रतीक्षा करो? आज मुझे जो सुखोपभोग प्रत्यक्ष प्राप्त हो रहा है बस, उसी को भोगकर सुखी होना चाहिये। इस प्रकार देह-सम्बन्धी कष्टों से भयभीत होकर जो व्यक्ति कर्मों का त्याग कर देेता है, हे वीरेश! उस व्यक्ति के द्वारा किये हुए त्याग को राजस त्याग कहते हैं। यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो इसमें भी त्याग ही है, पर इसमें त्याग के फल की प्राप्ति नहीं होती। जैसे गर्म घृत छलककर जमीन पर गिर जाय तो उसे हवन हुआ नहीं मान सकते और यदि कोई आदमी पानी में डूबकर मृत्यु को प्राप्त हो जाय, तो उसके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उसने जल-समाधि ले ली; अपितु उसके बारे में यही जानना चाहिये कि उसे दुर्मरण ही प्राप्त हुआ है। ठीक इसी प्रकार जो व्यक्ति शरीर के लोभ के कारण अपने विहित कर्मों को त्याग देता है, उसको वास्तविक कर्मत्याग का फल कभी प्राप्त ही नहीं हो सकता। सारांश यह कि हे धनंजय! जैसे प्रातःकाल समस्त नक्षत्रों का लोप कर देता है ठीक वेसे ही जिस समय आत्मज्ञान उदित होकर अज्ञानसहित समस्त क्रियाओं का लोप कर देता है, उस समय मानो सच्चा कर्मत्याग होता है और ऐसे ही त्याग में मोक्षरूपी फल लगता है। हे अर्जुन! उस व्यक्ति को इस मोक्षफल की प्राप्ति नहीं होती जो व्यक्ति अज्ञान के कारण कर्मों का त्याग करता है। इसीलिये जो त्याग राजस हो उसे कभी सच्चा कर्मत्याग समझना ही नहीं चाहिये। अब प्रसंगानुसार मैं तुम्हें यह भी बतलाता हूँ कि किस प्रकार के त्याग से मोक्षफल की प्राप्ति होती है, ध्यानपूर्वक सुनो।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (184-199)
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