तीसरा अध्याय
कर्मयोग
11. फलत्यागी को अनंत फल मिलता है
4. कर्म का अर्थ हुआ पत्थर, या कागज का टुकड़ा। मेरी माँ ने कागज की एक चिट पर टूटी-फूटी भाषा में दो-चार टेढ़ी-मेढ़ी पंक्तियां लिखकर भेज दीं और दूसरे किसी ने पचास पत्रों का आलतू-फालतू पुलिंदा लिखकर भेजा। अब किसका वजन ज्यादा होगा? माँ की उन चार पंक्तियों में जो भाव है, वह अनमोल है, पवित्र है। उसकी बराबरी वह पुलिंदा नहीं कर सकता। कर्म में आर्द्रता चाहिए, भावना चाहिए। हम मजदूर के काम की पैसे में कीमत लगाते हैं और उसे मजदूरी दे देते हैं। परन्तु दक्षिणा की बात ऐसी नहीं है। दक्षिणा भिगोकर दी जाती है। दक्षिणा के सम्बन्ध में यह प्रश्न नहीं उठता कि कितनी दी। महत्त्व की बात यह है कि उसमें आर्द्रता है या नहीं। मनुस्मृति में एक बड़ी मजेदार बात है। एक शिष्य बारह साल गुरु-गृह में रहकर पशु से मनुष्य हुआ। अब वह गुरु-दक्षिणा क्या दे? प्राचीन समय में पहले ही फीस नहीं ले ली जाती थी। बारह साल पढ़ चुकने के बाद जो कुछ देना हो, सो गुरु को दे दिया जाता था। मनु कहते हैं- "चढ़ा दो गुरु जी को एक आध पत्र-पुष्प, दे दो एक आध पंखा या खड़ाऊं, या पानी से भरा कलश।’’ इसे आप मजाक मत समझिए, क्योंकि जो कुछ देना है, श्रद्धा का चिह्न समझकर देना है। फूल में भला क्या वजन है? परन्तु उसके भक्ति भाव में ब्रह्मांड के बराबर वजन है। रुक्मिणी नें एक्या तुळशीलळानें, गिरिधर प्रभु तुळिला- ‘रुक्मिणी ने एक ही तुलसी दल से गिरिधर प्रभु को तौल लिया। सत्यभामा के मन भर गहनों से काम नहीं चला। परन्तु भाव-भक्ति से पूर्ण एक तुलसी दल जब रुक्मिणी माता ने पलड़े में डाल दिया, तो सारा काम बन गया। वह तुलसी दल अभिमंत्रित था। अब वह मामूली नहीं रह गया था। कर्मयोगी के कर्म की भी यही बात है। 5.कल्पना कीजिए कि दो व्यक्ति गंगा स्नान करने गये हैं उनमें से एक कहता है- "लोग 'गंगा' 'गंगा' कहते हैं, उसमें क्या? दो हिस्से हाइड्रोजन, एक हिस्सा ऑक्सीजन, ऐसे दो गैस एकत्र कर दिये, तो हो गयी गंगा। इससे अधिक उसमें क्या है?" दूसरा कहता है- "भगवान विष्णु के पद-कमलों से निकली है, शंकर के जटाजूट में इसने वास किया है, हजारों ब्रह्मर्षियों ने और राजर्षियों ने इसके तीर पर तपस्या की है, अनंत पुण्य-कृत्य इसके तट पर हुए हैं- ऐसी यह पवित्र गंगामाई है।" इस भावना से अभिभूत होकर वह उसमें नहाता है। वह ऑक्सीजन-हाइड्रोजन वाला भी नहाता है। अब देह-शुद्धि रूपी फल तो दोनों को मिला ही। परन्तु उस भक्त को देह-शुद्धि के साथ ही चित्त-शुद्धि रूपी फल भी मिला। यों तो गंगा में बैल भी नहाये तो उसे देह-शुद्धि प्राप्त होगी। शरीर की गंदगी निकल जायेगी। परन्तु मन का मैल कैसे धुलेगा? एक को देह-शुद्धि का तुच्छ फल मिला, दूसरे को उसके अलावा चित्त-शुद्धि रूपी अनमोल फल भी मिला। स्नान करके सूर्य नमस्कार करने वाले को व्यायाम का फल तो मिलेगा ही। परन्तु वह अरोग्य के लिए नमस्कार नहीं करता, उपासना के लिए करता है। इससे उसके शरीर को तो आरोग्य-लाभ होता ही है, साथ ही बुद्धि की प्रभा भी फैलती है। आरोग्य के साथ स्फूर्ति और प्रतिभा भी उसे सूर्यनारायण से मिलेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज