गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 90

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नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
44. कर्मफल भगवान को अर्पण

12. नौवें अध्याय में यही विशेष बात कही गयी है। इसमें कर्म-योग और भक्ति-योग का मधुर-मिलाप है। कर्म तो करना, परंतु फल का त्याग कर देना। कर्म ऐसी खूबी से करो कि फल की वासना चित्त न छुए। यह अखरोट के पेड़ लगाने जैसा है। अखरोट के वृक्ष में पच्चीस वर्ष में फल लगते हैं। लगाने वाले को अपने जीवन में शायद ही उसके फल चखने को मिलें। फिर भी पेड़ लगाना और उसे बहुत प्रेम से पानी पिलाना है। कर्म-योग का अर्थ है- पेड़ लगाना और फल की अपेक्षा न रखना। और भक्ति-योग किसे कहते हैं? भावपूर्वक ईश्वर के साथ जुड़ जाने का अर्थ है- भक्ति-योग। राज-योग में कर्म-योग और भक्ति-योग दोनों इकट्ठे हो जाते हैं। राजयोग की कई लोगों ने कई व्याख्याएं की हैं, परंतु राजयोग यानि कर्म-योग और भक्ति-योग का मधुर- मिश्रण, ऐसी थोड़े में मेरी व्याख्या है।

कर्म तो करना है, पर फल फेंकना नहीं, प्रभु को अर्पण कर देना है। फल फेंक देने का अर्थ होता है फल का निषेध, किंतु अर्पण में ऐसा नहीं होता। बहुत सुंदर व्यवस्था है यह! बड़ी मिठास है इसमें। फल छोड़ने का यह अर्थ नहीं कि फल कोई लेगा ही नहीं। कोई-न-कोई तो फल लेगा ही। किसी-न-किसी को तो वह मिलेगा ही। फिर ऐसे तर्क खड़े हो सकते हैं कि जो इस फल को पायेगा। वह इसका अधिकारी भी है या नहीं? कोई भिखारी घर आ जाता है, तो हम झट् कहते हैं- "अरे, तू खासा मोटा-ताजा है। भीख मांगना तुझे शोभा नहीं देता। चला जा।’’ हम यह देखते हैं कि उसका भीख मांगना उचित है या नहीं। भिखारी बेचारा शर्मिंदा होकर चला जाता है। हममें सहानुभूति का पूर्ण अभाव होगा तो भीख मांगने वाले की योग्यता हम जानेंगे कैसे?

13. बचपन में मैंने एक बार अपनी मां से भिखारियों के बारे में ऐसी ही शंका की थी। उसने जो उत्तर दिया, वह अभी तक मेरे कानों में गूंज रहा है। मैंने उससे कहा- "यह भिखारी तो हट्टा-कट्टा दीखता है। इसको भिक्षा देने से तो व्यसन और आलस्य ही बढ़ेंगे।" गीता का देशे काले च पात्रे च............ यह श्लोक भी मैंने उसे सुनाया। वह बोली- "जो भिखारी आया था, वह परमेश्वर ही था- अब पात्रापात्रता का कर विचार। भगवान क्या अपात्र हैं? पात्रापात्रता का विचार करने का तुझे और मुझे क्या अधिकार है? अधिक विचार करने की मुझे जरूरत नहीं मालूम होती। मेरे लिए वह भगवान ही है।" मां के इस उत्तर का कोई जवाब अभी तक मुझे नहीं सूझा है।

दूसरों को भोजन कराते समय में उसकी पात्रापात्रता का विचार करता हूं; परंतु अपने पेट में रोटी डालते समय मुझे यह ख्याल तक नहीं आता कि मुझे भी इसका कोई अधिकार है या नहीं? जो हमारे दरवाजे आ जाता है, उसे अभद्र भिखारी ही क्यों समझा जाये? जिसे हम देते हैं, वह भगवान ही है, ऐसा हम क्यों न समझें?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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