ज्ञानेश्वरी पृ. 272

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत् ।
प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥18॥

यह सम्पूर्ण चराचर जगत् जिस प्रकृति में समाया हुआ है, वह प्रकृति थक जाने पर जिसमें विश्राम करती है, वह परम धाम भी मैं ही हूँ। जिससे प्रकृति जीवन धारण करती है, जिसके अधिष्ठान से वह इस विश्व को उत्पन्न करती है और जो इस प्रकृति का संग करके गुणों का उपभोग करता हे, हे पाण्डुसुत! वह इस विश्व-लक्ष्मी का भर्ता भी मैं ही हूँ। मैं ही इस सम्पूर्ण त्रैलोक्य का स्वामी भी हूँ। आकाश जो समस्त स्थान को व्याप्त करता है, वायु जो पलभर भी स्थिर नहीं रहती, अग्नि जो जलाती है, जल जो बरसता है, पर्वत जो अडिग रहते हैं, समुद्र जो अपनी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता, पृथ्वी जो जीवमात्र का बोझ ढोती है, वह सब मेरी ही आज्ञा से। यदि मैं बोलूँ, तभी वेद भी बोलते हैं। मैं चलाऊँ तभी सूर्य भी चलता है। मेरे गति देने से ही संसार को गतिशील बनाने वाले प्राण भी चलते रहते हैं। मैंने जो नियम बना दिया हैं, उन्हीं के अनुसार ही काल भी प्राणियों का नाश करता है। हे पाण्डुसुत! जिसके संकेत मात्र से ही ये सब काम होत हैं और जो जगत् का सामर्थ्यवान् प्रभु है, वह भी मैं ही हूँ तथा गगन की भाँति कुछ भी न करके जो उदासीन रहने वाला है, वह भी मैं ही हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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