सिद्धान्त
श्री हित हरिवंश
श्री हरि ने द्वापरांत में वेणु-नाद किया था। श्री हरिवंश का प्रागट्य कलियुग में हुआ है। वंशी की इन दोनों अभिव्यक्तियों की सुन्दर तुलना करते हुए चाचा हित वृन्दावनदास जी कहते हैं; ‘मुरलिका ने इस युग में द्वापर युग से भी अधिक कृपा की है। द्वापर में केवल गोपियों ने कुल-कर्मों का त्याग किया था और अब सबने कुल-मर्यादा का निरादर कर दिया है। तब केवल तरुणियों को रसपान कराया था और अब सबके हृदयों को भली प्रकार रस पूर्ण बना दिया है। उस समय हरि और वंशों ने मिलकर सबकी मोहित किया था और अब दोनों ने मिलकर एक श्री हरिवंश-वपु धारण किया है। उस समय श्री हरि के मुख चन्द्र पर चढ़कर वंशी ने गर्जना की थी, जिसके कारण त्रिभुवन में खलवली मच गई थी और अब रसिकों को गुप्त रस-रीति प्रदान करके वृन्दावन में स्वच्छंद विचरण कर रही है। उस समय मोहन से मिल-कर श्याम के सरस गुणों का गान किया था और अब अत्यन्त धीरता पूर्वक श्रीराधा के अगाध रूप-रस की वर्षा की है। जो जन, भगवदिच्छा से, उस समय वंशी, का अनुसरण नहीं कर पाये थे, उनके ताप को मिटाने के लिये, मुरलिका ने अब द्विजकुल में शरीर धारण किया है।
मुरलिका यह जुग बहुत करो।
तब कुल-कृत गोपनु तजे अब सबनि कानि निदरो।।
तब रस पान दियौ जुवतिनु अब सब उर सुभर भरी।
तब हरि पुनि वंशी मोहीं अब एक देह धरी।।
तब व्रतकर्म धर्म सब टारे बरबस हियहिं अरी।
अब बिनु श्रम भये सहज विदा जब प्रेम सुढ़ार ढ़री।।
तब हरि-वदन-विधुहिं चढ़ि गाजी त्रिभुवन रौर परी
अब रस-रीति गुपत रस स्वादिनु दैं बन में बिचरी।।
तव मोहन सौं मिलि श्यामा गुन गाये रंग ररी।
अब अतिधीर आपु राधा रस रूप अगाध झरी।।
जे-जे तिहि समये न अनुसरों हरि इच्छा बिसरी।
वृन्दावन हित द्विज कुल धरि अब सब सूल हरी।।
स्वभावतः, इस संप्रदाय में, श्री हरिवंश की वाणी वेणु-नाद मानी जाती है। सेवक जी ने कहा है ‘श्री हरिवंश ने सुन्दर नाद, सुन्दर रस-रीति और सुन्दर गान को मिलाकर वृन्दावन बने माधुरी का गान किया है और अपने वचनों की रचना[1] में नित्य किशोर-किशोरी को लाड़ लड़ाया है।
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