श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शन योग
जो एकमात्र मेरी प्रसन्नता के लिये ही सारे कर्मों को करता है, जिसे जगत् में मेरे अतिरिक्त और कुछ भी भाता नहीं तथा जिसके लिये इहलोक और परलोक दोनों मैं ही हूँ, जिसने अपने जीवन का फल मुझे ही निश्चित कर रखा है, जो ‘भूत’ शब्द का ही एकदम भूल जाता है-क्योंकि उसके दृष्टि में सर्वत्र मैं ही समाया हुआ प्रतीत होता हूँ-और इस प्रकार जो अपने अन्तःकरण को पूर्णतया निर्वैर बनाकर सर्वत्र समबुद्धि रखता है, उस भक्त का जिस समय यह त्रिधातुक (कफ, पित्त, वात) शरीर छूटता है, उस समय, हे पाण्डव! वह भक्त मेरे स्वरूप के साथ मिलकर एक हो जाता है।” इतना कहकर संजय ने धृतराष्ट्र से कहा-“जिसका उदर इतना विशाल है, जिसमें समूचा ब्रह्माण्ड समाविष्ट हो जाय और जो करुणारस-रसाल हैं, उन श्रीकृष्ण देव ने पाण्डु कुँवर से ये सब बातें कहीं। भगवान् की ये सब बातें सुनकर अर्जुन आनन्द-लक्ष्मी से सम्पन्न हो गया। श्रीकृष्ण के चरणों की सच्ची भक्ति करने की योग्यता इस जगत् में सिर्फ उस अर्जुन में ही है। उसने देव की दोनों ही मूर्तियाँ खूब ठीक तरह देखी थीं और उसे विश्वरूप की अपेक्षा कृष्णमूर्ति अधिक भायी थी; परन्तु देव ने उसके इस भाने का आदर नहीं किया, क्योंकि विश्वरूप तो अत्यन्त व्यापक है और कृष्णमूर्ति एकदेशीय है; इसे सिद्ध करने के लिये भगवान् ने एक-दो उत्तम उपपत्तियों का निरूपण किया था। वह स्पष्टीकरण सुनकर सुभद्रापति अपने मन में कहने लगा, अब मैं यह बात फिर पूछूँगा कि इन दोनों स्वरूपों में से श्रेष्ठ स्वरूप कौन-सा है।” इस प्रकार अपने मन में यह संकल्प करके उसने यह बात कैसी युक्ति से पूछी, यह कथा श्रोतावृन्द अग्रिम अध्याय में सुनें। सरल, सुलभ ओबी छन्द में मैं यह कथा अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहूँगा और इस ज्ञानदेव की यह विनम्र विनती है कि श्रोतावृन्द वह कथा आनन्दपूर्वक श्रवण करें। सद्भाव की अंजलि में मैं इन ओबी छन्द के पुष्प लेकर विश्वरूप के दोनों चरणों पर अर्पण करता हूँ।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (696-708)
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