हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 144

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
सहचरी

प्रीतम की प्रेम-गति देखैं भूली तन-गति,
बड़े-बड़े नैना दोऊ आये प्रेम जल भरि।
प्रिया लाल-लाल कहिं लये लाइ उरजन,
चूँमि-चूँमि नैना रही अधर दसन धरि।।
हितध्रुव सखी सब देखत बिबस भई,
प्रेम-पट नाना रंग झलकै सबनि पर।
एक चित्र की सी खरीं, एक धरनि खसि परीं,
एकनि के नैननि तै गिरै नेह-नर ढ़रि।।

सखियों की यह गति देखकर राधा-मोहन उनके पास आकर खड़े हो जाते हैं और उनकी ओर करुणा पूरित नेत्रों से देखते हैं। वे उनके हृदयों में अमृत की सी धारा सींचकर उनको बलपूर्वक प्रेम-सिन्‍धु के भँवर से निकालते हैं। युगल को घेरकर खड़ी हुई, महारसरंग से भरी सखियों के नेत्र तृषित चकोरों की भाँति युगल की रूप-माधुरी का पान करने लगते हैं। इस प्रेम विहार में क्षण-क्षण में जल के से सहज तरंग उठते रहते हैं और वहाँ यही खेल रात-दिन होता रहता है।

सखीनु की गति हेरै, ठाड़ै भये जाइ नेरैं,
करुना कै चितयौ दुहूँनि तिन ओर री।
अमी की सी धारा उन सींचि गये सबनि कै,
प्रेम सिन्‍धु भौंर तैं निकासी बरजोर री।।
चहूँ दिस राजै खरी, महा रसरंग भरी,
नैननि की ग‍ति बहै तृषित चकोर री।
सहज तरंग उठै जल केसे छिन-छिन,
हितध्रुव यह खेल तहाँ निसिभोर री।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भजन श्रृंगार, द्वितीय श्रृंखला

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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