श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-5
कर्म संन्यास योग
तब पार्थ ने श्रीकृष्ण से कहा-“हे देव! आप ये कैसी बातें कर रहे हैं? यदि आप निश्चयपूर्वक कोई एक बात बतलाते तो मैं अपने अन्तःकरण में उस बात पर विचार कर सकता। अभी आपने सब कर्मों के संन्यास अथवा परित्याग करने की बात अनेक प्रकार से बतलायी है और तब आप ही बड़ी प्रसन्नता से कर्मयोग का पूरी तरह से समर्थन करते हैं और महत्त्व भी बतलाते हैं। यह क्या बात है? हे श्रीअनन्त, आप जो ऐसी द्वि अर्थी भाषा बोलते हैं उससे मुझ अल्पज्ञ के चित्त में जैसा चाहिये वैसा बोध नहीं हो पाता। हे देव! यदि आपको किसी एक ही तत्त्व-सिद्धान्त का उपदेश करना हो तो उसके विषय में आपका भाषण भी निश्चित और ऐसा होना चाहिये जिसमें और किसी विषय की चर्चा न हो। आपकी बातें असमंजस में डालने वाली नहीं होनी चाहिये। यह कोई ऐसी बात नही हैं जो मैं आपको समझाकर बतलाऊँ। इसीलिये आप-जैसे गुरु से मैंने शुरु में ही विनती की थी कि आप मुझे परमार्थ का ऐसा उपदेश न करें जो गूढ़ हो अर्थात् संदिग्ध हो। पर हे देव! अब आप बीती बातों को छोड़िये और स्पष्ट रूप से इस बात को बताइये कि ‘कर्मसंन्यास’ तथा ‘कर्मयोग’-इन दोनों में से कौन-सा मार्ग हितकर है और श्रेष्ठ है, जो अन्त तक अच्छी तरह से ठहर सके, जो निश्चितरूप से फल देने वाला हो और स्पष्ट तथा सहज आचरण वाला भी हो? वह साधन पालकी की भाँति ऐसा सहज और सुख देने वाला होना चाहिये जिसमें नींद भी खराब न हो और रास्ता भी बहुत सा कट जाय।”
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