हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 170

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
उपासना-मार्ग


जब श्री हरिवंश नाम जानिहैं, तब सब ही तैं लघु मानिहैं।
                                           हँसि बोले बहु मान दै।
तरू सम सहनशीलता होइ, परम उदार कहैं सब कोइ।
                                          सोच न मन कबहूँ करें।
श्री हरिवंश सुजस मन रहै, कोमल वचन रचन मुख कहै।
                                        परम सुखद सबकौं सदा।
दुखद बचन कबहूँ न कहाइ, संतत रसिक सुनहु चितलाइ।
                                         श्री हरिवंश प्रताप जस।[1]

इसी प्रकार, एकमात्र श्यामश्यामा की प्रेम छटा से बँध जाने के कारण प्रेमी रसिक के द्वारा स्थापित रूढ़ियों, वैदिक तथा लौकिक कर्मों का निर्वाह नहीं होता है। उसको इनके निर्वाह न होने से दोष भी नहीं लगता, क्योंकि उसकी दृष्टि से शुभ और अशुभ का द्वैत नष्ट हो जाता है। उसके मन की संपूर्ण वृतियाँ प्रेम-रसानुभव के लिये लालायित बन जाती हैं और वह उनहीं कर्मों में मनोयोग दे पाता है जो रसानुभव की वृद्धि में सहायक हों।

इष्ट उपासना स्वभावतः अनन्य उपासना होती है। इस उपासना में इष्ट से अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता नहीं रहती। संपूर्ण अनन्यता के विना संपूर्ण इष्ट उपासना नहीं बनती। श्री नागरीदास कहते हैं ‘अनन्य कहना अत्यन्त कठिन है। यह तभी बनता है जब प्रेमी रसिक के मन की संपूर्ण दशायें इष्ट भजन के साथ मिल जाती हैं और उसका जागतिक पदार्थों के साथ तनिक भी संबंध नहीं रह जाता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. से. वा. 3-8

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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