श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
सहचरी
सखियों के जीवन का एक मात्र तात्पर्य युगल को सुख देना है। सुख देने की अभिलाषा सेवा द्वारा पूर्ण होती है। सखीगण स्व-सुख-वासना शून्य सेवा की मूर्ति है। उनकी सेवा का प्रयोजन सेवा ही है। ‘उनके मन में सेवा का अगाध चाव भरा रहता है और वे सेवा करती हुई चारों ओर ‘चकडोर’ सी घूमा करती हैं। वे युगल के श्रृंगार की नई-नई सामग्री बनाती रहती हैं और तनिक भी नहीं थकतीं। प्रेम के रंग में रँगी हुई वे युगल को अतृप्त भाव से सदैव निरखती रहती हैं। उनको अन्य सब स्वाद फीके लगते हैं, वे एक मात्र युगल के रूप-छत्र की छाया में रही आती हैं।’ सखी चहुँओर फिरै चकडोर-सी सेवा कौ भाव बढ़यौ मन माहीं। सखागण चार भावों से युगल की सेवा करती हैं, पुत्रवत् भाव से, मित्रवत् भाव से, पतिवत् भाव से और आत्मवत् भाव से। निसिदिन लाड़ लड़ावहीं अति माधुर्य सुरीति। प्रतिदिन प्रात:काल युगल को जगाते समय सखियों की अद्भुत प्रीति वात्सल्य से रंजित हो जाती है। उन्मद प्रेम विलास का समस्त रात्रि उपभोग करने के बाद अरुणोदय से कुछ पूर्व राधामोहन शयन कुंज में पधारते हैं। शयन कुंज में केवल मुख्य सखियों को ही सेवा का अधिकार प्राप्त है। शेष सखियाँ बाहर रहकर दूसरे दिन की आवश्यक सेवाओं में व्यापृत रहती हैं और आकुलता पूर्वक दर्शनों की प्रतीक्षा करती रहती हैं। अरुणोदय होते ही वे ललिता आदि मुख्य सखियों से युगल को जगाने को कहती हैं- ‘जगाइ री भई बेर बड़ी’। सब मिलकर जगाने का संकल्प करती हैं, किन्तु प्रेमावेश से श्रमित नव- दंपति को किसलय-शय्या पर शयन करता देखकर उनके हृदय में वात्सल्य उमड़ आता है और वे कुछ देर के लिये उसी के आस्वाद में निमग्न हो जाती है। एक कहती है ‘हे सखी, जहाँ रूप की चहल-पहल रहती है, उस रंग-महल के किवाड़ खोलकर तू युगल को जगा दे। पहपीरी[3] हो गई है और मेरे नैन और प्राण युगल को देखे बिना व्याकुल हो रहे हैं। युगल के जागने पर मंद मुस्कान रूपी धन मुझे मिलेगा और उनका गुणगान करती हुई मैं सेवा में प्रवृत्त हो जाऊँगी।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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