हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 152

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
सहचरी


सखियों में जितनी गोरी सखियाँ हैं वे सब प्रिया के ओर की हैं और सब सगर्वा हैं। प्रियतम के ओर की सखियाँ श्याम-वर्ण की हैं और वह सदैव दीनता धारण किये रहती हैं।

रसिकों ने सखियों को युगल के प्रेम-रस कोष की अधिकारणी बतलाया है - ‘जुगल प्रेम रस-कोष हाँ की अधिकारी जु सहेली’।

ध्रुवदास कहते हैं ‘जब प्रेम-रस सम्पूर्ण मर्यादाओं को तोड़कर बह चला और स्वयं श्यामाश्याम अपने तन मन की सुध भूल कर उसमें डूब गये तब वह भला कहाँ ठहरता ? वह सखियों के हृदय और नेत्रों में समा गया। सहचरीगण उसी का अवलम्ब लेकर रंग से भरी हुई युगल की सेवा में सदैव खड़ी रहती हैं। सखियों के भाव को चित्त में धारण करके जो सखियों की शरण ग्रहण करता है वही इस रस के स्वाद को पाता है।

मैड़ तोरि रस चल्यौ अपारा - रही न तन मन कछु संभारा।।
सो, रस कहौ कहाँ ठहरानौं - सखियनि के उर नैंन समानौं।
तिहिं अवलम्ब सबैं सहचरी - मत्त रहत ठाड़ी रंग भरी।
सखियनि सरन भाव धरि आवैं - सो या रस के स्वादहिं पावै।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रति मंजरी

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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