गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 23

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तीसरा अध्याय
कर्मयोग
12. कर्मयोग के विविध प्रयोजन

8. निष्काम कर्मयोग में अद्भुत सामर्थ्य है। ऐसे कर्म से व्यक्ति और समाज, दोनों का परम कल्याण होता है। स्वधर्माचरण करने वाले कर्मयोगी की शरीर-यात्रा तो चलती ही है; परन्तु सदा-सर्वदा उद्योगरत रहने के कारण उसका शरीर निरोगी और स्वच्छ रहता है। उसके इस कर्म की बदौलत उस समाज का भी, जिसमें वह रहता है, अच्छी तरह योग-क्षेम चलता है। कर्मयोगी किसान, ज्यादा पैसा मिलेगा इसलिए अफीम और तंबाकू नहीं बोयेगा। वह अपने कर्म का सम्बन्ध समाज-मंगल के साथ जोड़ता है। स्वधर्मरूप कर्म समाज के लिए हितकर ही होगा। जो व्यापारी यह मानता है कि मेरा यह व्यवहार रूप कर्म जनता के हित के लिए है, वह कभी विदेशी कपड़ा नहीं बेचेगा। उसका व्यापार समाजोपकारक होगा। अपने को भूलकर अपने आस पास के समाज से समरस होने वाले ऐसे कर्मयोगी जिस समाज में पैदा होते हैं, उसमें सुव्यवस्था, समृद्धि और सौमनस्य रहता है।

9. कर्मयोगी के कर्म के फलस्वरूप उसकी शरीर-यात्रा तो चलती ही है, उसकी देह और बुद्धि तेजस्वी रहती है और समाज का भी कल्याण होता है। इन दो फलों के अलावा चित्त-शुद्धि का भी महान फल उसे मिलता है। कर्मणा शुद्धिः- ऐसा कहा गया है। कर्म चित्त-शुद्धि का साधन है; परन्तु सर्वसाधारण जो कर्म करते हैं, वह नहीं। कर्मयोगी जो अभिमंत्रित कर्म करता है, उसी से चित्तशुद्धि होती है।

महाभारत में तुलाधार वैश्य की कथा है। जाजलि नामक ब्राह्मण तुलाधार के पास शब्द ज्ञान-प्राप्ति के लिए जाता है। तुलाधार उससे कहते हैं- "भैया, इस तराजू की डंडी को सदा सीधा रखना पड़ता है" इस बाह्य कर्म को करते हुए तुलाधार का मन भी सीधा-सरल हो गया। छोटा बच्चा दुकान में आये या बड़ी उम्र का, उसकी डंडी सबके लिए एक सी रहती है न ऊंची, न नीची। उद्योग का मन पर परिणाम होता है। कर्मयोगी के कर्म को एक प्रकार का जप ही समझो उससे उसकी चित्त-शुद्धि होती है और फिर निर्मल चित्त में ज्ञान का प्रतिबिंब पड़ता है। अपने उस-उस कर्मों से कर्मयोगी अंत में ज्ञान प्राप्त करते हैं। तराजू की डंडी से तुलाधार समवृत्ति मिली।

सेना नाई बाल बनाया करता था। दूसरों के सिर का मैल निकालते-निकालते उसे ज्ञान हुआ- "देखो, मैं दूसरों के सिर का मैल तो निकालता हूं, परन्तु क्या खुद कभी अपने सिर का, अपनी बुद्धि का भी मैल मैंने निकाला है?" ऐसी आध्यात्मिक भाषा उसे उस कर्म से सूझने लगी। खेत का कचरा निकालते-निकालते कर्मयोगी को खुद अपने हृदय का वासना-विकाररूपी कचरा निकाल डालने को बुद्धि उपजती है।

मिट्टी को रौंदकर समाज को पक्की हंडिया देने वाला गोरा कुम्हार अपने मन में ऐसी पक्की गांठ बांधता है कि मुझे अपने जीवन की भी हंडिया पक्की बना लेनी चाहिए। इस प्रकार वह हाथ में थपकी लेकर ‘हंड़िया कच्ची है या पक्की?' यों संतों की परीक्षा लेने वाला परीक्षक बन जाता है।

उस-उस कर्मयोगी को उस-उस कर्म या धंधे की भाषा में से ही भव्य ज्ञान प्राप्त हुआ है। वे कर्म क्या थे, मानो उनकी आध्यात्म-शाला ही हों। उनके वे कर्म उपासनामय, सेवामय थे। वे देखने में व्यावहारिक, परन्तु वास्तव में आध्यात्मिक थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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