तीसरा अध्याय
कर्मयोग
11. फलत्यागी को अनंत फल मिलता है
6. कर्म वही, परन्तु भावना-भेद से उसमें अंतर पड़ जाता है। परमार्थ मनुष्य का कर्म आत्मविकासक होता है, तो संसारी मनुष्य का कर्म आत्मबंधक सिद्ध होता है। जो कर्मयोगी किसान होगा, वह स्वधर्म समझकर खेती करेगा। इससे उसकी उदरपूर्ति अवश्य होगी, परन्तु उदर पूर्ति हो, इसलिए वह खेती नहीं करता; बल्कि खेती कर सके, इसलिए भोजन को वह एक साधन मानेगा। स्वधर्म उसका साध्य और भोजन उसका साधन हुआ। परन्तु दूसरा सामान्य किसान होगा, उसके लिए उदर-पूर्ति साध्य और खेती रूपी स्वधर्म साधन होगा। ऐसी यह एक-दूसरे से उल्टी अवस्था है। दूसरे अध्याय में स्थित प्रज्ञ के लक्षण बताते हुए यह बात मजेदार ढंग से की गयी है। जहाँ दूसरे लोग जागृत रहते हैं, वहाँ कर्मयोगी सोता रहता है। जहाँ दूसरे लोग निद्रित रहते हैं, वहाँ कर्मयोगी जागृत रहता है। हम उदर-पूर्ति के लिए जागृत रहेंगे, तो कर्मयोगी इस बात के लिए जागृत रहेगा कि उसका एक क्षण भी बिना कर्म के न जाये। वह खाता भी है, तो मजबूर होकर। इस पेट के मटके में इसीलिए कुछ डालता है कि डालना जरूरी है। संसारी मनुष्य को भोजन में आनन्द आता है, योगी को भोजन में कष्ट होता है। इसलिए वह स्वाद ले-लेकर भोजन नहीं करेगा। संयम से काम लेगा। एक की जो रात, वही दूसरे का दिन और एक का जो दिन, वही दूसरे की रात। अर्थात जो एक का आनन्द, वही दूसरे का दुःख और जो एक का दुःख, वही दूसरे का आनन्द हो जाता है। संसारी और कर्मयोगी, दोनों के कर्म तो एक-से ही है; परन्तु कर्मयोगी की विशेषता यह है कि वह फलासक्ति छोड़कर कर्म में ही रमता है। संसारी की तरह ही योगी भी खायेगा, पियेगा, सोयेगा। परन्तु तत्सम्बन्धी उसकी भावना भिन्न होगी। इसलिए तो आरंभ ही स्थितप्रज्ञ की संयम मूर्ति खड़ी कर दी गयी है, जबकि गीता के अभी सोलह अध्याय बाकी हैं। संसारी पुरुष और कर्मयोगी, दोनों के कर्मों का साम्य और वैषम्य तत्काल दिखायी देता है। फर्ज कीजिए कि कर्मयोगी गो-रक्षा का कामकर रहा है, तो वह किस दृष्टि से करेगा? उसकी यह भावना रहेगी कि गो-सेवा करने से समाज को भरपूर दूध उपलब्ध हो, गाय के बहाने मनुष्य से निचली पशु-सृष्टि से प्रेम-सम्बन्ध जुड़े। यह नहीं कि मुझे वेतन मिले। वेतन तो कहीं गया नहीं है, परन्तु असली आनन्द, सच्चा सुख इस दिव्य भावना में है। 7. कर्मयोगी का कर्म उसे इस विश्व के साथ समरस कर देता है। तुलसी को जल चढ़ाये बिना भोजन नहीं करेंगे, इसमें वनस्पति-सृष्टि के साथ हमने प्रेम-सम्बन्ध जोड़ा है। तुलसी को भूखा रखकर मैं पहले कैसे खा लूं? इस तरह गाय के साथ एकरूपता, वनस्पति के साथ एकरूपता साधते-साधते हमें सारे विश्व से एकरूपता साधनी है। भारतीय युद्ध में शाम होते ही सब लोग तो संध्या आदि करने के लिए चले जाते, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण रथ के घोड़े खोलकर उन्हें पानी पिलाते, खरहरा करते और उनके शरीर से शल्य निकालते। उस सेवा में भगवान को कितना आनंद आता था। कवि यह वर्णन करते हुए अघाते ही नहीं। अपने पीतांबर में दाना-रातिब लेकर घोड़ों को देने वाले उस पार्थ सारथि का चित्र अपनी आंखों के सामने खड़ा कीजिए और कर्मयोग के आनन्द की कल्पना का अनुभव कीजिए। प्रत्येक कर्म मानो आध्यात्मिक, उच्चतर पारमार्थिक कर्म है। खादी के ही काम को लीजिए। कंधे पर खादी की गांठ लादकर घर-घर फेरी लगाने वाला क्या ऊब जाता है? नहीं क्योंकि वह इस विचार में मस्त रहता है कि देश में जो मेरे करोड़ो नंगे-भूखे भाई-बहन हैं, उन्हें मुझे दो कौर खिलाना है। उसका वह गज भर खादी खपाना समस्त दरिद्रनारायण के साथ जुड़ा हुआ होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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