श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
वाणी
नैन न मूँदे ध्यान कौं किये न अंग न्यास। वाणियों को दो दृष्टियों से देखा जाता है। एक तो साहित्यिकों की दृष्टि है, जो इनके काव्य-सौष्ठव का आस्वाद करके उपरत हो जाती है जो अपने संपूर्ण-भाव जीवन को इन वाणियों में व्यंजित प्रीति के साँचे में ढ़ालना चाहते हैं। चाचाजी ने इन दोनों दृष्टियों को एक सुन्दर रूपक के द्वारा व्यक्त किया है। वे कहते हैं ‘श्रेष्ठतम अक्षरों की बनी हुई यह पालकी रसिकों को लेने के लिये इस लोक में आई है। जिन्होंने इसको देख कर केवल वाह-वाह की वे तो यहीं रह गये और जो उस पर चढ़ गये वे रस-धाम में पहुँच गये।’ अक्षर धुर की पालकी आई रसकिन लैन। वाणी को केवल वाह-वाह का विषय न बनने देने के लिये रसिकों ने उसको ‘नाम’ के साथ जोड़ कर रखा है। सेवा के अतिरिक्त नाम-वाणी किंवा नाम-गिरा के अनुशीलन से प्रेम साधना पूर्ण बनती है। नाम का जप वाणी पाठ के लिये हृदय में उपयुक्त भूमिका तैयार करता है और वाणीगान हृदय को स्नेह-द्रवित बनाकर उसको अविराम नाम-स्मरण की योग्यता प्रदान करता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों मिल कर उपासक के हृदय में प्रेम-भजन को खड़ा करते हैं। सेवक की नाम-वाणी के युग्म को, इसीलिये, बहुत महत्त्व दिया है। उन्होंने कहा है, ‘नाम- वाणी में परम प्रीति का प्रकाश देखकर श्याम-श्यामा सदैव उनके निकट रहे आते हैं। अत्यन्त प्रेम, रस और माधुर्य का दान करने वाली नाम वाणी को सुनकर श्याम-श्यामा वशीभूत हो जाते हैं। जहाँ नाम-वाणी है। वहीं श्याम-श्यामा रहते हैं। मैं श्रीहरिवंश नाम और उनकी वाणी की बलिहार होता हूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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