श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
उपासना-मार्ग
जब श्री हरिवंश नाम जानिहैं, तब सब ही तैं लघु मानिहैं। इसी प्रकार, एकमात्र श्यामश्यामा की प्रेम छटा से बँध जाने के कारण प्रेमी रसिक के द्वारा स्थापित रूढ़ियों, वैदिक तथा लौकिक कर्मों का निर्वाह नहीं होता है। उसको इनके निर्वाह न होने से दोष भी नहीं लगता, क्योंकि उसकी दृष्टि से शुभ और अशुभ का द्वैत नष्ट हो जाता है। उसके मन की संपूर्ण वृतियाँ प्रेम-रसानुभव के लिये लालायित बन जाती हैं और वह उनहीं कर्मों में मनोयोग दे पाता है जो रसानुभव की वृद्धि में सहायक हों। इष्ट उपासना स्वभावतः अनन्य उपासना होती है। इस उपासना में इष्ट से अतिरिक्त अन्य किसी की सत्ता नहीं रहती। संपूर्ण अनन्यता के विना संपूर्ण इष्ट उपासना नहीं बनती। श्री नागरीदास कहते हैं ‘अनन्य कहना अत्यन्त कठिन है। यह तभी बनता है जब प्रेमी रसिक के मन की संपूर्ण दशायें इष्ट भजन के साथ मिल जाती हैं और उसका जागतिक पदार्थों के साथ तनिक भी संबंध नहीं रह जाता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ से. वा. 3-8
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