श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
श्रीहरिराम व्यास (सं. 1549-1655)
नवलदास को संग लेकर व्यास जी कार्ति कारंभ में वृन्दावन आये। हित जू उनको मंदिर में मिले और व्यास जी के नेत्र उनका दर्शन करके शीतल हो गये। गुसाँई जी उस समय ठाकुर जी के लिये पाक रक रहे थे। व्यास जी की इच्छा उनसे उसी समय चर्चा करने की थी। हितप्रभु ने यह देखकर चूल्हे पर से 'टोकनी' उतार कर नीचे धर दी और अग्नि को बुझा दिया। व्यास जी बोले ' आप रसोई और चर्चा एक साथ कर सकते थे। करना-धरना हाथ का धर्म है और कहना-सुनना मुख और कान का कार्य है।' हित प्रभु ने उसी समय व्यास जी को एक पद सुनाया और उनके सम्पूर्ण संदेहों को नष्ट कर दिया। उस पद की प्रथम पंक्ति है, यह जु एक मन बहुत ठौर करि कहि कोने सचुपायो।'[1] इस पद में हित जी ने बताया कि वह काल-ग्रसित प्रपंच नाशवान है और प्रभु के भक्त ही नित्य हैं। व्यास जी ने इस पद को सुनकर हितप्रभु के चरण पकड़ लिये और उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की, शिक्षा दै के दिक्षा दीजे-अब तो मोहि आपुनों कीजै। हित जी ने उनकी श्रद्धा देखकर उनको श्रीराधा से प्राप्त मंत्र[2] सुना दिया, श्रद्धा लखि निज मंत्र सुनायो |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज