|
नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
44. कर्मफल भगवान को अर्पण
14. राजयोग कहता है "तुम्हारे कर्म का फल किसी-न-किसी को तो मिलेगा ही न? तो उसे भगवान को ही दे डालो। उसी को अर्पण कर दो।" राजयोग उचित स्थान बता रहा है। यहाँ फलत्यागरूपी निषेधात्मक कर्म भी नहीं है और सब कुछ भगवान को ही अर्पण करना है, इसलिए पात्रापात्रता का प्रश्न भी हल हो जाता है। भगवान को जो दान दिया गया है, वह सदा-सर्वदा शुद्ध ही है। तुम्हारे कर्म में यदि दोष भी रहा, तो उसके हाथों में पड़ते ही वह पवित्र हो जायेगा। हम दोष दूर करने का कितना ही उपाय करें, तो भी दोष बाकी रहता ही है। फिर भी हम जितने शुद्ध होकर कर्म कर सकें, करें। बुद्धि ईश्वर की देन है। उसका जितना शुद्धता से उपयोग किया जा सकता है, करना हमारा कर्तव्य ही है। ऐसा न करना अपराध होगा। अतः पात्रापात्र-विवेक तो करना ही चाहिए; किंतु भगवद्भाव रखने से वह सुलभ हो जाता है।
15. फल का विनियोग चित्त-शुद्धि के लिए करना चाहिए। जो काम जैसा हो जाये, वैसा ही भगवान को अर्पण कर दो। प्रत्यक्ष क्रिया जैसे-जैसे होती जाये वैसे-वैसे उसे भगवान को अर्पण करके मन की पुष्टि प्राप्त करते रहना चाहिए। फल को छोड़ना नहीं हैं, उसे भगवान को अर्पण कर देना है। यह तो क्या, मन में उत्पन्न होने वाली वासनाएं और काम-क्रोधादि विकार भी परमेश्वर को अपर्ण करके छुट्टी पाना है। काम-क्रोध आम्हीं वाहिले विठ्ठलीं- ‘काम-क्रोध मैंने प्रभु के चरणों में अर्पण कर दिये हैं।’ यहाँ न तो संयमाग्नि में जलना है, न झुलसना। चट् अर्पण किया और छूटे। न किसी को दबाना, न मारना! रोग जाय दुधें साखरें। तरी निंब कां पियावा- ‘जो गुड़ दीन्हें ही मरै, माहुर काहे देय?’
16. इंद्रियां भी साधन हैं। उन्हें ईश्वरार्पण कर दो। कहते हैं- "कान हमारी नहीं सुनते", तो फिर क्या सुनना ही बंद कर दें? नहीं, सुनो जरूर, पर हरिकथा ही सुनो। न सुनना बड़ा कठिन है। परंतु हरिकथारूपी श्रवण का विषय देकर कान का उपयोग करना अधिक सुलभ, मधुर और हितकर है। अपने कान तुम राम को दे दो। मुख से राम-नाम लेते रहो। इंद्रियां शत्रु नहीं हैं। वे अच्छी हैं। उनमें बड़ा सार्मथ्य है। अतः ईश्वरार्पण- बुद्धि से प्रत्येक इंद्रिय से काम लेना- यही राज-मार्ग है। इसी को ‘राजयोग’ करते हैं।
|
|