हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 35

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-प्रमाण-ग्रन्थ


किसी सामान्‍य किंवा विशिष्‍ट दार्शनिक मतवाद को स्‍वीकार न करने के कारण, अथच प्राचीन भक्ति-ग्रन्‍थों पर सर्वथा निर्भर न होने के कारण, इस सम्‍प्रदाय को धार्मिक क्षेत्र में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। इसका स्‍वतन्‍त्र दृष्टिकोण जहाँ अनेक लोगों के आकर्षण का कारण रहा है, वहाँ कट्टर सम्‍प्रदायवादियों की दृष्टि में वह स्‍थापित-रूढ़ि एवं परम्‍पराओं का विघातक माना जाता रहा है। अपने पांच सौ वर्ष के इतिहास में इस सम्‍प्रदाय को अनेक बार धार्मिक-उत्‍पीड़न सहन करना पड़ा है। अठारहवीं शताब्‍दी के उत्‍तरार्ध में वृन्‍दावन, जयपुर राज्‍य के अन्‍तर्गत था। उस समय के जयपुर-नरेश जयसिंह प्रथम हिन्‍दू धर्म के पक्षपाती एक धर्म-प्राण राजा थे। उनकी इस ओर रुचि देखकर कुछ रूढ़ि प्रेमियों ने उनको वृन्‍दावन, की प्रेमोपासक सम्‍प्रदाओं के विरुद्ध भड़का दिया। राजा ने अनेक जयपुर में एक विशाल धर्म-सभा का आयोजन किया और प्रत्‍येक वैष्‍णव-सम्‍प्रदाय को उसमें अपना दार्शनिक मत उपस्थित करने की आज्ञा दी। उस सयम तक चैतन्‍य-सम्‍प्रदाय में ब्रह्म-सूत्र आदि पर स्‍वमतानुकूल भाष्‍य या प्रकरण ग्रन्‍थ की रचना नहीं हुई थी। जयपुर नरेश के आग्रह पर श्री बलदेव विद्याभूषण ने ब्रह्म-सूत्र पर ‘अचिन्‍त्‍य-भेदाभेद’ सिद्धान्‍त प्रतिपादक ‘गोविन्‍द-भाष्‍य’ की रचना करके अपने सिद्धान्‍त को श्रुति सम्‍मत सिद्ध कर दिया। राधावल्‍लभीय-सम्‍प्रदाय में उस समय संस्‍कृतज्ञ विद्वानों की संख्‍या पर्याप्‍त थी, जैसा कि उस समय के प्रौढ़ संस्‍कृत ग्रन्‍थों से मालूम होता है, किन्‍तु वे लोग न तो किसी नवीन दार्शनिक मत की प्रतिष्‍ठा करने में सहमत हुए और न उन्‍होंने प्रचिलित वेदान्‍त सम्‍प्रदायों में से किसी एक अन्‍तर्गत होना स्‍वीकार किया। उनकी पूजा-पद्धति भी संपूर्णतया प्रेमाभक्ति पर आधारित रही। राजा का आग्रह वैदिक-पद्धति के स्‍वीकार के लिये था और इसको वह अपनी राज्‍य-शक्ति के बल पर करवाना चाहता था।

राधावल्‍लभीय सम्‍प्रदाय की मौलिक मान्‍यताओं के उच्‍छेद का समय उपस्थित था और सम्‍प्रदाय के नेताओं को उन सिद्धान्‍तों पर समझौता करने को विवश किया जा रहा था जिनको लेकर इस सम्‍प्रदाय के स्‍वतन्‍त्र व्‍यक्तित्‍व की रचना हुई है। थोड़े दिन पूर्व ही वे औरंगजेब की की बर्बरता के द्वारा अपने प्राचीन एवं सुन्‍दर देव-स्‍थानों का ध्‍वंस होता देख चुके थे और इस वार तो उनके विचार-स्‍वातन्‍त्र्य पर ही आघात हो रहा था। उन्‍होंने सामूहिक रूप से राजाज्ञा मानने से इनकार कर दिया। इतिहास से मालूम होता है कि अनेकों को जेलों में रखकर कठिन यातनायें दी गर्इ और अनेकों वृन्‍दावन से निर्वासित कर दिया गया। यह दमन बीस वर्ष तक चलता रहा और संवत 1800 में राजा की मृत्‍यु के साथ ही समाप्‍त हुआ। जयसिंह के उत्‍तराधिकारी राजा ईश्वरी सिंह ने राधावल्लभीयों के साथ संधि करली और उनके ऊपर से सारे प्रतिबंध हटा लिये। इतिहास ने करवट बदली और राजा ईश्वरी सिंह एंव उनके उत्तराधिकारियों के समय में राधावल्‍लभीय धर्माचार्यो का प्रभाव जयपुर में काफी बढ़ा और राधावल्‍लभीय मंदिरों को वहाँ से बड़ी-बड़ी जागीरें प्राप्‍त हुईं। भारत जैसे धर्म-सहिष्‍णु देश के इतिहास में धार्मिक-दमन की घटनायें विरल है और यह सम्‍प्रदाय अपने वाणी-ग्रन्‍थों के स्‍वतन्‍त्र एवं निर्विरोध दृष्टिकोण के प्रति अनन्‍य श्रद्धा रखकर ही इसको सहन कर सकी थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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