हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 34

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-प्रमाण-ग्रन्थ


श्री हित हरिवंश अपनी बत्‍तीस वर्ष की आयु में देववन से वृन्‍दावन आ गये थे और फिर व्रजभूमि से बाहर नहीं गये। वृन्‍दावन में अनवरत रहते हुए एक विशाल भक्ति-सम्‍प्रदाय का स्‍थापन उनकी विशुद्ध प्रेममयी ‘वाणी’ के द्वारा संभव हो सका था। वृन्‍दावन आने के समय कुछ शिष्य तो उनके साथ ही आये थे और अनेक वृन्दावन में शिष्‍य हो गये थे। इन शिष्‍यों में से कतिपय श्रीहित जी के पदों को लेकर प्रचार के लिये निकलते थे और दूर-दूर प्रदेशों में जाकर इन पदों के भाव-मय गान के द्वारा वहाँ की जनता में भगवतप्रेम का प्रचार करते थे।

इन पदों में श्रीहित हरिवंश ने प्रेम के उस अद्भुत स्‍वरूप का चित्रण किया है जो उनको नित्‍य-न्‍यूनतया अनुभूत होता था। यह स्‍वरूप श्रीमद्भागवत में वर्णित रासलीला का आधार-स्‍वरूप की ही एक सुन्‍दर छटा रासलीला में प्रत्‍यक्ष हुई थी। यह वह रूप है जिसमें प्रेम के भोक्ता-भोग्‍य अपनी सहज संयोगमी स्थिति में नित्‍य प्रकाशित रहते हैं। इन पदों में प्रेम की उस सार्वभौम सत्ता का विलास वर्णन है जिसमें सविशेष और निर्विशेष, जड़ और चैतन्‍य भक्‍त और भगवान, आदि सारे द्वंद्व डूब कर एक बने हुए हैं। सारे जीवन में दिव्‍य आलोक फैला देने की अदृभुत शक्ति इन पदों में विद्यमान है और इनके श्रवण से जीवन में अमूल परिर्वतन होने की अनेक घटनायें राधावल्‍लभीय इतिहास में प्रसिद्ध हैं। श्रीहित हरिवंश ने प्रेमतत्‍व को जिस दृष्टि से देखा है वह सर्वथा मौलिक है। किसी भी स्‍थान में वह दृष्टि ज्‍यों–की-त्‍यों दिखलाई नहीं देती। श्रीमद्भागवत प्रेमलीला सम्‍बन्‍धी प्रधान भक्ति-ग्रन्थ है और इस सम्प्रदाय में वह प्रमाण कोटि में स्वीकृत भी है किंतु, श्रीमदभागवत प्रेमलीला सम्बन्धी दृष्टिकोण से श्रीहित हरिवंश की ‘वाणी’ का दृष्टि कोण भिन्‍न है। विशेषता यह है कि दोनों दृष्टिकोण एक दूसरे से भिन्‍न होते हुए भी सर्वथा अविरोधी माने गये हैं। इस सम्प्रदाय में, इसलिये, श्रीहित हरिवंश की वाणी को सर्वोपरि प्रमाण माना जाता है। सर्व-विरोध-शून्‍य एवं निर्भ्रान्‍त अनुभव पर आधारित होने के कारण ‘वाणी’ का वेद-वाणी के समान स्‍वत: प्रामाण्‍य स्‍वीकृत किया गया है एवं उसको प्रमाणित करते के लिये श्रीमद्भागवत पर या किसी अन्‍य ग्रन्‍थ पर स्‍वमतानुकूल टीकायें नहीं लिखी गई हैं। हाँ, वाणी में प्रदर्शित सिद्धान्‍त के आधार पर स्‍वतन्‍त्र ग्रन्‍थों की रचना बहुत प्रारम्‍भ से होती रही है और जो टीकायें की गई हैं वे अधिकांश श्रीहित हरिवंश की रचनाओं पर ही की गई हैं। ‘हितचतुरासी’ पर छोटी-बड़ी पैंतालिस टीकायें उपलब्‍ध हैं और ‘राधा सुधा निधि’ पर संस्‍कृत एवं ब्रजभाषा में अनेक टीकायें प्राप्‍त हैं, जिनमें श्री हरिलाल व्‍यास कृत लगभग पन्‍द्रह हजार श्‍लोक संख्‍या वाली, एक संस्‍कृत टीका ‘रसकुल्‍या’ प्रधान मानी जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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