हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 109

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
युगल-केलि (प्रेम-विहार)

नवल-नवल सुख-चैन-ऐन आपुने आपु बस।
निगम-लोक-मार्याद भंजि क्रीड़ंत रंग रस।
सुरत-प्रसंग निसंक करत जोई-जोई भावत मन।
ललित अंग चल भंगिभाय लज्जित सू कोक गन।।
अद्भुत विहार हरिवंश हित निरखि दासि सेवक जियत।
विस्तरत, सुनत, गावत रसिक नित-नित लीला-रस पियत।।

अद्भुत विहार को पंचशर कामदेव ने किसी प्रकार देख लिया और उनके बाण उलट कर उसी के लग गये और उसका सारा शरीर जर्जरित हो गया। महा अनंग मोहित और लज्जित हो गया और उस दिन से अपना सिर ऊँचा नहीं उठाता।

पंचबान जेहि पानि है देखि गयौ यह रंग।
तेई बान तेहि फिरि लगे जर जर भये सब अंग।।

बिबस भयो सुधि रही न कछु, मोह्यौ महा अनंग।
लज्जित ह्वै रह्यो नमित अति करत न सीस उतंग।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भजनाष्टक

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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