श्रीमद्भगवद्गीता -रामानुजाचार्य
तेरहवाँ अध्याय
यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि: ।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥33॥
भारत! जैसे एक ही सूर्य इस समस्त लोक को प्रकाशित करता है, वैसे ही क्षेत्रज्ञ समस्त क्षेत्र को प्रकाशित करता है।।33।।
यथा एक आदित्यः स्वया प्रभया कृत्स्नम् इमं लोकं प्रकाशयति, तथा क्षेत्रम् अपि क्षेत्री मम इदं क्षेत्रम् ईदृशम् इति कृत्स्नं बहिः अन्तः च आपादतलमस्तकं स्वकीयेन ज्ञानेन प्रकाशयति। अतः प्रकाश्यात् लोकात् प्रकाशकादित्यवद् वेदितृत्वेन वेद्य भूताद् अस्मात् क्षेत्राद् अत्यन्तविलक्षणः अयम् उक्तलक्षण आत्मा इत्यर्थः।।33।।
जैसे एक ही सूर्य अपनी प्रभा से इस सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है, वैसे ही क्षेत्री (आत्मा) भी, ‘यह मेरा क्षेत्र (शरीर) ऐसा है’ इस प्रकार बाहर और भीतर पैरों के तलुवे से लेकर मस्तकपर्यन्त सारे शरीर को अपने ज्ञान से प्रकाशित करता है। अतः यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार प्रकाश्य लोक से उसका प्रकाशक सूर्य अत्यन्त भिन्न है, उसी प्रकार यह उपर्युक्त लक्षणों वाला आत्मा ज्ञाता होने के कारण ज्ञेयरूप इस शरीर से अत्यन्त विलक्षण है।।33।।
|