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पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
21. दोनों की तुलना शब्दों से परे
17. पांचवे अध्याय में संन्यास के दो प्रकारों की तुलना की गयी है। एक चौबीसों घंटे कर्म करके भी कुछ नहीं करता और दूसरा क्षणभर भी कुछ न करके सब कुछ करता है। एक बोलकर न बोलने का प्रकार, तो दूसरा न बोलकर बोलने का प्रकार। इन दो प्रकारों की यहाँ तुलना की गयी है। ये जो दिव्य प्रकार हैं, उनका अवलोकन करें, विचार करें, मनन करें, इसमें अपूर्व आनन्द है।
18. यह विषय ही अपूर्व और उदात्त है। सचमुच संन्यास की यह कल्पना बहुत ही पवित्र और भव्य है। जिस किसी ने यह विचार, यह कल्पना पहले-पहल खोज निकाली, उसे जितने धन्यवाद दिये जायें, थोड़े है। यह बड़ी उज्ज्वल कल्पना है। मानवीय बुद्धि ने, मानवीय विचार ने अब तक जो ऊंची उड़ानें भरी हैं, उन सबमें ऊंची उड़ान इस संन्यास तक पहुँची है। इससे आगे अभी तक कोई उड़ान नहीं भर सका। उड़ान भरना तो जारी है, परन्तु मुझे पता नहीं कि विचार और अनुभव में इतनी ऊंची उड़ान किसी ने भरी हो। इन दो प्रकारों से युक्त संन्यास की केवल कल्पना ही आंखों के सामने आने से अपूर्व आनन्द होता है। किन्तु भाषा और व्यवहार के इस जगत् में जब आते हैं, तब वह आनन्द कम हो जाता है। जान पड़ता है, नीचे गिर रहे हैं। मैं अपने मित्रों से इसके विषय में हमेशा कहता रहता हूँ। आज कितने ही वर्षों से मैं इन दिव्य विचारों का मनन कर रहा हूँ। यहाँ भाषा अधूरी पड़ती है। शब्दों की श्रेणी में यह आता ही नही।
19. न करके सब कुछ कर डाला और सबकुछ करके भी लेशमात्र नहीं किया- कितनी उदात्त, रसमय और काव्यमय कल्पना है यह! अब काव्य और क्या बाकी रहा? जो कुछ काव्य के नाम से प्रसिद्ध है, वह सब इस काव्य के आगे फीका है। इस कल्पना में जो आनन्द, जो उत्साह, जो स्फूर्ति और जो दिव्यता है, वह किसी भी काव्य में नहीं। इस तरह यह पांचवां अध्याय ऊंची- बड़ी -ऊंची भूमिका पर प्रतिष्ठित किया गया है। चौथे अध्याय तक कर्म, विकर्म बताकर यहाँ बहुत ही ऊंची उड़ान भरी है। यहाँ अकर्म दशा के दो प्रकारों की प्रत्यक्ष तुलना ही की है। यहाँ भाषा लड़खड़ाती है। कर्मयोगी श्रेष्ठ या कर्म संन्यासी श्रेष्ठ? कर्म कौन ज्यादा करता है, यह कहना संभव ही नहीं है। सब करके भी कुछ न करना और कुछ भी न करते हुए सब-कुछ करना, ये दोनों योग ही हैं; परन्तु तुलना के लिए एक को ‘योग’ कहा है, दूसरे को ‘संन्यास’।
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