नौवां अध्याय
मानव-सेवारूपी राजविद्या: समर्पणयोग
45. विशिष्ट क्रिया का आग्रह नहीं
17. ऐसा नहीं कि कोई विशेष क्रिया ही भगवान को अर्पण करनी है। कर्ममात्र उसे सौंप दो। शबरी के वे बेर! राम ने उन्हें कितने प्रेम से स्वीकार किया। परमेश्वर की पूजा करने के लिए गुफा में जाकर बैठने की जरूरत नहीं है। तुम जहां, जो भी कर्म करो, वह परमेश्वर को अर्पण करो। मां बच्चे को संभालती है, मानो भगवान को ही संभालती है। बच्चे को नहलाती क्या है, परमेश्वर पर रुद्राभिषेक ही करती है। बालक परमेश्वरीय कृपा देन है, ऐसा मानकर मां को चाहिए कि वह परमेश्वर-भावना से बच्चे का लालन-पालन करे। कौशल्या राम की और यशोदा कृष्ण की चिंता कितने दुलार से करती थी। उसका वर्णन करते हुए शुक, वाल्मीकि, तुलसीदास ने अपने को धन्य माना। उस क्रिया में उन्हें अपार कौतुक मालूम होता है। माता की वह सेवासंगोपन-क्रिया अत्यंत उच्च है। वह बालक यानि परमेश्वर की मूर्ति! उस मूर्ति की सेवा से बढ़कर भाग्य क्या हो सकता है? यदि एक-दूसरे की सेवा करते समय हम ऐसी ही भावना रखें, तो हमारे कर्मों में कितना परिवर्तन हो जायेगा! जिसको जो सेवा मिल गयी, वह ईश्वर की ही सेवा है, ऐसी भावना करते रहना चाहिए। 18. किसान बैल की सेवा करता है। क्या वह बैल तुच्छ है? नहीं, वेदों में वामदेव ने शक्तिरूप से विश्व में व्याप्त जिस बैल का वर्णन किया है, वही उस किसान के बैल में भी है- चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादाः द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य। - ‘जिसके चार सींग हैं, तीन पैर हैं, दो सिर हैं, सात हाथ हैं, जो तीन जगह बंधा हुआ है, जो महान तेजस्वी होकर सब मर्त्य वस्तुओं में व्याप्त है, उसी गर्जना करने वाले विश्वव्यापी बैल की पूजा किसान करता है।’ टीकाकारों ने इस एक ऋचा के पांच-सात भिन्न-भिन्न अर्थ दिये हैं। यह बैल है भी विचित्र! आकाश में गर्जना करके जो बैल पानी बरसाता है, वही मल-मूत्र की वृष्टि करके खेत में फसल पैदा करने वाले इस किसान के बैल में मौजूद है। यदि किसान इस उच्च भावना से अपने बैलों की सेवा करेगा, तो उसकी यह मामूली सेवा भी ईश्वर को अर्पण हो जायेगी। 19. इसी तरह हमारे घर की गृह-लक्ष्मी, जो चौका लगाकर रसोईघर को साफ सुथरा रखती है, चूल्हा जलाती है, स्वच्छ और सात्त्विक भोजन बनाती है और यह इच्छा रखती है कि यह रसोई मेरे घर के सब लोगों को पुष्टि-तृष्टिदायक हो, तो उसका यह सारा कर्म यज्ञरूप ही है। चूल्हा क्या, मानो उस माता ने एक छोटा सा यज्ञकुंड ही जलाया है। परमेश्वर को तृप्त करने की भावना मन में रखकर जो भोजन तैयार किया जायेगा, वह कितना स्वच्छ और पवित्र होगा, जरा इसकी कल्पना तो कीजिए। यदि उस गृहलक्ष्मी के मन में ऐसी उच्च भावना हो, तो उसे फिर भागवत की ऋषि-पत्नियों के ही समतोल रखना होगा। ऐसी कितनी ही माताएं सेवा करके तर गयी होंगी और ‘मैं-मैं’ करने वाले पंडित और ज्ञानी कोने में ही पड़े रहे होंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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