श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-प्रमाण-ग्रन्थ
इन पदों में श्रीहित हरिवंश ने प्रेम के उस अद्भुत स्वरूप का चित्रण किया है जो उनको नित्य-न्यूनतया अनुभूत होता था। यह स्वरूप श्रीमद्भागवत में वर्णित रासलीला का आधार-स्वरूप की ही एक सुन्दर छटा रासलीला में प्रत्यक्ष हुई थी। यह वह रूप है जिसमें प्रेम के भोक्ता-भोग्य अपनी सहज संयोगमी स्थिति में नित्य प्रकाशित रहते हैं। इन पदों में प्रेम की उस सार्वभौम सत्ता का विलास वर्णन है जिसमें सविशेष और निर्विशेष, जड़ और चैतन्य भक्त और भगवान, आदि सारे द्वंद्व डूब कर एक बने हुए हैं। सारे जीवन में दिव्य आलोक फैला देने की अदृभुत शक्ति इन पदों में विद्यमान है और इनके श्रवण से जीवन में अमूल परिर्वतन होने की अनेक घटनायें राधावल्लभीय इतिहास में प्रसिद्ध हैं। श्रीहित हरिवंश ने प्रेमतत्व को जिस दृष्टि से देखा है वह सर्वथा मौलिक है। किसी भी स्थान में वह दृष्टि ज्यों–की-त्यों दिखलाई नहीं देती। श्रीमद्भागवत प्रेमलीला सम्बन्धी प्रधान भक्ति-ग्रन्थ है और इस सम्प्रदाय में वह प्रमाण कोटि में स्वीकृत भी है किंतु, श्रीमदभागवत प्रेमलीला सम्बन्धी दृष्टिकोण से श्रीहित हरिवंश की ‘वाणी’ का दृष्टि कोण भिन्न है। विशेषता यह है कि दोनों दृष्टिकोण एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी सर्वथा अविरोधी माने गये हैं। इस सम्प्रदाय में, इसलिये, श्रीहित हरिवंश की वाणी को सर्वोपरि प्रमाण माना जाता है। सर्व-विरोध-शून्य एवं निर्भ्रान्त अनुभव पर आधारित होने के कारण ‘वाणी’ का वेद-वाणी के समान स्वत: प्रामाण्य स्वीकृत किया गया है एवं उसको प्रमाणित करते के लिये श्रीमद्भागवत पर या किसी अन्य ग्रन्थ पर स्वमतानुकूल टीकायें नहीं लिखी गई हैं। हाँ, वाणी में प्रदर्शित सिद्धान्त के आधार पर स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना बहुत प्रारम्भ से होती रही है और जो टीकायें की गई हैं वे अधिकांश श्रीहित हरिवंश की रचनाओं पर ही की गई हैं। ‘हितचतुरासी’ पर छोटी-बड़ी पैंतालिस टीकायें उपलब्ध हैं और ‘राधा सुधा निधि’ पर संस्कृत एवं ब्रजभाषा में अनेक टीकायें प्राप्त हैं, जिनमें श्री हरिलाल व्यास कृत लगभग पन्द्रह हजार श्लोक संख्या वाली, एक संस्कृत टीका ‘रसकुल्या’ प्रधान मानी जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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