श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-10
विभूति योग
मस्तक पर सुन्दर काले केश धारण करने वाले और धनुर्विद्या में दूसरे शंकर है, हे पार्थ, सुनो। मैं प्राणिमात्र में आत्मरूप से निवास करता हूँ। प्राणियों के अन्तःकरण में भी मैं ही निवास करता हूँ और उनके बाह्यस्वरूप पर भी मेरा ही आवरण है। उनका आदि, मध्य और अन्त सब कुछ मैं ही हूँ। जैसे मेघों के नीचे-ऊपर, अन्दर-बाहर सर्वत्र आकाश-ही-आकाश रहता है, वे आकाशरूप ही होते हैं और उनका आधार भी आकाश ही होता है और जब वे विलीन होते हैं, तब भी वे आकाशरूप होकर रहते हैं, वैसे ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति, स्थिति तथा गति सब कुछ मैं ही हूँ। इस प्रकार विभूतियों के द्वारा मैं नाना प्रकार का और व्यापक हूँ। इसलिये तुम अपनी समस्त चैतन्य-शक्ति को अपनी श्रवणेन्द्रियों में एकत्र करके सुनो। अब हे सुभद्रापति, जिन विभूतियों का वर्णन करने के लिये मैंने तुम्हें वचन दिया है, उनमें से मुख्य-मुख्य विभूतियाँ सुनो।”[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (215-220)
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