गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 42

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पांचवा अध्याय
दुहरी अकर्मावस्थाः योग और संन्यास
22. भूमिति और मीमांसकों का दृष्टांत

20. अब इनकी तुलना कैसे की जाये? इसके लिए उदाहरणों से ही काम लेना पड़ेगा। जब उदाहरण देने जाते हैं, तो प्रतीत होता है, मानो नीचे गिर रहे हैं। परन्तु नीचे गिरना ही होगा। सच पूछिए तो पूर्ण कर्म संन्यास अथवा पूर्ण कर्मयोग, ये कल्पनाएं ऐसी हैं, जो इस शरीर में नही समा सकती। वे इस देह को फोड़ डालेंगी। परन्तु जो महापुरुष इन कल्पनाओं के नजदीक तक पहुँच गये है, उनके उदाहरण से हमें काम चलाना होगा। उदाहरण तो सदा अधूरे ही रहने वाले हैं, परन्तु थोड़ी देर के लिए यही मान लेना होगा कि वे पूर्ण हैं।

21. रेखा-गणित में कहते है कि ‘कल्पना’ करो ‘अ ब क’ एक त्रिकोण है। भला ‘कल्पना’ क्यों करें? क्योंकि इस त्रिकोण की रेखाएं यथार्थ रेखाएं नहीं है। रेखा की तो व्याख्या ही यह है कि उसमें लंबाई है, पर चौडाई नहीं। श्यामपट्ट पर बिना चौड़ाई के यह लंबाई दिखायी कैसे जाये? लंबाई जहाँ आयी, वहाँ चौडाई आ ही जाती है। जो भी रेखा हम खींचेंगे, उसमें कुछ-न-कुछ चौड़ाई रहेगी है। इसलिए भूमिति-शास्त्र में रेखा 'माने' बिना काम नहीं चलता। भक्ति-शास्त्र में क्या ऐसी ही बात नहीं है? वहाँ भी भक्त कहता है- "इस छोटी-सी शालग्राम की बटिया में अखिल ब्रह्मांड का स्वामी है, यह 'मानो'।" यदि कोई कहे- "यह क्या पागलपन है।" तो उससे कहो- "तुम्हारी यह भूमिति क्या पागलपन नहीं है? सर्वथा स्पष्ट मोटी रेखा दिखायी पड़ती है और कहते हो कि इसे बिना चौडाई की मानो। यह कैसा पागलपन है! खुर्दबीन से देखोगे, तो वह आधी इंच चौड़ी दिखायी देगी।"

22. जैसे तुम अपनी भूमिति में मानते हो, वैसे ही भक्ति-शास्त्र कहता है कि इस "शालग्राम में परमेश्वर मानो।" अब कोई यदि कहे कि "परमेश्वर न टूटता है, न फूटता। तुम्हारा यह शालग्राम तो टूट जायेगा, लगांऊ एक चोट?" तो यह समझदारी नहीं कही जायेगी; क्योंकि जब भूमिति में 'मानो' चलता है, तो भक्ति-शास्त्र में क्यों न चलना चाहिए? बिंदु को कहते हैं, 'मानो' और श्यामपट्ट पर बिंदु (प्रत्यक्ष) बनाते हैं। बिंदु भी क्या, एक खासा वर्तुल होता है। बिंदु की व्याख्या यानि ब्रह्म की व्याख्या है। बिंदु को न लंबाई, न चौडाई, न मोटाई कुछ भी नहीं। किन्तु व्याख्या ऐसी करते हुए उसे तख्ते पर बनाकर दिखाते हैं। बिन्दु तो वास्तव में अस्तित्व मात्र है, त्रि-परिणामरहित है। सारांश यह कि सच्चा त्रिकोण, सच्चा बिन्दु व्याख्या में ही रहते हैं, परन्तु हमें उसे मानकर चलना पड़ता है। भक्ति-शास्त्र में भी शालग्राम में न टूटने-फूटने वाला सर्वव्यापी परमेश्वर मानना पड़ता है। हम भी ऐसे ही काल्पनिक दृष्टांत लेकर इनकी तुलना करेंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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