श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
तेरहवाँ अध्याय
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्॥34॥
इस प्रकार क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के भेद को और भूत-प्रकृति के मोक्ष को (अमानित्वादि उपाय को) जो ज्ञान नेत्रों के द्वारा जान लेते हैं, वे परम तत्त्व को प्राप्त होते हैं।।34।।
ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन संवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोअध्यायः।।13।।
एवम् उक्तेन प्रकारेण क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः अन्तरं विशेषं विवेकविषयज्ञानाख्येन चक्षुषा ये विदुः भूतप्रकृतिमोक्षं च, ते परं यान्ति निर्मुक्तबन्धनम् आत्मानं प्राप्नुवन्ति।
जो पुरुष इस बतलाये हुए प्रकार से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को विवेक विषयक ज्ञान रूप नेत्रों के द्वारा जान लेते हैं, तथा जो भूत प्रकृति के मोक्ष को भी जान लेते हैं, वे परमतत्त्व को- बन्धनरहित आत्मा को प्राप्त हो जाते हैं।
मोक्ष्यते अनेन इति मोक्षः, अमानित्वादिकम् उक्तं मोक्षसाधनम् इत्यर्थः क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः विवेकविषयेण उक्तेन ज्ञानेन तयोः विवेकं विदित्वा भूताकारपरिणतप्रकृतिमोक्षोपायम् अमानित्वादिकं च अवगम्य ये आचरन्ति, ते निर्मुक्तबन्धा स्वेन रूपेण अवस्थितम् अनवच्छिन्नज्ञान लक्षणम् आत्मानं प्राप्नुवन्ति इत्यर्थः।।34।।
जिसके द्वारा छुड़ाया जाय उसका नाम मोक्ष है, इस व्युत्पत्ति के अनुसार पहले बतलाये हुए अमानित्वादि मोक्षसाधन का नाम यहाँ मोक्ष है। अभिप्राय यह है कि जो साधक क्षेत्र और क्षेत्रसम्बन्धी विवेक विषयक उक्त ज्ञान के द्वारा उन दोनों के भेद को जानकर तथा भूतों के आकार में परिणत प्रकृति से छूटने के उपाय रूप अमानित्व आदि गुणों को समझकर वैसा ही आचरण करते हैं, वे बन्धन से मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित अविभक्त ज्ञानस्वरूप आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं।।34।।
इति श्रीमद्भगवद्रामानुजाचार्यविरचिते श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये त्रयोदशोअध्यायः॥13॥
इस प्रकार श्रीमान् भगवान् रामानुजाचार्य द्वारा रचित श्रीमद्भगवद्गीता-भाष्य के हिन्दी-भाषानुवाद का तेरहवाँ अध्याय समाप्त हुआ।।13।।
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