श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
उपासना-मार्ग
जेहि उर उपज्यौ प्रेमरस, सो नित रहत उदास। धर्मी रसिक का रहन-सहन और लोक-व्यवहार उसके प्रेमी रूप के सर्वथा अनुकूल होता है। ‘प्रेम स्वरूप श्रीहरिवंश के नाम से भली-भाँति परिचित होने पर वह अपने को तृण से भी नीचा मानने लगता है। नाम में से निकलने वाली प्रेम की अद्भुत छटा को देखकर वह उसके आगे सदैव के लिये झुक जाता है। सदैव झुके हुए को गर्दन उठाने का अवकाश नहीं होता। वह तिनके के आगे भी झुका ही रहता है। विनत होने के कारण वह हर एक से आदर पूर्वक और हँसकर बोलता है। वह तरु के समान सहनशील होता है। उससे परिचित सब लोग उसको परम उदार कहते हैं। उसको कभी सोच स्पर्श नहीं करता और उसका मन सदैव श्रीहरिवंश के सुयश-नित्य प्रेम विहार-में समाया रहता है। वह जीवमात्र के लिये सुखदाई होता है और कभी मुख से दुखद वचन नहीं बोलता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रीति चौवनी
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