श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग
यह सम्पूर्ण चराचर जगत् जिस प्रकृति में समाया हुआ है, वह प्रकृति थक जाने पर जिसमें विश्राम करती है, वह परम धाम भी मैं ही हूँ। जिससे प्रकृति जीवन धारण करती है, जिसके अधिष्ठान से वह इस विश्व को उत्पन्न करती है और जो इस प्रकृति का संग करके गुणों का उपभोग करता हे, हे पाण्डुसुत! वह इस विश्व-लक्ष्मी का भर्ता भी मैं ही हूँ। मैं ही इस सम्पूर्ण त्रैलोक्य का स्वामी भी हूँ। आकाश जो समस्त स्थान को व्याप्त करता है, वायु जो पलभर भी स्थिर नहीं रहती, अग्नि जो जलाती है, जल जो बरसता है, पर्वत जो अडिग रहते हैं, समुद्र जो अपनी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता, पृथ्वी जो जीवमात्र का बोझ ढोती है, वह सब मेरी ही आज्ञा से। यदि मैं बोलूँ, तभी वेद भी बोलते हैं। मैं चलाऊँ तभी सूर्य भी चलता है। मेरे गति देने से ही संसार को गतिशील बनाने वाले प्राण भी चलते रहते हैं। मैंने जो नियम बना दिया हैं, उन्हीं के अनुसार ही काल भी प्राणियों का नाश करता है। हे पाण्डुसुत! जिसके संकेत मात्र से ही ये सब काम होत हैं और जो जगत् का सामर्थ्यवान् प्रभु है, वह भी मैं ही हूँ तथा गगन की भाँति कुछ भी न करके जो उदासीन रहने वाला है, वह भी मैं ही हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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