श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
सहचरी
सखियों को प्रेम के नेम तो स्पर्श नहीं करते किन्तु वे जीवन धारण उन्हीं का चयन करके करती है। ध्रुवदासजी कहते हैं, ‘युगल के नेत्रों की सैन और चपल चितपनि रूपी परम सुन्दर मोतियों को सखी-हंसनी नेत्र भर-भर कर चुगती रहती हैं, नैन-सैन चितवनि चपल मनु मुक्ता छवि ऐन। इस प्रकार, वृन्दावन-रस रीति में, सखियों का स्वरूप काव्य जगत् के सामाजिक से मिल जाता है। वे सामाजिक की भाँति ही एकात्म–भाव से युगल के प्रेम-रूप का आस्वाद करती हैं किन्तु दोनों में बहुत बड़ा भेद यह है कि सखीगण युगल की प्रेम लीला की प्रयोक्तृ भी हैं। उनकी इच्छा राधा-माधव की रुचि के साथ इतने सहज भाव से अभिन्न बनी हुई है कि ध्रुवदासजी ने सखियों को युगल की ‘इच्छा-शक्ति’ कहा है। स्वभावत: युगल सखियों की इच्छा के अधीन हैं। ‘इच्छा शक्ति रूपी सखीगण संपूर्ण रसमय क्रीडाओं की प्रयोक्तृ हैं और वही सबके हृदय में क्रीड़ा के अनुरूप भाव उत्पन्न करती हैं, करवावत सब ख्याल, इच्छा शक्ति सखी तहाँ। सखियों की लीला-प्रयोजकता का एक सरस उदाहरण हितप्रभु ने अपने एक पद में दिया है। ‘शिशिर और ग्रीष्म की संधि- रूपा वसंत ॠतु वृन्दावन में नित्य निवास करती है। वहाँ के जल, थल और आकाश में सदैव वासंती उल्लास भरा रहता है। वसंत-सखा कामदेव वहाँ की कुंजों को सँवारते रहते हैं। श्यामाश्याम रात्रि के सुखमय विलास के बाद उनींदे उठे हैं। अनुराग के रंग से उनके तन-मन रंग रहे हैं। सखीगण उनको रँगमगे देखकर अनेक प्रकार के बाजे बजाने लगती हैं और बाँसुरी एवं मुखचंग पर गान की सरस गति का सूचन उनको कर देती हैं। श्यामाश्याम उस गति को पकड़ कर गौरी राग के अलाप के साथ ‘चाँचरि’ गाने लगते हैं, और ‘हो-हो-होरी’ कहकर आनंद से पुलकित होने लगते हैं।[3] यहाँ सखियों ने वसंत-गान की गति का सूचक करके राधा-माधव की वसंत-क्रीडा का प्रवर्तन किया है। सखियों के वाद्यों में वही गान बजता है जो उस समय युगल के हृदयों में छाया होता है और युगल के हृदयों में वही गान छाया होता है जो सखियों के वाद्यों में बजता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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